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हेमचन्द्र विक्रमादित्य

शत्रुघ्न प्रसाद

प्रकाशक : सत्साहित्य प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1989
पृष्ठ :366
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1604
आईएसबीएन :00000

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हेमचन्द्र नामक एक व्यापारी युवक की कथा जिसने अकबर की सेना से लड़ने का साहस किया!


छियालीस


'क्या सोच रहे हैं ?' नूरी ने जमाल से पूछा।
'सीकरी की तरफ जाने को सोच रहा हूं।' जमाल ने उत्तर दिया।
'सूफी फकीर से मिलना है या शायर मंझन से ?'
'सूफी फकीर से तो भेंट हो सकती है। मंझन से मिलना मुश्किल है, वे मनमौजी जीव हैं।'
'उनकी मनसबी-शायरी को सुनने-पढ़ने की ख्वाहिश जग गई है। लेकिन उनका तो पता ही नहीं है।'
'सीकरी की तरफ उनका पता चल सकता है।'

'लेकिन आप कौन-कौन काम करेंगे? मेहमान साहब ने गल्ले का रोजगार सौंप दिया है, कपड़े का काम चल ही रहा है। किधर-किधर दौड़ेंगे?'

'मुंशी चाचा की मदद से सम्भल जाएगा। चिन्ता क्या है ! एक दूसरी चिन्ता है।'
'वह क्या है ?

'अफगान राज कमजोर हो रहा है। उधर मुगल सरहद पर हुंकार कर रहे हैं। हेमचन्द्र समय पर इस राज्य को मदद करने को तैयार हुआ है।'

'यह तो सियासी मामला है। आपके रोजगार से क्या मतलब है ? आप क्यों परेशान होने लगे ?'

'देश में सुख-शांति रहने पर ही रोजगार हो सकेगा।'
'तब आप क्या करेंगे ?'
'अफगान राज को अफगान, हिन्दी मुसलमान और हिन्दू-सभी मदद करें, यह हेमचन्द्र का विचार है। मैं भी सहमत हूं, यह राज्य सबको अपना समझे। बराबरी का व्यवहार करे, तभी सब लोग अपना समझकर मदद कर सकेंगे।'

'बहुत सही ख्याल है। यह होना चाहिए।'
'इसलिए मुझे हिन्दी मुसलमानों को समझाना है। सबको एक-दूसरे से जोड़ना है। कबीरदास की बानी द्वारा सबको जोड़ना है, मन की खाई को पाटना है।'

'यह तो ऊंचा ख्याल है, लेकिन आप कैसे करेंगे ? सरवर भाई नाराज हैं, मुल्ला साहब नाराज हैं, हिन्दू भाई नाराज हैं। आप क्या कर लेंगे ?
'मैं जमाल हूं, हिन्दी मुसलमान हूं, कबीरपंथ की ओर बढ़ रहा हूं। जानती हो, नूरी ! हिन्दी मुसलमानों में कुछ जबरदस्ती मुसलमान बनाए गए हैं। कुछ डर से बने हैं, कुछ समाज में बराबरी का दर्जा पाने के लिए बन गए हैं। और मैं नूरी के लिए।

'नूरी भी साईंदास का भजन सुनने लगी है। वह ज्योति कहा सकती है। आग दोनों तरफ है, मेरे प्रीतम !'

'नूरी को ज्योति नहीं, मोहन को जमाल बनना पड़ा है।'

'हां, यह तो है। रतनसेन को जोगी बनकर पद्मिनी रानी के लिए सिंहल द्वीप जाना पड़ा। आपको भी जोगी बनकर किशनपुरा से सिकन्दराबाद यानि सिंहल द्वीप आना पड़ा है।'

दोनों मुस्करा उठे। 'अच्छा, मुझे जाने दो, नूरी !'

'लेकिन आप सियासी मामलों में दखल न दें। एक साहब तो फंस गए।'

'सरवर भी उधर पहुंच रहा है, कुछ उपद्रव करेगा।'

'तब दो फूंक-फूंक कर कदम उठायें।'

'तुम फिक्र मत करो, कुछ अनुभवी हो गया हूं।'

जमाल ने सरजू को काम समझा दिया और वह सीकरी के लिए चल पड़ा। नगर से कुछ दूर निकलता गया। सोचता जा रहा थानये बादशाह ने हेमचन्द्र को वजीर बनाया है। वह बादशाह का विश्वासी बन गया है। सबसे विदा होकर युद्ध में चला गया। मां और बहन - दोनों बेचैन थीं। आंसूओं को रोकना कठिन था, भय स्वाभाविक है। वह तो उत्साह में था। वह विजयी हो, यशस्वी हो। पर मां और बहन को संभालना कैसे हो?

कोई गांव आ गया था, वह रुक गया, गांव में घुसते ही बुनकरों से भेंट हो गयी। इनमें कुछ लोग हिन्दू थे और कुछ लोग मुसलमान बन चुके थे। दूसरी तरफ जाट किसान थे, तीसरी तरफ अछूत थे। मिट्टी के छोटे-छोटे घर थे। कुछ फूस के थे। बाहर ओसारे में चमड़े का काम कर रहे थे। कहीं जूता बन रहा था। कहीं मशक की सिलाई हो रही थी, कहीं जीन बनायी जा रही थी, ओसारे के बाहर उनके बच्चे मिट्टी के ढेले और कंकड़ से खेल रहे थे। उनके काले शरीर पर नाममात्र को ही कपड़े थे। स्त्रियां पानी भरने के लिए जा रही थीं। पुराने-फटे कपड़ों में किसी प्रकार शरीर को छिपाती हुई।

वह दो क्षण के लिए ठिठक गया, चाहा कि वह जल्दी ही निकल जाये। अचानक उसने सुना कि कोई बूढ़ा भजन गा रहा है। वह धीरेधीरे चलने लगा। रैदास का भजन था। यह सुनकर उसे अच्छा लगा। किसी सन्त के सबद मन को सहारा दे रहे हैं। ये एक तरफ गरीबी की मार से टूटे रहते हैं और दूसरी तरफ अछूत होने के कारण, और लोग तो बचकर निकल जाते हैं। इनसे दूर रहने का स्वभाव बन गया है। सन्तों के चरण इधर आने लगे हैं, इधर न पंडित-पुरोहित आयेंगे और न मुल्ला-मौलवी। सन्त ही आ पाते होंगे, कबीर और रैदास ने इन्हें सहारा दिया है।

उसे ध्यान में आया कि जते को थोड़ा सिलवाना है, वह रुक गया। चमड़े की गन्ध फैल रही थी, पर वह एक के ओसारे में पहुंच गया। जूते की मरम्मत के लिए कहा। उसने झांककर घर के भीतर देखा। भीतर लिपा-पुता साफ-सुथरा था। बूढ़ा ध्यान लगाकर भजन गा रहा था। वह भी ध्यान से सुनने लगा, रैदास के बाद कबीरदास का भजन शुरू हो गया। इधर जूते की मरम्मत हो रही थी। उसने बातचीत शुरू की-'लगता है कि फौज के लिए जूते बन रहे हैं, फिर से मुगल आ. रहे हैं, इसी की तैयारी है।'

'जी, हां ! हम राम का नाम लेकर जी लेते हैं। लड़ाइयां तो होती रहती हैं।'

'ये मुगल विदेशी हैं, इस बार सभी मिलकर मुगलों से लड़ेंगे।'

'यह होना चाहिए, साहबजी ! पर हम क्या कर सकते हैं ! हम तो अछूत हैं ! पेट पालना ही कठिन है।'
'सभी को मिलकर सोचना है, सभी कुछ-कुछ करेंगे तभी तो कुछ हो सकेगा।'
'कौन सबको समझायेगा, कौन सबको जोड़ेगा? हम किसके साथ बैठ सकेंगे ?'
जमाल चुप हो गया, लगा कि उसके पास कोई उत्तर नहीं है। दो क्षण चुप रहकर बोला-'साधु सन्त तो आ जाते होगे !'
पंडित-पुरोहित तो उस जाट बस्ती से ही होकर आगे बढ़ जाते हैं। इधर कबीरपंथी आ जाते हैं। मन को भरोसा हो जाता है। मन को अपने राम मिल जाते हैं, एक रैदास बाबा हो गये हैं, उनके चेले भी आते हैं। यहां वे ठहरते हैं, उनके सबद सुनने को मिलते हैं, बस, यही धरम-करम है।'
'एक आसरा तो मिला।'

'छि:-छि:' और...ना...छु' के बीच अपने घर में राम का नाम लेकर जी लेना तप है, हम तप रहे हैं। सभी हमें दबाकर रखते हैं। हम दबकर सिर झुकाकर रह लेते हैं। पेट के लिए जीना तो है।'

जमाल को फिर चुप रहना पड़ा, वह देखता रह गया, इनका जीवन तो हर क्षण चोट खाता है, घायल को आहें भरकर जीना ही है, पर सन्तों से सहारा मिलने लगा है। घाव पर शीतल लेप लगने लगा है।

उसने जूते पहन लिये, मजदूरी दे दी, आगे बढ़ गया, सीकरी पहुंच गया। पहाड़ी पर मस्जिद और खानकाह दिखायी पड़ने लगीं। बाबर ने विजय की खुशी में बनवाया था इसलिए यहां मुगलों के लिए रुझान है। तभी तो हेमचन्द्र का ध्यान इधर है।

वह तालाब के पास पहुंच गया, हाथ-पैर धोकर बैठा, लगा कि उत्तर के कोने पर पेड़ की छांव में शायर मंझन है। उसी का चेहरा झलक रहा है। वह थकान के बाद भी अपने को रोक नहीं सका। वह उठकर उधर ही चल पड़ा, मंझन का मुखड़ा स्पष्ट होता गया।

उसके पैरों की आहट से मंझन की पलकें उठीं, आंखें मिलीं। वह उठ बैठा और बोल पड़ा- 'जमाल मोहन, इधर कैसे ?'

‘अपने शायर से मिलने आ गया जमाल !'

'जमाल मोहन हो, सिर्फ जमाल नहीं। सभी अच्छे हैं न !'

'जी, हां ! आपकी कृपा से सभी ठीक हैं।'

'तो मेरे रैनबसेरे चलो फिर और कुछ ...।

दूसरे दिन जमाल मंझन के साथ सूफी फकीर के पास पहुंचा, बहुत लोग थे, सूफी फकीर बोल रहे थे-'उस परवरदिगार का जमाल सारे खल्क में फैला है। देखने वालों की नजर में इश्क चाहिए। यह इश्क-हकीकी है, यह जरूरी है इंसान की जिन्दगी में। खुदा के जमाल का अहसास कर प्यार में डूब जाना है। इस बेखदी में खदा! हमारे शायर इश्क-हकीकी का बयान कर रहे हैं। मंझन साहब मौजूद हैं, उनसे सुनेंगे, लेकिन चारों तरफ इश्क-मजाजी का बोलबाला है। इस मुल्क का आदमी बुतपरस्त है या शहबतपरस्त, इसलिए जरूरी है कि सबको ईमान पर लाया जाय। हुकमत भी वैसी हो। आज की हालत देख लीजिए, कोई दीनो-ईमान वाला शेर-दिल आया था। खानकाह बना गया। बनाने वाला भटक रहा है, ऐयाश मौज कर रहे हैं।

'सूफी इस मुल्क की अच्छाइयों को अपना रहे हैं। इस मुल्क को भी हमारे पास आना है, एक खुदा और एक रसूल पर ईमान लाना है। हम फकीरों को सियासत-हुकूमत से कोई वास्ता नहीं है, लेकिन शैतान और कुफ्र की हरकतें बढ़ती जाती हैं तो दारूल सल्तनत को सलाह देनी पड़ती है नहीं तो खुदा से मुहब्बत-इश्क ही हमारी जिन्दगी है।'

मंझन जमाल की ओर देखने लगा, जमाल की आंखों में अचरज का भाव था। मजहब और सियासत के तालमेल पर कुछ कहना मुश्किल था।

सूफी फकीर शेख सलीम चिस्ती के शागिर्द थे। उनकी तकरीर खत्म हो चुकी थी। जमाल मंझन के साथ उठकर जाने लगा। मंझन ने चाहा कि फकीर से बातचीत हो जाय, लेकिन जमाल नहीं रुका, इसलिए मंझन को भी साथ अपने रैनबसेरे में लौट आना पड़ा।

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