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हेमचन्द्र विक्रमादित्य

शत्रुघ्न प्रसाद

प्रकाशक : सत्साहित्य प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1989
पृष्ठ :366
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1604
आईएसबीएन :00000

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हेमचन्द्र नामक एक व्यापारी युवक की कथा जिसने अकबर की सेना से लड़ने का साहस किया!


बयालीस



बादशाह मुहम्मद आदिलशाह ने दरबार की कामयाबी के लिए शादी खां की देख-रेख में सरमस्त खां और सईदी खां-दो फौजी सालारों, इब्राहीम खां और अहमद खां--दो रिश्तेदारों और हेमचन्द्र की एक मजलिस बना दी, वजारत इनकी सलाह से काम करने लगी; हिजरी सन् ७० याने ईस्वी सन् १५५४ की शुरुआत थी।

दरबार का दिन आ पहुंचा, लगभग सभी सरदार और जागीरदार आगरे में आ गए। हेमचन्द्र को धर्मपाल द्वारा शहर और सरदारों का समाचार मिलने लगा। यह भी जानकारी मिल गयी कि मुगल सरदार हुमायं पेशावर के पास फौज को इकट्ठा कर रहा है। इधर अफगानी सरदारों में मतभेद उभर रहा था। कुछ सरदार सलीमशाह के खिलाफ आदिलशाह के समर्थक थे। फीरोजशाह के कत्ल की वजह से कछ आदिलशाह से खफा थे और फिर अफगानों-पठानों की जातिगत शाखाओं में स्वार्थमूलक विद्वष बढ़ रहा था। जहां-तहां छोटी-छोटी झड़पों की खबर मिल जाती थी, इसलिए सरमस्त खां, सईदी खां आर इब्राहीम खां आतंक पैदा करने के लिए कोशिश कर रहे थे। हिफाजत के लिए मुकम्मल इन्तजाम किया जा रहा था। हेम चन्द्र अपनी प्रखर बुद्धि की छाप डाल रहा था।

आदिलशाह एतबार के लायक सरदारों और अपने रिश्तेदारों को आगे बढ़ाना चाहते थे, शादीखां, हेमचन्द्र और वकील ने बादशाह के इस खयाल की ताईद की। ये वजारत, सूबेदार सरकार के सरदारों और जागीरदारों के लिए सही सलाह दे रहे थे। हेमचन्द्र के कारण फौज की हिन्दू टुकड़ी को बल मिल रहा था। मथुरा, रेवाड़ी, कोइल, कन्नौज और महोबा के जाट और राजपूत अफगान फौज में शामिल हुए थे। बहादुर खां के साथ हिन्दी मुसलमान भी फौज में आ गये थे, इन्हें भी हेमचन्द्र से प्रेरणा मिल रही थी।

सरमस्त खां और हेमचन्द्र की राय से दरबार को नये ढंग से सजाया गया, बाहर से आये सरदारों और जागीरदारों के लिए रावटियों,
झरोखा, गुलालबार, बारगाह, खरगाह और हरमसरा का नया शहर बसा दिया गया। किले के बाहर के मैदान में इस नये शहर का इन्तजाम हुआ था। किले के भीतर दरबार, शाहीमहल और शाही फौज की शानोशौकत थी। किले के भीतर और बाहर शाही फौज की कवायद सुबहो-शाम चलने लगी।

सुनहली धूप में शाहीमहल से बादशाह आदिलशाह की सवारी निकली। झण्डे और अलम को फहराते हाथी आगे-आगे चल रहे थे। डंके और दमामे की आवाज पर घुड़सवार घोड़ों को ऐड़ लगा रहे थे। ईरानी, तूरानी और हिन्दी साजों की टोलियां अपने संगीत से उत्साह और आनन्द की लहरें उत्पन्न कर रही थीं। पैदल सिपाहियों की नंगी तलवारें और भालों को नोके धूप में चकाचौंध ला रही थीं। शहनाई की लय पर बादशाह का गंगा-जमुनी तामझाम किले का चक्कर लगाकर दरबार के बड़े दरवाजे पर आ पहुंचा। सिपहसालार और वजीरों ने बादशाह का इस्तकबाल किया। नौबत बज रही थी। 'शहंशाहे हिन्द जिन्दाबाद' के नारे लग रहे थे। झुके हुए सरों के बीच बादशाह दरबार में दाखिल हुए। लगा कि जमीन पर जन्नत उतर आई है। सबके सर झुके, बादशाह तख्तनशीन हुए। सारे सरदार, जागीरदार, मनसबदार और वजीर अपनी-अपनी जगह पर बैठ गये, दाहिनी तरफ का रेशमी परदा हिल रहा था। अचानक शहनाई का संगीत मधुर स्वर में बजने लगा, सभी उस स्वर में बहने लगे। संगीत समाप्त हुआ। शाही इमाम ने कुरान शरीफ की आयतों का पाठ किया, दुआएं दीं और बादशाह आदिलशाह के सर पर ताज रखते हुए फूल बरसा दिए। परदे के भीतर मृदंग और बांसुरी की धुन थिरकने लगी।

नजराना देने की शुरुआत हुई, ओहदे और हैसियत के मुताबिक सभी मनसबदार, सरदार, जागीरदार और हाकिम बादशाह के सामने तीन बार झुककर नजराना देने लगे।

बादशाह की ओर से सरदारों को खिलअत और सनद मिलने लगी, रेशमी परदे से हल्का-हल्का संगीत चलता रहा। वजीर, जासूस और हेमचन्द्र चौकस थे। सभी सरदारों पर दृष्टि थी, लगा कि सब कुछ ठीक-ठाक से चल रहा है।

बादशाह आदिल शाह ने खिलअत और सनद देने के वक्त अफगान हुकूमत को मजबूत करने और मुगलों से मुकाबला करने के लिए सबसे इसरार किया, जन्नतनशीन बादशाह शेरशाह के काम को आगे बढ़ाने में सबसे मदद मांगी, साथ ही अपनी खुशी जाहिर करते हुए कहा'इस मुल्क के हिन्दू अपने बुजुर्ग शेरशाह द्वारा कायम अफगान हुकूमत का साथ देने को तैयार हो गए हैं, इसलिए हेमचन्द्र वजीरों में शामिल किया जाता है। वह वजीरेमाल की हैसियत से सल्तनत की माली हालत पर गौर करेगा। सिपहसालार शादी खां साहब की देख-रेख में इब्राहीम खां, सरमस्त खां, हाजी. खां और गजराज सिंह फौज को संभालेंगे, जिससे मुगलों के कदम हिन्दुस्तान की जमीन की ओर नहीं बढ़ सकें।

'हमारे जागीरदार हुकूमत के मजबूत पाये हैं। वे थोड़े से हेरफेर के साथ अपनी जागीरदारी को संभालेंगे। फख्न के साथ सल्तनत को चमकायेंगे जैसे हुजूर बादशाह के वक्त से चमका रहे थे। थोड़े से अदलबदल को नजर-अंदाज कर बाखुशी हमारे हाथों को मजबूत करेंगे।

'सरमस्त खां सेरवानी को कन्नौज की जागीर दी जाती है। कन्नौज के जागीरदार मुहम्मद फरमाली महोबा के पास की जागीर का इन्तजाम करेंगे।'

इस फेर-बदल को सुनकर मुहम्मद फरमाली और उसका रिश्तेदार ग्वालियर का ताज खां करसानी दोनों भीतर ही भीतर उबलने लगे। फरमाली का बेटा सिकन्दर मुखालफत के लिए उतावला होने लगा। फरमाली ने समझाने की कोशिश की, पर वह शांत नहीं हो रहा था। हेमचन्द्र ने स्थिति को देख लिया, उसने बादशाह और शादी खां को इशारा कर दिया, बाकी ऐलान को रोक दिया गया।

रेशमी परदे के भीतर से लखनऊ के गायक रामदास का गायन आरम्भ हुआ, परदा धीरे-धीरे खिसकने लगा। सब लोग रामदास के संगीत की ओर उन्मुख हुए, लेकिन मोहम्मद फरमाली, सिकन्दर पारमाली और ताज खां आपस में इशारे से बातचीत कर रहे थे।

सरमस्त खां होशियार हो गया, उसका बेटा पास में आ गया था।

संगीत समाप्त हुआ, दरबार को मुल्तवी करने का ऐलान हुआ। बादशाह तख्त से उठे, सारे सरदार सर झुकाकर खड़े हो गए, लेकिन सिकन्दर फरमाली ने जागीर के फेर-बदल को बेइंसाफी कहकर विरोध प्रकट कर दिया। सर मस्त खां ने मिठास से कहा- 'शाही दरबार में ऐसे नहीं बोलना चाहिए। सभी अफगान सरदार बराबर हैं। यह हुकूमत उनकी है।'

सिकन्दर ने गुर्राते हुए जवाब दिया- 'अब यह हुकूमत खुदगर्जी और कातिलों की है।'

'अपनी अफगानी हुकूमत पर फख्र करो, सिकन्दर ! और अदब सीखो।'

दरबार से सभी बाहर निकल रहे थे। बादशाह तामजाम पर बैठ चुके थे, जुलूस सज चुका था, लेकिन दरबार के बाहर दरवाजे पर ही सिकन्दर फरमाली ने सर मस्त खां पर तलवार चला दी। सरमस्त खां का सर कट गया। धड़ जमीन पर गिर पड़ा। उसी क्षण सरमस्त खां के बेटे ने मोहम्मद फरमाली और सिकन्दर फरमाली पर हमला कर दिया। वे दोनों मारे गए, ताज खां बादशाह की ओर चला। हेमचन्द्र गजराजसिंह, विजयवाहन और बहादुर खां के साथ आ गया। ताज खां को धीरे-धीरे पीछे हटना पड़ा।

बादशाह आदिलशाह फौज की हिफाजती में शाही महल गए। शादी खां के हुक्म से बादशाह का बहनोई इब्राहीम खां फौज लेकर ताज खां के पीछे चल पड़ा। ताज खां अपनी फौज के साथ आग रे से निकल गया। इब्राहीम खां ने अपनी जीत मान ली। वह लौट आया।

दूसरे दिन बादशाह ने सरदारों और जागीरदारों को शाहीमहल में दावत दी, सबके साथ एक ही दस्तरखान पर खाना खाया और फिर नाच-गाने की महफिल जमी। सभी बादशाह से खुश नजर आ रहे थे। सभी तारीफ कर रहे थे। बादशाह कभी नाच पर खुश हो जाते थे और कभी अपने सरदारों की तारीफों पर। हेमचन्द्र महफिल में दिखायी नहीं पड़ा। वह तो धर्मपाल से बातचेत कर रहा था। बादशाह ने महफिल में खोजा, फिर नृत्य की अदा और गीत के बोल पर सब भूल गये।

महफिल के बाद सभी दीवानखाने में बैठे। सबने अपनी वफादारी की कसमें खायौं। फिर सभी रुखसत हुए। शादी खां और इब्राहिम खां रुक गए। हेमचन्द्र को बुलाया गया, उसने कहा-'कल एक छोटी-सी बात ने सब चौपट कर दिया। बाहर से आए सरदारों पर अच्छा असर नहीं पड़ा।'

'तुम सही कहते हो, हेमचन्द्र ! ताज खां को कुचल देना चाहिए था।' शादी खां ने अपनी राय दी।

'ताज खां करसानी फरमाली के साथ-साथ बागी बन चुका है। वह ग्वालियर जाकर बगावत करेगा। उस पर कड़ी नजर रखनी पड़ेगी।' हेमचन्द्र ने अपना विचार रखा।

'हां, हेमचन्द्र ! फरमाली और करसानी ने बगावत कर दी। 'फरमाली मारा गया। पर यह तो निकल गया।' शादी खां ने हेमचन्द्र की ताईद की।

एक तरह से वह कुचल दिया गया है। उसे शाही फौज के सामने दुम दबाकर भागना पड़ा है। मैं उसे आगरा से बाहर करके ही लौटा हूं।' इब्राहिम ने समझाया।

'बागी को जिन्दा छोड़ना गलत है, इब्राहिम खां ! हम इसे आगे देख लेंगे। बागी सिपाही या सरदार, उन्हें जिन्दा नहीं छोड़ना है।' बादशाह ने अपने ख्याल को रखा।

इब्राहिम खां थोड़ा खीझ उठा। उसने देखा कि सबकी नजर उसी पर है। वह बादशाह का बहनोई होने के कारण सिपहसालार बन गया। लेकिन वह जवांमर्दी नहीं दिखा सका, शायद ये लोग यही सोच रहे हैं। उसने ताज खां को भगाया है, इसकी तारीफ नहीं हो रही है। नुकता-चीनी हो रही है, क्या उसे नीचा दिखाने की कोशिश हो रही है ? वह अपनी जवांमर्दी से अपने को खड़ा करेगा।

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