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हेमचन्द्र विक्रमादित्य

शत्रुघ्न प्रसाद

प्रकाशक : सत्साहित्य प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1989
पृष्ठ :366
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1604
आईएसबीएन :00000

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हेमचन्द्र नामक एक व्यापारी युवक की कथा जिसने अकबर की सेना से लड़ने का साहस किया!


इकतालीस



'चन्दा ! अब तो तुम्हें बांसुरी बजाना आ गया।' खुदादीन ने प्रसन्न भाव से कहा।

'हां, काका ! थोड़ा-थोड़ा आ गया है।' चन्दा ने उत्तर दिया।

'आज के तमाशे में गजेन्दर ने बहुत अच्छी बांसुरी बजाई और तुमने भी पास आकर बांसुरी बजा दी। राधाकिशन का रूप खड़ा हो गया, लोगों ने बहुत पसन्द किया।

'मैं यही चाहता था, काका ! आपने मेरी बात मान ली, चन्दा भी मान गई। आज का खेल सबसे अच्छा बन गया। लोगों ने दाम उड़ेल दिए।' गजेन्द्र ने कहा।

'मैं मान गया, गजेन्दर ! तुम कलाकार हो, वीर बहादुर हो।'

'चन्दा का सबके सामने नाचना अच्छा नहीं लगता था। नाच एक कला है, पर उसे आती नहीं। सड़कों-चौराहों पर हाथ-पैर उछालना भद्दा लगता था।' गजेन्द्र ने बताया।

'मजबूरी रही है, गजेन्दर ! बाजीगरों-नटों के बीच चन्दा का रहना और गांव-गांव भटकना-नाचना किस्मत की मार है।'

'किसी के जुल्म से इसे नाचना पड़ा है ! आप मजबूर रहे हैं ! और फिर आपने दया भी की है !'

'जो समझ लो। इससे अधिक कुछ कहा नहीं जा सकता। मैं देवीदीन रहा....खुदादीन हूं...एक गरीब नट। सबका दुःख-सुख समझता रहा। तुम्हारी काकी का हृदय बड़ा कोमल है। इससे चन्दा पर जलुम नहीं हुए। इसे बेटी मानकर ध्यान रखता रहा।'' यह पाप तो नहीं हुआ?'

'यह सबसे बड़ा पुण्य हुआ, काका ! आप बहुत अच्छे हैं।'

दोनों ने देखा कि चन्दा उठकर खेमे में चली गई है, मैना के साथ खाना परोसने में हाथ बंटा रही है। दोनों खाने के लिए बैठ गए। पास में आग सुलगने लगी, रात की ठंड बढ़ रही थी।

भोजन के बाद खुदादीन और गजेन्द्र आस-पास सोने की कोशिश करने लगे। गजेन्द्र ने लेटे-लेटे कहा- 'काका ! किधर जाने को सोचा है?'

'आगरे की तरफ चलोगे ?' शहर राजधानी से हटकर पास के गांवों में ही खेल-तमाशे दिखाए जायें।'

'आगरा राजधानी है, काका ! वहां बड़े-बड़े तमाशे हैं, बड़े-बड़े लोग हैं। उधर नहीं जाना, मुझे भैया का भी डर है।'

'आगे दिल्ली भी राजधानी रही है, बड़ा शहर है। उधर भी नहीं जाना है। बीच के इलाके में घूमना है, रोटी तो मिल जाएगी।'
'हम नये-नये खेल बनाते रहेंगे, काका !' 'तो क्या तुम बाजीगर बनकर गांव-गांव भटकते रहोगे ?'
‘आपको वचन दिया है। याद है न !'
'मेरी तो इच्छा है कि..।'
'वह क्या...काका !'
'तुम पर पूरा विश्वास हो गया है, गजेन्दर ! सोच रहा हूं। सो जाओ।'
दोनों सो गए।

शीतकाल का सूरज देर से आता दिखाई पड़ा। लग रहा था कि उसने शीत के कारण कम्बल में अपने को छिपा लिया है। परन्तु गजेन्द्र की बांसुरी बज रही थी। पंछी भी गा रहे थे, सबकी नींद टूट गई। एक खंडहर के पास इनके खेमे थे। खंडहर झाड़-झुरमुटों में छिपा था, उत्तर में किसानों का गांव था, दक्खिन में वणिकों और शिल्पियों का गांव बसा हुआ था। दूर-दूर तक खेत फैले थे। कुछ दूर पर सड़क थी जो ग्वालियर आगरा को जोड़ रही थी।

सहसा दक्खिन के गांव में संवाद फैला कि ग्वालियर की तरफ से अफगान सरदार आगरा की तरफ जाने के लिए निकला है। आगरा में नये अफगान बादशाह का दरबार है। घोड़ों की टापों से धूल उड़ रही है, सरदार लाव-लश्कर के साथ आगरा जा रहा है। आसमान धूल से भर उठा है। गांव वालों ने स्त्री-बच्चों को घरों में छिपा दिया। सबके द्वार बन्द हो गए, पर खेत की हरियाली को कहां छिपाया जाय !
उसकी रक्षा धरती मां करें या सूरज भगवान !

खुदादीन को यह संवाद मिल गया, वह भी सतर्क हो गया। उसने गजेन्द्र को बुलाया, बांसुरी की ध्वनि बीच में ही बन्द हो गई। चन्दा पूजा कर रही थी, क्षण भर के लिए उसकी पूजा भी रुक गई। बांसुरी बन्द क्यों हो गई ? बात क्या है ? वे काका के पास जा रहे हैं। उसने पूजा पूरी की—पहले शंकर की और फिर शालिग्राम की।
उधर खुदादीन का आदेश गूंज रहा था-'मैना और चन्दा खंडहर में छिप जायें। आध घड़ी की बात है, और सभी खेमे में पड़े रहेंगे।'

'मैं भी खेमे में ही, काका !' गजेन्द्र ने पूछा।

'नहीं, तुम अपनी तलवार संभालकर पीपल की चोटी पर बैठे रहना, पर आंखें खंडहर पर रहेंगी।'

'यह बात हुई न।'

धूल उड़ती नजर आने लगी। खुदादीन ने सबको इशारा कर दिया, सभी खेमे में छिप गए। गजेन्द्र तलवार लेकर पीपल की ऊंची डाल पर पहुंच गया। मैना चन्दा को लिये खंडहर में आ गई, चमगादड़ पंख फड़फड़ाने लगे। चन्दा डर-सी गई। मकड़े के जाल ने खंडहर को बांध रखा था। पास में सूखे ताल के पास भग्न शिवालय था।

चन्दा ने खंडहर की ऊंची दीवार को देखा। दीवार की मिटती हुई नक्काशी को देखा। उसने ऊंची सांस ली, ऊंची दीवार...अटारी...ऊपर का कलश"मन्दिर में घंटों की टन-टन। फलों की क्यारियां पायल की रुनझुन के साथ क्यारियों में विचरण...खिले फूलों की माला 'मां के साथ पूजा शंखध्वनि....चांदी की थाली में नैवेद्य और चारों तरफ सशस्त्र सैनिकों के चमकते चेहरे गौरव का जीवन सब नष्ट-भ्रष्ट. वह सड़क पर इस खंडहर में क्या उसने पाप किया है ? कोई अपराध किया है ? उसके पिताजी ने अपराध किया पिछले जन्म में, कैसे समझा जाय ? यह कष्ट तो किसी अपराध का दंड है ! मां की गोद और आंगन अटारी में खेलना-फुदकना ही बचपन रहा है। किसी को सताया नहीं। फिर उसे क्यों सताया जा रहा है ? ये तुर्क-अफगान सताने में क्यों सुख पाते हैं ? वह काफिर है, हिन्दू है। इसलिए उसे कष्ट पाना है ! काका देवीदीन से खुदादीन हो गएक्या सुख पा रहे हैं ? दबाव में ही खुदादीन होना पड़ा, पर पर्व-त्यौहार पर काकी सिसकी भर लेती हैं।

मैना ने मकड़े के जाल को साफ करते हुए चन्दा को एक कमरे में छिपा दिया। उसी समय घोड़ों की टापों से इस बियाबान का सन्नाटा टूट गया। पास की सड़क से अफगान सरदार का काफिला जा रहा था, कुछ इधर आ गये। खण्डहर देखकर लौटने लगे।

इन आवाजों से चन्दा का हृदय धक से हो गया, वह अकेला बांसुरी वाला क्या कर लेता? मारकाट हो जाती, खण्डहर में खून बह जाता, इस बार उसका भी खून बहता। जीवन खंडहर खून खंडहर की धूल में और प्राण ऊपर की ओर चले जाते। यही होता, यदि प्राणों के साथ प्रतिष्ठा नहीं रहे। मनुष्य पशु नहीं है। तुर्कों के शासन में नारी की प्रतिष्ठा एक समस्या बन गयी है। तभी तो घर में धूंघट में छिपाकर रखा जा रहा है, विवाह-बारात भी शस्त्रों के साथ और प्रतिष्ठा के लिए बाल-विवाह का चलन, यह कैसी व्यवस्था है ? 'चन्दा ! वे लोग चले गये, अब हम बाहर चल सकते हैं।' मैना काकी बोल उठी।

चन्दा काकी की ओर देखने लगी, काकी की आंखों में अनुरोध था। वह उठकर खड़ी हो गयी, कपड़ों से गन्दगी को साफ किया। काकी के साथ बाहर आयी, गजेन्द्र भी पीपल से उतर पड़ा।

लगा कि कोई दूसरा काफिला निकट आ गया है। गजेन्द्र ने देखा रेशमी बुरके में कोई औरत खंडहर में जा रही थी। उसके साथ और भी औरतें थीं, बाहर हथियारबन्द सिपाही थे। वह समझ नहीं सका, उसने खुदादीन को बताया। खुदादीन ने कहा—'औरतों का काफिला है। कोई परेशानी की बात नहीं है, हम लोग खंडहर के बाहर अपने खेमे में रह सकते हैं।'

'अपने खेल-तमाशे से ये खुश हो सकती हैं।' मैना ने कहा।
'कहीं मेरी बांसुरी पर रीझ गयीं तो ?' गजेन्द्र ने पूछा।
'तो कोई रूठ भी तो सकता है।' मैना ने जवाब दिया।'
चन्दा धरती की ओर देखने लगी, सबके होंठों पर मन्द मुस्कान खेल गयी, उसी समय पैरों की धमक सुनायी पड़ी, सभी सहम उठे। तीखा स्वर सुनायी पड़ा- 'खेमे उखाड़ो, और अपना रास्ता नापो।'
गजेन्द्र ने देखा कि अफगान सिपाही हैं, निडर होकर कहा-'हम अपने खेमे में हैं, हम कहां जायें?'
'जबान मत लडाओ, जबान तराश दी जायगी।'
खदादीन ने खेमे से बाहर आकर कहा-'हम बाजीगर हैं. हुजूर ! हम खेल-तमाशे दिखाते हैं। आपका दिल बहल जायेगा।'
'यहां बाजीगर और जादूगर की जरूरत नहीं। बेगम साहिबा आराम फरमा रही हैं, जल्दी भागो।'
खुदादीन ने गजेन्द्र को इशारा कर रोका। खेमे को उठा लेने को कह दिया, टट्टू हिनहिना उठे, अफगान सिपाही लौट गये।

खंडहर में जन्नतनशीन सलीमशाह की बेगम छिपकर आराम कर रही थीं। सिपाहियों ने बाजीगरों के चले जाने की खबर कर दी। उन्होंने खुश होकर कहा- 'खान ! उन्हें मालूम न हो, कुछ दिन यहां रह लेना है। हम ग्वालियर के रास्ते पर हैं। ताज खां आगरा से लौटेगा, उससे बातचीत की जायगी, वह मददगार बन सकता है।'

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