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ऐतिहासिक >> हेमचन्द्र विक्रमादित्य

हेमचन्द्र विक्रमादित्य

शत्रुघ्न प्रसाद

प्रकाशक : सत्साहित्य प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1989
पृष्ठ :366
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1604
आईएसबीएन :00000

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हेमचन्द्र नामक एक व्यापारी युवक की कथा जिसने अकबर की सेना से लड़ने का साहस किया!


चालीस



हरखलाल को नींद नहीं आ रही थी। भीतर बड़ी विकलता थी, सोच-सोचकर विकल हो रहा था। मुबारिज खां मुहम्मद आदिलशाह के नाम से गद्दीनशीन हुए, यह देखने का अवसर मिल गया। बादशाह ने नजराना कबूल कर लिया। मन प्रसन्न हो गया था, पर वे तो पूछने लगे कि हेमचन्द्र रेवाड़ी से कब तक लौटेगा? उसने तो बता दिया कि वह शायद ही लौटे। और उसने विनम्रता से हेमू के स्थान पर सेवा करने का इशारा किया तो बादशाह मुस्कराने लगे। नजर भी हटा ली। वजीर ने उसे पीछे जाकर बैठ जाने का आदेश दे दिया। उस समय लगा कि किसी ने अचानक चोट पहुंचा दी है। वह जमीन पर गिरकर छटपटा रहा है, पीछे जाकर बैठ जाना पड़ा। इच्छा तो हुई कि उठकर चल दिया जाए। लेकिन यह दरबार के अदब-कायदे के खिलाफ हो जाता। मन मारकर रुकना पड़ा। सशस्त्र सैनिकों के पहरे में दरबार का रंग देख लिया। संध्या में सबकी दृष्टि बचाकर लौटा। मुंशी हरसुखलाल को पता चल गया होगा, हेमू आ गया है। ये लोग बातें कर रहे होंगे। हंस रहे होंगे।

हरखलाल ने करवट बदल-बदल नींद को बुलाने की कोशिश की। पर नींद नहीं आ रही थी। कभी बादशाह की हंसी और कभी मुंशी हरसुख की मुस्कान झलक उठती थी।

लक्ष्मीभवन में हेमचन्द्र अपने शयन-कक्ष में लेटा हुआ सोच रहा था-यह बादशाह तो कपटी और हत्यारा है। इसकी क्या नीति होगी? क्या इसे सभी अफगान सरदारों का सहयोग मिलेगा? सबका सहयोग नहीं मिल सकेगा, तब क्या होगा? यह अफगान राज्य बिखर सकता है। वैसे मथुरा, दिल्ली, रेवाड़ी और इधर कोइल, महोबा की छावनियों में नये सैनिकों का अभ्यास चल रहा है। विजय और खेमराज ने फौजी भर्ती में प्रयत्न किया है। गजराजसिंह का प्रयत्न भी सफल होगा, और बहादुर खां ने भी सहयोग देने का वचन दिया है। पर अफगान सरदारों के आपसी झगड़े से राज्य दुर्बल होगा। मुगलों के पैर बढ़ाने का अवसर मिल सकता है। यह तो बहुत बुरा होगा।

पार्वती गर्म दूध लेकर आ गयी। देखा कि इनका शीश हथेली पर टिका है। आंखों में चिन्ता है, वह बोल उठी-'यह दूध पी लें, और विश्राम करें। चिन्ता क्यों कर रहे हैं ? नये बादशाह ने स्मरण किया है तो कल उपहार के साथ जाइएगा। इसके लिए चिन्ता क्यों ?'

हेमचन्द्र ने दूध पी लिया, और धीरे से कहा- 'पार्वती ! तुम इस चिन्ता को धीरे-धीरे समझोगी।'
'आप मुझे पारो ही कहें।'
'पारो !' यह सम्बोधन कर हेम चन्द्र ने निहारा। एक क्षण के बाद लगा कि पार्वती की आंखों में 'पारो' झांक रही है। उसका हृदय भर आया, पार्वती समझ गयी। उसने स्नेह भरे स्वर में विश्राम करने का आग्रह किया।
दूसरे दिन प्रभात में ठंडक सुनहली धूप में अपने को गरमा रही थी। हेमचन्द्र योगी शिवनाथ और धर्मपाल से मिला, योगी के सामने अपनी समस्या रखी।
योगी ने आंखें बन्द कर विचार किया, और फिर गम्भीर स्वर में कहा-'हेमचन्द्र ! तुम्हारा अनुमान ठीक लग रहा है। इस उथल-पुथल के कारण अफगानों का राज्य दुर्बल होता जाएगा। मुगलों का आक्रमण हो सकता है।'
'तब क्या हो ?'
'नये बादशाह को सहयोग दिया जाय। प्रजा में तुम्हारे प्रति उत्साह जग गया है। प्रजा तुम्हें अपना समझने लगी है। नये बादशाह को तुम्हारे जरिए प्रजा की ओर झुकना है। तभी उसे शक्ति मिल सकती है।'
‘पर यह बादशाह तो कपटी और कातिल है, इस बदनाम को सहयोग...?'
'बादशाह प्रजा पर अत्याचार करने से बदनाम होते हैं। गद्दी के लिए ये अपनों को मार ही देते हैं। इसे सहयोग देने से हेमचन्द्र की-प्रजा की शक्ति बढ़ेगी। और विदेशी मुगलों के कदम रुक सकेंगे।'
'यह तो ठीक लगता है।'
'तब हेमू...अरे हेमचन्द्र ! अब संकल्प कर लो।'
'तुम्हें हेमू कहने का अधिकार है, धर्मपाल ! तुम संकल्प भी करा सकते हो।'
'हेमचन्द्र ! अपने अन्तर से अपनी बुद्धि से संकल्प कर लेना है।' 'यही होगा !'
हेमचन्द्र की दृष्टि योगी शिवनाथ और धर्मपाल से होती हुई प्रभात-पवन में झूमते पौधों पर गयी। फिर वह दृष्टि आकाश की ओर लग गयी। चहकते हुए पंछी उड़ान भर रहे थे। दूर तक उड़ान भरते जा रहे थे। धुनी हुई रूई के समान बादल के उजले-उजले टुकड़े उनकी उड़ान का स्वागत कर रहे थे।

उसका मन प्रफुल्लित हो उठा। उसने कुछ कहना चाहा। पर उसने स्वर को मन्द किया। बहुत धीरे कहा-'धर्मपाल ! तुम्हें राजधानी में चक्कर लगाना है। प्रत्येक बातचीत प्रत्येक रहस्य को संजो लेना है।'

‘एवमस्तु !' धर्मपाल ने उत्साह में उत्तर दिया।

योगी शिवनाथ मुस्करा उठे। और कहा- 'अब धर्मपाल की कुंडलिनी जग जाएगी। इसे उचित कार्य मिला है।'

'आपकी आशीष से यह कार्य अवश्य ही पूरा होगा।' धर्मपाल ने जवाब दिया।

उसी समय वाटिका के द्वार पर आवाज हुई, सभी सहम गए। द्वार खुला, जमाल अहमद था। हेमचन्द्र ने नमस्कार किया, जमाल ने योगिराज को प्रणाम कर हेमचन्द्र को हृदय से लगा लिया। और बड़े स्नेह से पूछा--'तुम्हारी यात्रा तो निर्विघ्न पूरी हो गयी न ! सभी सकुशल लौटे आये !

'जी, हां ! हम सभी सकुल लौट आये हैं।'
'पर यहां पिताजी अस्वस्थ हैं।' जमाल ने दुःखी मन से कहा।
'हम दोनों उनकी सेवा करेंगे।' हेमचन्द्र ने जवाब दिया।
'कल वे मुझे क्षमा कर देने की बात बोल रहे थे।'
'पिता का हृदय है, आप मिलते रहें। एक बात और है।'
'वह क्या...?'
'आप हिन्दी मुसलमानों से सम्बन्ध बढ़ाते रहें। उनमें अपने देश के लिए भाव जगाते रहें। वे समझें कि आप उनके लिए चिन्ता कर रहे हैं। यह बहुत आवश्यक है क्योंकि मुगलों के घोड़े इस देश को रौंदने के लिए उतावले हो रहे हैं। और अफगान कमजोर हो रहे हैं।'
जमाल दो क्षण हेमचन्द्र को देखता रहा, फिर बोल उठा- 'तुम्हारी सूझ-बूझ को चूम लेने की इच्छा हो रही है, हेमचन्द्र !'
'यह आपका अधिकार है, मोहनलाल याने जमाल मोहन साहब !' यह धर्मपाल के विहंसते शब्द थे।

सभी मुस्करा उठे।

योगी शिवनाथ ने नगर से बाहर अपनी कुरिया के लिए आग्रह किया। धर्मपाल और जमाल ने समर्थन किया। हेमचन्द्र ने इस आग्रह को स्वीकार किया। सभी एक साथ सेठ सोहनलाल से मिलने के लिए लताकुंज को पार कर आगे बढ़े।

सोहनलाल स्वस्थ लग रहे थे। उन्होंने हेमचन्द्र को नये अफगान बादशाह आदिलशाह से मिलने और नजराना भेंट करने के लिए आग्रह किया।

एक घड़ी के बाद हेमचन्द्र मुंशी हरसुखलाल के साथ किले की तरफ चल पड़ा। दुर्गा कुंवर और पार्वती ने मंगल कामना की। योगी शिवनाथ ने आशीष दी। हेमचन्द्र ने रास्ते में गजराज सिंह से मिलने के लिए सोच लिया। नदी-तट पर गजराज सिंह का ही पहरा था, मिलना था ही, दोनों उधर बढ़ते गए।

यमुना-तट पर गजराज सिंह दिखाई पड़ा, लग रहा था कि वह हेमचन्द्र की प्रतीक्षा कर रहा है। हेमचन्द्र बड़ी उमंग से मिला। गजराज सिंह ने अपने इलाके का समाचार सुना दिया। गजेन्द्र सिंह के लापता होने की बात भी बता दी। हेमचन्द्र और मुंशी हरसुखलाल को गजराज की व्यथा का अनुमान हो गया। दो क्षण चुप्पी रही। कुछ क्षणों के बाद मन्द स्वर में हेमचन्द्र ने पूछा, 'इधर की क्या स्थिति है ?"

'मुवारिज खां मुहम्मद आदिल खां के नाम से सिंहासन पर बैठ गए हैं। फौज की मदद से हुकूमत काबू में लग रही है।'
'और कुछ...!'
'कैदी रिहा हुए हैं। सरवर अली भी रिहा होकर अपने घर आ गया है।
'ध्यान रखना है, जो आवश्यक संवाद-सूचना हो।'
'ठीक है।...अब आप नाव से निकल जायें।'
दोनों नाव से पार हुए, पहरा चौकस था। किले की तरफ दोनों बढ़े। रास्ते में सिपहसालार शादी खां का मकान था। हेमचन्द्र ने मिल लेना अच्छा समझा। दोनों दरवाजे पर पहुंच गए, खबर मिलने और पहचान होने पर दरवाजा खुला। सिपहसालार शादी खां लेटे हुए थे। हेमचन्द्र को अपने पास बैठाया, मुंशी जी भी साथ बैठे। हेमचन्द्र ने देखा कि सूरी सल्तनत का प्रधान सेनापति उदास पड़ा हुआ है, उसे अचरज हुआ।

'हेमचन्द्र ! बुढ़ापा आ चुका है, बीमार रहता हूं। इस हालत में क्या-क्या करूं ! सरमस्त खां, हाजी खां, सईदी खां और दौलत खां मिलकर संभाल रहे हैं।'

'लेकिन आपके बगैर यह सल्तनत कैसे चलेगी? यह ताजपोशी तो फौज के जोर से...।

'सिर्फ अफगान सल्तनत के नाम पर साथ दे रहा हूं, हेमचन्द्र ! दिल में ख्वाहिश नहीं रह गई है। नये बादशाह को पता भी नहीं है कि जन्नतनशीन फीरोजशाह की अम्मी हुजूर जुबेदा खातून किले से निकल गई हैं। इधर तो बड़े दरबारों की तैयारी चल रही है। नाच-गाने का इन्तजाम हो रहा है। कौन समझाए ? तुम्हारी खोज हो रही है। देखो, कोशिश करो।
'आप मुझे रास्ता दिखाएं तो मैं कुछ करूं, नहीं तो मुगलों को मौका मिल जाएगा।
'पहले बादशाह को रास्ता दिखाना है। तुमने सलीमशाह को दिखाया था।'
‘मैं क्या हूं ! मैं एक मामूली हिन्दू व्यापारी हूं !'
'नहीं, हेमचन्द्र ! तुम दानिशमंद हो। शहर तुम्हारे साथ है। तुम्हारे दिलो-दिमाग पर मुझे ऐतबार है। जाओ, मिल आओ।'
हेमचन्द्र मुशी जी के साथ शाहीमहल के दरवाजे पर आ गया। जगह-जगह उसकी जांच होती रही। वह कुछ देर तक दरवाजे पर खड़ा रहा। बादशाह आदिलशाह ख्वाबगाह में आराम फरमा रहे थे। कुछ देर में वे दीवानखाने में आयेंगे। तभी भेंट हो सकेगी, वह रुका रहा।
नफीरी बजने लगी। बादशाह दीवानखाने में आ रहे थे। हेमचन्द्र सतर्क हो गया। उसे इजाजत मिली। दीवानखाने में पहुंचा, बादशाह तख्त पर नगीन थे। उसने तीन बार कोर्निश की, मुंशी जी ने भी साथ-साथ कोर्निश की।
'कहां थे, हेमचन्द्र ? इतनी देर से आये ! क्या चाहते हो ? मुझे हुक्म बरदार चाहिए।'
'मैं शादी के बाद अपने गांव गया था, जहांपनाह ! इसीलिए थोड़ी देर हो गई। माफी चाहता हूं...मैंने सूरी सल्तनत की खिदमत की प्रतिज्ञा की है, कोई कोर-कसर न होगी।'
'मैं हुक्म उदूली या गद्दारी बर्दाश्त नहीं करूंगा।'
‘एक हिन्दू व्यापारी गद्दारी क्यों करेगा ? हम अफगान सल्तनत के साथ हैं। यह नजराना कबूल करें।'- यह कहकर मुंशी जी से हेमचन्द्र ने ग्यारह अशफियां और हीरे की अंगूठी लेकर भेंट की, बादशाह ने कबूल किया। हेमचन्द्र को अंदाज मिल गया कि नये बादशाह अंगूरी जाम से शौक रखते हैं।
बादशाह के इशारे पर दोनों बैठ गए। बादशाह ने कहा—'हेमचन्द्र ! आम दरबार की चर्चा चल रही है। सल्तनत के सारे सरदार और जागीरदार आयेंगे...तुम्हें रहना है।'

'सारे अफगान सरदारों को मिलाकर रखना जरूरी है, हुजूर ! सुना है कि बेगमसाहिबा किले से बाहर चली गई हैं। वे कुछ सरदारों को फोड़ सकती हैं।'
'यह जानकारी तो अभी मिली है।' आदिलशाह के चेहरे में परेशानी थी।
'अगर अफगान सरदार उनसे मिलकर बगावत कर दें तो मुगल सरहद पर उछलने लगेंगे।'
तो फिर क्या होगा?–बेचैन स्वर में बादशाह ने पूछा !
'शाही महल और किले पर पूरी चौकसी रहे। राजधानी में हर कदम पर सिपाही हों....जासूस हों। सरदारों को खुश रखना है, और फौज के जोर पर ही हुकूमत चलती है। इसलिए सिपहसालार शादी खां से भी राय-सलाह होती रहे।'
'शादी खां तो बीमार चल रहे हैं।'
'उनकी सलाह और मदद निहायत जरूरी है। फौज में नयी भर्ती हुई है, हिन्दू भी पहली बार शामिल हुए हैं। उन्हें वक्त पर तलब मिले, उनकी कद्र हो। प्रजा पर ख्याल रखें तो प्रजा भी साथ देगी।'


'इसी राय-मशविरे के लिए तुझे खोज रहा था। हरखलाल से यह उम्मीद नहीं की जा सकती। शादी खां को खबर देता हूं। तुम सारे शहर का ख्याल रखो, हिन्दू रिआया साथ दे। नगर सेठ से यही उम्मीद रखता हूं। क्योंकि सारे अफगान साथ नहीं दे सकेंगे।'

'आप कोशिश करें, हाकिम प्रजा पर जुल्म न होने दें। बस, सब ठीक-ठाक...।'
हेमचन्द्र को लगा कि दीवार के पास से पायल और घंघरुओं की आवाजें आ रही हैं। ये रंगीन मिजाजी हैं। पर इन्हें तो हर लमहा सावधान रहना है। देखा कि बादशाह तख्त से उठ चले हैं।

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