ऐतिहासिक >> हेमचन्द्र विक्रमादित्य हेमचन्द्र विक्रमादित्यशत्रुघ्न प्रसाद
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हेमचन्द्र नामक एक व्यापारी युवक की कथा जिसने अकबर की सेना से लड़ने का साहस किया!
उन्तालीस
फीरोजशाह की ताजपोशी के तीन दिन बीत रहे थे। वजीर और फौजी सालार हकमत को सम्भालने की कोशिश कर रहे थे। सूबे सरकार और परगनों के हाकिमों के पास आम दरबार की खबर जा चुकी थी। सिपाहियों की गश्ती दिन-रात चल रही थी। दारुल सल्तनत (राजधानी) और आसपास की फौजी छावनियों में नये सिपाहियों की कवायद शुरू हो गयी थी। लग रहा था कि आगरा के किले से लेकर दूर-दूर तक की छावनियों तक बादशाह फीरोजशाह के लिए वफादारी का माहौल बन चुका था। कहीं कोई साजिश नहीं है, कहीं बगावत की बू नहीं है। जासूस ढाका से लेकर अटक तक के लिए निकल पड़े थे।
चौथे दिन सुबह शकील बुनकर जमाल से मिलने आ रहा था। रास्ते में सरजू मिल गया, दोनों सिकन्दराबाद के चौराहे के पास पहुंचे। लोग गुपचुप बात करते मिले, अचानक नंगी तलवार लिये फौजी अरबी घोड़ों पर सवार सरपट दौड़ लगाने लगे। चौराहा सूना हो गया। शकील और सरजू छिपते-छिपते जमाल के दरवाजे पर पहुंचे। दरवाजा बन्द था, वे आवाज देने लगे। भीतर जमाल मुंशी हरसुखलाल से बातचीत कर रहा था। दोनों चौंक गए, सहमकर दरवाजे को खोला गया। शकील और सरजू दिखायी पड़े, दोनों को देखकर घबराहट मिटी। दोनों भीतर आये, दरवाजे को बन्द कर दिया गया।
रात के तीसरे पहर फीरोजशाह का कत्ल हो गया। चचेरे भाई का मामा मुबारिग खां ने फौजी सालार सरमस्त खां की मदद से तख्तोताज पर कब्जा कर लिया। मुंशी काका की इस खबर से सभी परेशान-से हो गए। पर मुंशी जी की परेशानी दूसरी थी। मुंशी जी ने कहा-'सेठ जी अस्वस्थ हैं। भीतर से बेचैन हैं, 'मोहन ! तुम्हें चलना चाहिए। मां ने बुलाया है।'
'हेमचन्द्र अभी तक लौट कर नहीं आया ?'
'कहां लौटा है ! अब लौटना चाहिए, पर तुम क्या सोच रहे हो ?
यह सोचने का समय नहीं है, मोहन !'
'नहीं, चाचाजी ! इस समय क्या सोचना ! अवश्य चलूंगा।'
शकील अपने बुने हुए कपड़ों के बारे में बातचीत करने आया था। यहां तो मौत और बीमारी की बातें हो रही थीं। उधर हुकमत बदल गयी, नंगी तलवारें कौंध रही हैं। सरदार-जागीरदार और हाकिमहुक्काम रिआया की गरदन झुकाकर रखना चाहते हैं। और खुद गीध की तरह तख्तोताज पर झपटते रहते हैं। न इन्हें इंसान के खून का ख्याल है और न मेहनतकशों का, जीना मुश्किल है। पता नहीं, इस सूरी खानदान की हुकूमत में अब क्या-क्या होगा? शेरशाह और सलीम शाह तो चले गए, अब ये....!
मुंशी हरसुखलाल ने जमाल को किशनपुरा चलने के लिए तैयार कर लिया। जमाल ने सरजू को घर पर ही रहने को कहा। उसने सर हिलाकर कबूल किया ! शकील को एक हफ्ते के बाद कपड़ों को भेज देने को कह दिया। शकील खुश हो गया, लेकिन वह और भी कुछ रायमशविरा करना चाहता था। हिन्दी मुसलमानों की हालत पर बातें करना चाह रहा था। अरबों, ईरानियों और अफगानों के सामने हिन्दी मुसलमान छोटे समझे जा रहे हैं। वे हुकूमत करने वाले हैं, और हिन्दी मुसलमान सिर्फ रिआया हैं। इतना जरूर है कि हिन्दुओं का जजिया और जुल्म को बर्दाश्त नहीं करना है। मस्जिद में साथ-साथ बैठना तो है ही। लेकिन बुनकरों की हालत में कोई बदल नहीं आ सकी है। पहले छोटी जाति के थे, आज भी लगभग छोटे ही हैं। हालत बेहतर नहीं हो सकी है, कुछ तो कहने लगे हैं कि धरम बदलना बेकार गया। लेकिन अभी जमाल साहब से क्या बातें हों ? रोकना ठीक नहीं है। धरम बदलने से वालिद तो नहीं बदल जायेंगे, जाना ही चाहिए, बूढ़े सेठ बीमार हैं, अकेले हैं।
जमाल ने मुंशी काका के साथ किशनपुरा के लिए निकलना चाहा। दरवाजे को खोला, सड़क से फौज की एक टुकड़ी जा रही थी। कुछ लोग गिरफ्तार हो चुके थे। वह ठिठक गया, मुंशी जी ने दरवाजे को बन्द कर दिया। फौज की टुकड़ी आगे निकल गयी।
दोनों घर से निकले। गली में घुस गए, गलियों से होते हुए लक्ष्मी भवन के पिछवाड़े पहुंचे। हुलास ने द्वार को खोला, मुंशी जी के साथ छोटे सेठ को देखा। झुक कर प्रणाम किया, दोनों सेठ जी के कक्ष में आये। वैद्य जी उपस्थित थे, दुर्गा कुंवर वैद्यजी की बातों को समझना चाहती थी। साथ ही मोहन की प्रतीक्षा भी कर रही थी, पर वे दोनों तो वाटिका से होकर आए। जमाल ने पैर छकर प्रणाम किया।
वैद्य जी कह रहे थे— 'थोड़ी दुर्बलता है। पर सेठ जी सोचते अधिक हैं। इसीलिए इतनी विकलता है। चिन्ता की कोई बात नहीं है।'
दुर्गा कुंवर को थोड़ी शान्ति मिली। जमाल ओषधि और अनुपान को समझ रहा था। मुशी वैद्य जी का संकेत समझ कर मधु की व्यवस्था कर रहे थे।
उसी समय द्वार पर कड़क आवाज सुनायी पड़ी। मुंशीजी ने द्वार को खोला। सिपाही के साथ शाही हरकारा था, सरकारी फरमान लेकर आया था। फरमान देता हुआ बोला-'तीसरे पहर दरबार होने वाला है। हेम चन्द्र को हाजिर होना है, गैरहाजिर होने पर सख्त कार्रवाई होगी।'
'लेकिन वे तो शादी के बाद अपने गांव गए हैं। यहां नहीं हैं।' मुंशीजी ने बताया।
'जल्द बुलाइये, हाजिर होना है। नगर सेठ हैं, काफिरों के नुमाइन्दे हैं। मजाक नहीं है।'
'आते ही वे जरूर हाजिर होंगे। गांव दूर है, दूर से आना है। आप थोड़ा ख्याल रखेंगे।' मुंशी जी ने हाथ जोड़कर समझाया।
शाही हरकारा सिपाही के साथ चला गया। मुंशी हरसुखलाल, वैद्यजी और जमाल-तीनों के चेहरे पर चिन्ता फैल गयी। सोहनलाल को भी जानकारी मिल गयी, बेचैनी बढ़ गयी।
पड़ोस में हरखलाल ने सोचा कि ठीक समय आ गया है। हेम् रेवाड़ी गया है। अभी क्या लौटेगा ? वह दरबार में हाजिर नहीं हो सकेगा। उसके खिलाफ कान भरा जा सकेगा, किले में आना-जाना है ही। नजराना देने का मौका मिल जाएगा। नये बादशाह को नजराना देना है। नये बादशाह खुश हो जायेंगे, और तब ससुर-जमाई को देख लिया जाएगा। पंख अपने आप उखड़ जायेंगे, आसमान के बदले जमीन दिखायी पड़ने लगेगी। सोहनलाल खाट पर है, वैद्य जी दौड़ने लगे हैं। एक दरबारी झटके की जरूरत है। पासा पलट जाएगा, अपना भी भाग्य चमकेगा। ऐसा सोचकर हरखलाल ने नजराना देने के लिए सोने के सिक्कों को गिनना आरम्भ किया, स्वर्णाभूषण की भी इच्छा हो गयी।
हरखलाल ने अनुभव किया कि समय रुक-रुककर चल रहा है। तीसरे पहर के आने में विलम्ब है। सूरज का रथ रुक गया है, कभी ओसारा और कभी छत पर चक्कर लगाते और कुछ सोचते दोपहर बीतने लगी। हरखलाल ने दरबार के लिए रेशमी कपड़ों को निकाला। पहन कर पगड़ी संभाल ली। हाथ में छड़ी ली, नौकर के हाथों में नजराने की सन्दूकची थी। कुलदेवता की मनौती की, पत्नी ने दही खिलाकर विदा किया। श्री विलास का द्वार खुला, हर्ष और अभिमान के मिलेजुले भाव आंखों के साथ पैरों की गति में भी झलकने लगे। द्वार से बाहर आए। दृष्टि पड़ोस के लक्ष्मीभवन पर पड़ी। मन ने कहा-'यह कब तक चिढ़ाता रहेगा !' और स्वयं ही उत्तर दिया-'बस, कुछ घंटे और !'
हरखलाल के पैर बढ़ चले। गश्ती के कारण सारे शहर में आतंक था। सन्नाटा-सा छाया हुआ था, कुछ लोग आ-जा रहे थे। कुछ लोग किले के दरवाजे पर पहुंचने के लिए नदी तट की ओर बढ़ रहे थे।
हरखलाल का मन खीझ उठा क्योंकि लोगों की दृष्टि उन पर नहीं जा रही थी। लगभग सभी तो अपने-अपने घरों में बन्द थे, कुछ लोग खिड़कियों से झांक लेते थे। मुंशी हरसुखलाल ने दूर से देख लिया था। तब तक हरखलाल के कदम बढ़ चुके थे।
मुंशी हरसुख ने चर्चा की—'मोहन ! ये शाह जी रेशमी कपड़ों में सज-धज कर जा रहे हैं। लगता है कि ये भी दरबार में जा रहे हैं।'
'हो सकता है, चाचा ! किले से व्यापार जो चलता है।'
'व्यापार तो हमारा भी है। परन्तु इस तरह सज-धज कर नौकर-
चाकर के साथ...दाल में कुछ काला...।'
'कहीं सोचा हो कि हेमचन्द्र नहीं है। दरबारियों से मिलकर नजराना दे दें, और कोशिश कर सकते हैं खुद नगर सेठ बनने का तिड़कम भी..।'
'तुम्हारा सोचना ठीक रहा है, मोहन ! शाह जी का हृदय ईर्ष्याद्वेष से जलता रहा है।' सोहनलाल बोल पड़े।
'आप शान्ति से विश्राम करें। यह सब मत सोचें।'
'अब यहां शान्ति नहीं है, मोहन ! तुझसे रुष्ट रहा हूं। तू ने सब नष्ट कर दिया। पाया कुछ भी नहीं। अब यहां शान्ति नहीं, बेटी का ब्याह हो गया। बस इतना ही संतोष है।'
'आप मोहन को क्षमा कर दें। मन को शान्ति मिलेगी।' मशी ने अनुरोध के स्वर में कहा।
'जमाल बन जाने के लिए...? कन्धे पर कपड़े उठाकर हाट-हाट घूमने के लिए क्षमा कर दूं ? पर अब क्या रोष करूं ? क्षमा करके ही जाऊंगा।'
'ऐसा न कहें, पिताजी !'
'किसी के कहने से प्राण पंछी रुक नहीं जाता। पिंजरे में बड़ा कष्ट पाता है। इसलिए अपने असली घोंसले की ओर इसे उड़ जाना ही है।'
इस प्रकार संध्या हो गयी। घर में दीपक जलने लगे। मशी जी ने जमाल को अपने घर जाने के लिए संकेत दिया। कल फिर आ जाना। जमाल निर्णय नहीं कर पा रहा था कि वह रहे या जाये। पिताजी के पास रहना चाहिए। उधर नूरी अकेली है, मां दुर्गा कुंवर ने भी आधे मन से जाने की आज्ञा दी। वह उठकर खड़ा हुआ, पिता सोहनलाल ने आंखें बन्द कर लीं। वह पैर छूकर द्वार से बाहर निकला। पैरों में गति नहीं थी, धीरे-धीरे सिकन्दराबाद के चौराहे पर पहुंचा। हरख लाल को लौटते देखा। पर वह रुका नहीं।
एक घड़ी रात जाते ही हेमचन्द्र योगी शिवनाथ और धर्मपाल के साथ लौट आया ! सोना पार्वती को लिये द्वार पर आयी। किशनपुरा के लोग गश्ती के आतंक को भूल गये। हेमचन्द्र के अभिनन्दन के लिए उमड आये। हेमचन्द्र ने हाथ जोड़कर सबके अभिनन्दन को स्वीकार किया। लक्ष्मीभवन में प्रसन्नता छा गयी। पर हेमचन्द्र गम्भीर था, रास्ते में राजधानी की उथल-पुथल की जानकारी मिल गयी थी। यह परिवर्तन कल्पना से बाहर था।
घर में प्रवेश करते सोहनलाल की रोगशय्या दिखायी पड़ी। उसकी चिन्ता बढ़ गयी। वह चरण स्पर्श कर बैठ गया, सोहनलाल ने अधखुली आंखों से आशीष दी। मुंशीजी की ओर संकेत किया। मशी जी ने शाही फरमान को थमा दिया। हेमचन्द्र ने देख लिया। चिन्ता बढ़ती गयी, और फिर शाह हरखलाल के दरबार में जाने की बात भी सामने आयी। थका-मांदा हेमचन्द्र सर पर हाथ धर कर बैठ गया। वह क्या करे क्या नहीं करे, निर्णय बड़ा कठिन था ! काल-चक्र की गति को मोड़ना बहुत कठिन था। पर उसका संकल्प....इस क्षण में क्या करना है ?
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