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वह साल 2015 था। बिहार विधानसभा चुनाव का माहौल था। अगर आप उस वक्त बिहार में
रहे हों तो आपको भी याद होगा वह - 'बिहार में बहार है, नीतीशे कुमार है' -
वाला गाना । जहाँ जाइए, वहाँ यही गाना बजता था । और इतना अधिक बजता था कि
अच्छे-खासे लोग यह पूछने में भी घबरा जाते थे, कहाँ है बहार, दिखाओ तो जरा !
पटना में चारों तरफ 'बहार' वाले बड़े-बड़े पोस्टर लगे थे। घर से ऑफिस और ऑफिस
से घर लौटते वक्त वे पोस्टर चिल्ला-चिल्लाकर कहते, याद रखना, बिहार में बहार
है। इसमें कोई शक और शुब्हे की बात नहीं। तो मैंने सोचा कि क्या यह पोस्टर सच
ही कहता है, क्या सचमुच बिहार में बहार आ गई है? क्या एक रिपोर्टर को इस बात
की पड़ताल नहीं कर लेनी चाहिए कि बिहार में बहार आई भी है या नहीं। फिर मैं
निकल पड़ा, बिहार घूमने । उस घुमक्कड़ी में कई शहरों और गाँवों में जाना हुआ।
गया, मुजफ्फरपुर, दरभंगा, सहरसा, सुपौल, पूर्णिया, जमुई, मुंगेर, आरा,
जहानाबाद और दूसरे भी कई इलाकों में जाकर असली वाले बहार की तस्दीक की।
उसी यात्रा के सिलसिले में मैं सहरसा भी गया, यह देखने कि कोसी अंचल के इस
बड़े शहर में सुशासन सरकार का विकास कितना और किस स्पीड से पहुँचा है। उस रोज
मैं सहरसा जंक्शन पर खड़ा था, सामने एक धूसर लाल रंग की ट्रेन लगी थी।
वही लाल वाली बोगी, जो मौजूदा नीली वाली से पहले इंडियन रेलवे का ट्रेडमार्क
कलर हुआ करती थी । सम्भवतः बीसेक साल पहले उस लाल बोगी का जमाना हुआ करता था
। मुमकिन है आप लोगों ने भी देखी होगी, मगर वह इतनी पुरानी बात है कि उसका
डिजाइन भी आपको याद नहीं होगा। तो साल 2015 में लाल बोगी वाली ट्रेन को देखकर
मैं कुछ इस तरह अचकचाया कि बगल में काले रंग का बैग लेकर खड़े एक डेली
पैसेंजर से पूछ ही बैठा, “भायजी, इ ललका बोगी अभी तक जिन्दा है । इसको
म्यूजियम नहीं भेजा गया है। "
" सुपौल चल रहे हैं न इस ट्रेन से, रस्ता में पता चलेगा कि अभी इस इलाके में
ढेर ऐसा चीज जिन्दा है, जिसको म्यूजियम चले जाना चाहिए। मगर म्यूजियम कैसे
जाएगा, नबका आएगा तब न पुरनका म्यूजियम जाएगा। "
मुझे भी उस ट्रेन से सुपौल जाना था। कोई काम नहीं था, बस इस यात्रा को
देखने-समझने और यात्रियों से बतियाने । ट्रेन में यात्रा करना इलेक्शन
रिपोर्टिंग का सुपर हिट फॉर्मूला माना जाता है । किसिम-किसिम के लोग मिलते
हैं और अलग-अलग शैली में पॉलिटिकल कमेंट पास करते हैं । इसी चकल्लसबाजी में
आपको कोई आपकी रिपोर्ट की हेडिंग दे देता है।
यह ट्रेन पड़ोस के जिला मुख्यालय सुपौल से होते हुए उसी जिले के राघोपुर
स्टेशन तक जाने वाली थी। बताया गया था कि सहरसा से राघोपुर तक की 63 किमी. की
दूरी के सफर में इस ट्रेन को 4 घंटे से भी ज्यादा टाइम लगता है। यानी एवरेज
स्पीड 16 किमी. प्रति घंटा। आप चाहें तो इसे बैलगाड़ी की स्पीड भी कह सकते
हैं, यह खतरा उठाते हुए कि बुलेट ट्रेन की तैयारी कर रहा देश का रेल मंत्रालय
कहीं नाराज न हो जाए।
हालाँकि मैंने गूगल कर लिया था, यह भारत की सबसे धीमी गति की ट्रेन नहीं थी।
आधिकारिक रूप से यह रुतबा नीलगिरी की पहाड़ियों में चलने वाली एक ट्रेन के
नाम है, जो औसतन 10 किमी. प्रति घंटे की रफ्तार से चलती है। बताया जाता है कि
कुछ भौगोलिक वजहों से यह ट्रेन इतनी मंथर गति से चलती है। हालाँकि दार्जिलिंग
और शिमला जैसे पहाड़ी इलाकों में चलने वाली टॉय ट्रेनें भी औसतन 25-30 किमी.
प्रति घंटे की रफ्तार से चलती हैं। फिर कोसी के समतल मैदान में यह ट्रेन इतनी
स्लो क्यों है? यह सवाल अब इस इलाके में कोई नहीं पूछता ।
मगर मैं पूछने चला गया। उस वक्त के सहरसा जंक्शन के ऑन ड्यूटी स्टेशन मास्टर
पीसी चौधरी से चौधरी जी ने समझाया, “पत्रकार महोदय, आपका सवाल तो जायज है।
मगर पहले इस रूट की पटरी का जायजा ले लीजिए, यह कितनी पुरानी है और यह भी चेक
कीजिएगा कि पटरियों के बीच एक्को ठो बोल्डर है भी कि नहीं। हम तो चाहते हैं
इस ट्रेन को शताब्दी के स्पीड से दौड़ाएँ, बुलेट ट्रेन बना दें। लेकिन कहीं
पटरी टूट गया, टरेनमा पलट गया और सौ पचास आदमी मर मरा गया तो कौन जवाब देगा ।
कहिए? "
अब आप पूछिएगा कि पटरी ऐसा क्यों है, बोल्डर क्यों नहीं है? है ना, आपका तो
पूछना काम है। तो इसका जवाब डीआरएम और जीएम देंगे, हम तो अदना से कर्मचारी
हैं, जो सिचुएशन मिलता है उसी में ठीक से काम करते हैं। हैं कि नै? क्या कहते
हैं।
जब अदना से कर्मचारी और अदना से पत्रकार के बीच बातचीत होती है, तो कई
मुद्दों पर चुप हो जाना पड़ता है। अगर डीआरएम और जीएम से पूछने मुख्यालय चले
गए तो न्यूज रिपोर्ट तीन दिन लेट हो जाएगी और खबर का बजट चार गुना बढ़ जाएगा।
ऐसे में "हाँ, आप ठीक कह रहे हैं, " कहना पड़ता है। मैंने भी यही किया ।
चौधरी जी ने जब देखा कि उन्होंने सामने खड़े पत्रकार को शंट कर दिया है, तो
वे खुद शुरू हो गए। कहने लगे, "यह जान लीजिए, इस ट्रेन का मैक्सिमम स्पीड ही
30 किमी. प्रति घंटा तय किया गया है। हम उससे बेसी (अधिक) हाँकने की इजाजत भी
नहीं दे सकते हैं। पहले यह ट्रेन अररिया जिले के फारबिसगंज तक जाती थी। मगर
सात साल से यह ट्रेन राघोपुर तक ही जा रही है। बड़ी लाइन के निर्माण के कारण
मेगा ब्लॉक है। "
"सात साल से मेगा ब्लॉक हैं?"
" जी हाँ ।"
'बताइए तो । "
"क्या कीजिएगा, बैकवर्ड इलाका है न... "
ट्रेन में ठीक-ठाक भीड़ थी। गरीब ही नहीं सम्पन्न तबके के यात्री भी सवार
मिले। लोग कहने लगे, “भले यह ट्रेन आपको जर्जर और झेलाऊ लगती हो, लेकिन आज भी
सहरसा से सुपौल जाने के लिए इस ट्रेन से बेहतर कोई दूसरा जरिया नहीं है। बस
से जाइएगा तो ध्वस्त सड़क पर डेढ़ घंटे का तकलीफदेह सफर और किराया 40 रुपए
लगेगा। यहाँ दो घंटे भले लग जाएँ, मगर शरीर को थकावट कम होती है और किराया
सिर्फ 10 रुपए लगता है।" दफ्तर और कचहरी जाने वालों की यह पहली पसन्द है ।
ऐसे लोग अच्छी-खासी तादाद में ट्रेन पर सवार मिले। यह ट्रेन 8.15 बजे सहरसा
से खुलती थी और 10 से 10.15 के बीच सुपौल पहुँचा देती थी। फिर वहाँ से
राघोपुर जाने में बारह बजते थे ।
ट्रेन के खुलते ही समझ में आ गया कि इसकी अधिकतम गति सीमा 30 किमी. ही क्यों
रखी गई है। चलते वक्त यह ट्रेन इतनी हिल रही थी कि जैसे कोई झूला झुला रहा
हो। बरुआरी जा रहे एक सज्जन कामेश्वर मिश्र ने कहा, “टरेनमा चल रहा है, ई भी
ऊपरवाले का एहसान समझिए । ट्रैक का जो हाल है, रेलवे इसको कहिया बन्द करा
देगा, कहना मुश्किल हैं। एक बार नसा में टाइट (नशे में धुत्त ) ड्राइवर स्पीड
बढ़ा दिया । बूझे, राघोपुर से आगे एक जगह पटरी टर्न लेता है। ऊहाँ टरेनमा पलट
गया। उसी रोज से इसका राघोपुर से आगे जाना बन्द हो गया । "
" लेकिन आप कह रहे हैं, ई बात को सात साल हो गया। सात साल में पटरी नहीं बन
पाया?" मेरे अन्दर का पत्रकार जाग गया था ।
" का कीजिएगा। कोसकन्हा का इलाका है न । यहाँ रेलवे के काम में हमेशा फंड का
कमी रहता है। ब्रॉड गेज का काम आज से थोड़े हो रहा है! 2002-03 से चल रहा है।
कुछ रोज चलता है, फिर बन्द हो जाता। पूछते हैं तो बताता है, फंड खतम हो गया।
आएगा तो फिर काम बढ़ेगा। 2008 में जो बाढ़ आया था - महापरलय, उसमें सहरसा-
पूर्णिया रेल लाइन डिस्टर्ब हो गया। तब से लेकर आज तक डिस्टर्बे है। रेलवे
डिपार्टमेंट पटरी नहीं जोड़ पा रहा है।
"ई तो छोड़िए । निर्मली होकर सहरसा से दरभंगा - मधुबनी जाने वाला रेल लाइन
1934 से डिस्टर्ब है । उसी टाइम भूकम्प में टूटा था । अस्सी - एकासी साल हो
गया न । आज तक रेलवे को फुरसत नहीं मिला इसको ठीक कराने का । रूट पर जितना
स्टेशन था, सब ढह दुह गया । वहाँ असामाजिक तत्त्व जुआ खेलने, दारू पीने और
चिलम चढ़ाने के लिए जमा होता है। आसपास का लोग सब पूरे रूट का पटरी उखाड़कर
बेच लिया। कोई माय-बाप नहीं था, देखने वाला । "
इस बहस को सुनकर सुपौल जा रहे अरुण कुमार सिंह की अन्तरात्मा जाग उठी, बोले,
"दोष पब्लिक का भी कम है? इस रूट में किराया इतना कम है, लेकिन बहुत आदमी
बिदाउट टिकट चलता है। बताइए, दस टका का टिकट कटा लेने से क्या घट जाएगा लेकिन
नहीं कटाएगा। अब रेलवे को रेवेन्यू नहीं होगा तो फेसलीटी कैसे बढ़ाएगा?"
लेकिन एक अन्य यात्री संजय सिंह ने उनको अपना विचार स्टैब्लिश करने नहीं
दिया, "क्या बात करते हैं आप भी, कै ठो आदमी बिदाउट टिकट चलता है जी? रुपया
में पाँच पैसा भी नहीं । रेवेन्यू का कमी थोड़े है। इसी सहरसा स्टेशन से
जनसेवा और पुरबिया एक्सप्रेस पर बैठकर हाँज का हाँज लेबर दिल्ली, हरियाणा,
पंजाब जाता है। जनसेवा में तो इतना भीड़ होता है कि लोग सिमरी बख्तियारपुर से
ही सीट लूट के आते हैं। सहरसा में तो घुसने का जगह नहीं मिलता । रेवेन्यू तो
इतना है कि रेलवे माल पीट रहा है। असल बात ई है कि कोसी का इलाका रेलवे के
प्रायोरटी में नहीं है। हम लोग उपेच्छा के शिकार हैं। चाहे राज्य सरकार हो कि
चाहे सेंट्रल गोभमेंट । विकास के टाइम में सब कोसी को भूल जाता है। सरकार के
लिए कोसी का मतलब बाढ़ है। सस्ता मजदूर है। और किसी चीज से सरकार को मतलब
नहीं है। "
तीन साल बाद संजय जी की बात के सच होने का प्रमाण मिल गया। जून, 2018 में
सहरसा रेलवे स्टेशन से पाँच दिनों के अन्दर दो करोड़ रुपए का टिकट बिका था।*
2017 की बाढ़ के बाद भी इसी सहरसा स्टेशन पर मजदूरों की ऐसी भीड़ उमड़ी कि
लोग टिकट कटा कर पाँच-पाँच दिन बैठे रह जाते थे, उन्हें ट्रेन में घुसने का
मौका नहीं मिलता था । आजिज आकर एक दिन मजदूरों ने हंगामा कर दिया और स्टेशन
मास्टर से कहा कि उनके लिए स्पेशल ट्रेन चलाई जाए। लेकिन यह कथा आगे....
हमारी बातचीत चल ही रही थी कि ट्रेन अचानक रुक गई।
" कौन सा स्टेशन है? "
मेरे इस सवाल पर एक सज्जन ने तिरछी मुस्कान के साथ कहा, " रुकतापुर। " "
मने...? " ?"
"मने क्या, जिसका मन हुआ चेन खींचकर रोक लिया और उत्तर गया। इस स्टेशन का नाम
और क्या कहें, रुकतापुर ही न हुआ।"
दूसरे सज्जन ने उनकी बात को साफ करते हुए कहा, " समस्तीपुर जंक्शन के रूट में
ठीक पहले एक मुक्तापुर स्टेशन है । समस्तीपुर जाने वाली ज्यादातर ट्रेनों को
यात्री मुक्तापुर स्टेशन पर रोक लेते हैं। इसलिए लोग मुक्तापुर को रुकतापुर
कहने लगे हैं। तब से जहाँ-जहाँ ट्रेन बेवजह रुक जाती है, उसको लोग रुकतापुर
कहने लगे। यह भी वैसा ही रुकतापुर जंक्शन है। "
एक हाजिरजवाब सज्जन बोल पड़े, “पूरा कोसी इलाका ही रुकतापुर है। यहाँ पहले तो
बहुत मुश्किल से कोई अच्छा काम शुरू होता है, हजार हुज्जत, हो-हंगामा के बाद
। उसको भी कोई ठीक से चलने नहीं देता, मिनट मिनट में चेन खींचने वालों की कमी
नहीं है।"
उन सज्जन की बात देर तक मन में घुमड़ती रही। ठीक कह रहे थे । सच तो यह है कि
कोसी का इलाका ही नहीं पूरा बिहार रुकतापुर है।
* 18 जून, 2018 को दैनिक हिन्दुस्तान के सहरसा संस्करण में यह खबर प्रकाशित
हुई थी।
यहाँ अखबार पढ़िए तो लगेगा इतना विकास हो गया है कि अमेरिका फेल हो गया है।
हर साल बजट से पहले हमारे वित्त मंत्री कहते हैं कि डबल डिजिट में विकास हो
रहा है, देश में सबसे अधिक। लेकिन कब बिहार का विकास डिरेल हो जाए, उसका कोई
ठिकाना नहीं। पटना की पाटलीपुत्र कोलोनी में जाकर पीएनएम मॉल घूम आइए, नया
वाला म्यूजियम देख लीजिए, सभ्यता द्वार और ज्ञान भवन का चक्कर लगा आइए। इन
सबको देखकर लगेगा कि पेरिस पहुँच गए हैं। लेकिन कोसी कछार में घूमिएगा, गया
और मुजफ्फरपुर की मुसहर बस्तियों का चक्कर लगाइएगा, शिवहर सीतामढ़ी और बगहा
के गाँवों में जाइएगा तो बलराज साहनी की फिल्म 'दो बीघा जमीन' का जमाना याद आ
जाएगा।
इसके बाद भी सरकार बताती रहेगी कि विकास दर में हम लोगों ने महाराष्ट्र और
गुजरात को पीछे छोड़ दिया है। जबकि हर साल बाढ़ और चमकी बुखार की वजह से और
कुछ नहीं तो वज्रपात के कारण सौ-दो सौ लोग पटपटाकर मर जाएँगे और कोई कुछ नहीं
कर पाएगा। कभी खबर मिलेगी कि यहाँ के स्टूडेंट आईआईटी, मेडिकल और यूपीएससी
में झंडा फहरा रहे हैं, तो कभी पता चलेगा, टॉपर को अपने सब्जेक्ट का नाम लेना
तक नहीं आता। अब कितनी बात बताएँ, हम सब लोग ऐसी ही सुस्त रफ्तार ट्रेन के
यात्री हैं। विकास के नाम पर हम बार-बार तेज भागने की कोशिश करते हैं, मगर
हमारी पटरियाँ जर्जर हैं, इन जर्जर पटरियों के बीच में बोल्डर नहीं हैं और
कोई भी चेन पुल करके हम लोगों को रुकतापुर स्टेशन पर जबरन रोक देता है ।
पिछले दिनों रेलयात्री. कॉम ने एक सर्वे में बताया कि बिहार की ट्रेनें
लेटलतीफी का सबसे अधिक शिकार होती हैं। साल 2018 में इसकी वजह से रेलवे
मंत्रालय को भीषण शर्मिंदगी का सामना करना पड़ा, जब एनडीटीवी इंडिया ने यहाँ
के ट्रेनों की लेटलतीफी का ब्योरा देना शुरू कर दिया।
* मई-जून, 2018 में एनडीटीवी इंडिया के प्राइम टाइम में बिहार की लेटलतीफ
ट्रेनों पर लगातार कई खबरें प्रसारित हुई थीं।
पटना से पुणे जाने वाली ट्रेन 60-60 घंटे लेट चल रही थी । यही हाल इंदौर जाने
वाली ट्रेन का और दरभंगा से खुलने वाली स्वतंत्रता सेनानी एक्सप्रेस का था।
भागलपुर से दिल्ली जाने वाली गरीब रथ तो कभी 13 घंटे से कम लेट हुई ही नहीं,
जोगबनी से दिल्ली जाने वाली सीमांचल एक्सप्रेस भी इसी रोग का शिकार रही। आप
जानते हैं, इस लेटलतीफी की वजह क्या है?
सबसे प्रमुख वजह है, कानपुर-मुगलसराय रेल रूट की घनघोर व्यस्तता, जिससे
रोजाना पाँच सौ से अधिक रेलगाड़ियाँ गुजरती हैं। इस रूट पर पाँच मिनट में दो
ट्रेनें गुजरती हैं। एक ट्रेन का हिसाब इधर से उधर हुआ नहीं कि पूरा ट्रैफिक
अस्त-व्यस्त हो जाता है। बिहार से दिल्ली और मुंबई की तरफ जाने वाली ज्यादातर
ट्रेनें इसी रूट से गुजरती हैं। रेलवे ट्रैफिक कंट्रोल वाले इस भीड़-भाड़ को
कंट्रोल नहीं कर पाते। शिकायत यह भी है कि कानपुर में बिहार की ट्रेनों को
हमेशा शंट कर दिया जाता है। पहले यूपी की ट्रेनों को आगे बढ़ाया जाता है। मगर
हम सिर्फ कानपुर पर दोष मढ़कर बच नहीं सकते। कसूर हमारा भी है।
पिछले दिनों मुजफ्फरपुर के अखबार में एक खबर छपी कि वहाँ के स्टेशन के
कर्मचारी ट्रेनों को आउटर सिग्नल पर रोक देते हैं और हर प्लेटफार्म के वेंडर
से बारगेनिंग करते हैं। जिस प्लेटफार्म के वेंडर अधिक रिश्वत देने के लिए
तैयार हो जाते हैं, ट्रेन को उसी प्लेटफार्म पर भेज दिया जाता है। इस बीच
ट्रेन आउटर सिग्नल पर इन्तजार करती रहती है। आपको जानकर हैरत होगी कि रिश्वत
की यह राशि बहुत अधिक नहीं होती है। महज दो से पाँच सौ रुपए के लिए यह सारा
मिस मैनेजमेंट होता है। बाद में यह खबर भी छपी कि ऐसा कारनामा बिहार के कई
स्टेशनों पर होता है।
खैर, यह तो छोटा-मोटा मामला है। बिहार को लेकर रेलवे की बेरुखी की कहानी इतनी
छोटी नहीं है। इसकी बानगी हमने कोरोना और लॉकडाउन के टाइम में भी देखी। जब
बिहार के मजदूरों को लेकर दिल्ली, मुंबई और गुजरात से चली रेलगाड़ियाँ रास्ता
भटक जा रही थीं और पूरे भारत का भ्रमण करके बिहार पहुँच रही थीं। इस बीच इन
रेलगाड़ियों में 80 मजदूरों की मौत की खबर आई। रेलवे मंत्रालय ने इस गड़बड़ी
पर यह स्पष्टीकरण दिया कि चूँकि ये सामान्य ट्रेनें नहीं हैं, इसलिए इनमें इस
तरह की घटनाएँ हो सकती हैं। कहने का गरज यह कि ये ट्रेनें गरीब मजदूरों को घर
पहुँचाने के लिए चलाई जा रही हैं, इसमें लेटलतीफी, रूट बदलना यह सब चलता
रहेगा। यात्रीगण अपने रिस्क पर यात्रा करें। मतलब यह भी कि गरीब बिहारी
मजदूरों को ढंग की सेवा देना रेलवे की जिम्मेदारी नहीं है।
भले ही ललित नारायण मिश्र से लेकर लालू प्रसाद यादव तक बिहार के चार बड़े
नेता देश के रेलमंत्री बने, मगर ये तमाम बड़े लोग बिहार के लिए रेलवे का ढंग
का नेटवर्क तैयार नहीं करवा पाए। इसे ऐसे समझिए । अगर आपको दिल्ली या पंजाब
जाना हो तो बिहार के कई शहरों, जैसे कटिहार, पूर्णिया, सहरसा, दरभंगा,
समस्तीपुर, मुजफ्फरपुर, भागलपुर, मुंगेर, गया, आरा, छपरा, बेतिया आदि से आपको
सीधी ट्रेन मिल जाएगी। कई शहरों से मुंबई के लिए भी सीधी ट्रेनें हैं। मगर
इन्हीं शहरों से अगर आपको बिहार की राजधानी पटना जाना हो तो आपको एक भी ढंग
की ट्रेन नहीं मिलेगी। आपको बसों का सहारा लेना पड़ेगा। वजह क्या है?
दरअसल बिहार की तमाम ट्रेनें पलायन एक्सप्रेस हैं। यह ट्रेनों के नाम से ही
पता चल जाता है। जनसेवा एक्सप्रेस, श्रमजीवी एक्सप्रेस, जनसाधारण एक्सप्रेस ।
ये रेलगाड़ियाँ पंजाब, महाराष्ट्र, गुजरात और दिल्ली जैसे विकसित राज्यों को
सस्ते मजदूर सप्लाई करने के लिए चलाई जाती हैं। बिहार वालों की सुविधा के लिए
नहीं । इसी वजह से बिहार के किसी कोने से दिल्ली जाना आसान है, पटना जाना
मुश्किल । लेकिन क्या राजधानी पटना में रुकतापुर स्टेशन नहीं है? आइए, पटना
शहर के बीचोबीच से होकर गुजरने वाली एक अजीबोगरीब ट्रेन की कहानी जानते हैं।
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