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नई पुस्तकें >> रुकतापुर रुकतापुरपुष्यमित्र
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अगर आप राजधानी पटना के रहवासी हैं तो आपने 2018 तक हड़ताली मोड़ रेलवे
क्रॉसिंग से एक खाली पैसेंजर ट्रेन को गुजरते जरूर देखा होगा। दिन में चार
बार यह ट्रेन इस क्रॉसिंग से गुजरती थी, जिसकी वजह से चार दफा बेली रोड के
अति व्यस्त मार्ग पर परिचालन बन्द हो जाता था। यह ट्रेन न भी चलती तो
यात्रियों को कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि दिन भर के चारों फेरों में इससे
बमुश्किल 25-30 यात्री ही सफर करते थे। रोजाना महज तीन सौ रुपए की कमाई करने
के बावजूद यह ट्रेन पिछले 12 सालों से लगातार चल रही थी। इस ट्रेन के संचालन
की वजह से रेलवे को हर साल 72-73 लाख का नुकसान होता था । फिर भी इस ट्रेन का
परिचालन बन्द नहीं किया जाता था, क्योंकि रेलवे को डर था, अगर एक दिन भी
ट्रेन नहीं चली तो इसकी पटरियों पर भी लोग घर बनाकर रहने लगेंगे।
यह ट्रेन सुबह पटना घाट से दीघा घाट तक चलती और लौटकर आर ब्लॉक चौराहा तक
जाती। दोपहर के वक्त आर ब्लॉक चौराहा से दीघा घाट तक आती और फिर दीघा घाट से
चलकर पटना जंक्शन होते हुए पटना घाट तक जाती । तीन डिब्बों वाली इस ट्रेन के
दोनों तरफ इंजन लगे थे, क्योंकि इस ट्रेन के आखिरी स्टेशन पर ऐसी सुविधा नहीं
थी कि इंजन को पीछे से आगे लाया जा सके।
मैं इस ट्रेन को अक्सर देखता और देखकर हैरत में पड़ जाता कि आखिर यह चलती
क्यों है? एक दिन हड़ताली मोड़ के पास मैं इस ट्रेन में सवार हो गया। देखा कि
लगभग पूरी ट्रेन खाली है, सिवा एक किशोर के जो बेवजह चढ़ गया है, मजे लेने के
लिए। वैसे तो हड़ताली मोड़ पर इस ट्रेन का स्टॉपेज नहीं था, मगर वहाँ मुझे
सवार होने का मौका इसलिए मिल गया, क्योंकि जब ट्रेन वहाँ पहुँची तो बेली रोड
पर ट्रैफिक काफी तेज था और क्रॉसिंग मैन बैरियर गिरा नहीं पाया। ट्रेन हॉर्न
देकर रुक गई, क्रॉसिंग मैन ने भाग-भाग कर ट्रैफिक को रोका और दोनों तरफ रस्से
बाँधे (क्योंकि उस वक्त वहाँ का बैरियर खराब था)। फिर ट्रेन आगे बढ़ी। इस बीच
मौके का फायदा उठाकर मैं ट्रेन पर सवार हो गया। यह भी बता दूँ कि मैं विदाउट
टिकट था।
मेरा विदाउट टिकट होना भी एक मजबूरी थी, क्योंकि इस रेलवे रूट पर कहीं भी
टिकट नहीं बेचे जाते थे। ट्रेन हड़ताली मोड़ से आगे बढ़ी तो सौ मीटर बाद फिर
से रुक गई, क्योंकि आगे दो भैंसें पटरियों में बँधी थीं। ड्राइवर हॉर्न देने
लगे। दो लोग दौड़े-दौड़े आए और उन्होंने अपनी भैंसें खोलीं, ट्रेन फिर आगे
बढ़ी। लेकिन कुछ देर चलकर ट्रेन फिर रुक गई। इस बार न पटरियों में भैंसें
बँधी थीं और न ही कोई दूसरी बाधा थी । वजह क्या थी, समझ नहीं आया। मैं नीचे
उतर गया और इंजन के पास चला गया। ड्राइवर को अपना परिचय दिया तो उसने सौजन्य
दिखाते हुए इंजन का दरवाजा खोल दिया, मैं इंजन के अन्दर चला गया। वहाँ दो
ड्राइवर बैठे थे ।
ड्राइवर ने बताया कि यह पुनाईचक हॉल्ट है। मैंने नजर दौड़ाई तो कहीं स्टेशन
या हॉल्ट जैसी कोई चीज नहीं दिखी। पटरियों के आसपास झुग्गियाँ थीं, एक तरफ
नाला था और दूसरी तरफ एक खतरनाक ढलान के पार एक कच्ची सड़क। फिर मुझे एक टिन
शेड नजर आया। शायद वही पुनाईचक हॉल्ट का यात्री शेड था । वह शेड इतना जर्जर
था कि उसके नीचे खड़े होने का भी रिस्क नहीं लिया जा सकता था। क्या पता कब
टपककर नीचे आ जाए। और नीचे इतनी गंदगी थी, सूअर और कुत्ते जैसे पशुओं के मल
की, कि वैसे भी वहाँ खड़े होने के लिए कोई तैयार नहीं होता। ट्रेन वहाँ से चल
पड़ी। फिर मैं ड्राइवर से बतियाने लगा ।
मेरे पत्रकार होने की वजह से ड्राइवर ने खुलकर बातें कीं। बताया कि इस ट्रेन
के संचालन में रोजाना 200 लीटर डीजल की खपत होती है। इस ट्रेन के लिए दो
ड्राइवर, एक गार्ड और चार-पाँच क्रॉसिंग मैन बहाल हैं। इस रूट की पटरियों के
दोनों किनारे झुग्गी बस्तियाँ हैं। जब ट्रेन नहीं चल रही होती है, तो इन
बस्तियों के लोग और जानवर पटरियों पर काबिज हो जाते हैं।
" आपको मालूम है इस ट्रेन की शुरुआत 2004 में लालू जी किए थे।उस वक्त रेलवे
मिनिस्टर थे न । दियारा क्षेत्र का सब सब्जी वाला जो दीघा घाट उतरता है, उसके
लिए ट्रेन चलाई गई थी। ट्रेन कुछ दिन तो चली, लेकिन बाद में सब फेल हो गया।
ट्रेन इतनी स्लो चलती है कि कोई चढ़ना पसन्द नहीं करता है। हम लोग भी क्या कर
सकते हैं, आप चल ही रहे हैं, देखिए इस रूट पर ट्रेन चलाना कितनी मुसीबत का
काम है। इतना टाइम लगता है कि कोई फ्री में भी नहीं चढ़ता है। खाली शाम के
टाइम दीघा घाट स्टेशन पर आठ-दस ठो पैसेंजर चढ़ता है, जिसको पटना स्टेशन से
ट्रेन पकड़ना होता है। "
हालाँकि इस रूट पर पटरियाँ 1862 से ही बिछी हैं। पहले इस पर मालगाड़ियाँ चलती
थीं, जो गंगा किनारे से जहाजों से पहुँचने वाला सामान शहर लाती थीं। मगर
25-30 साल पहले वे ट्रेनें बन्द हो गईं।
अगला स्टेशन शिवपुरी था । वहाँ मैं उतर गया। ड्राइवर ने बताया, देखिए स्टेशन
निर्माण का शिलापट्ट भी है। वहाँ गया तो उस पर लिखा था कि तत्कालीन रेलमंत्री
लालू प्रसाद ने इसका शिलान्यास किया है। शिलापट्ट के पास दर्जनों भैंसें बँधी
नजर आ रही थीं। ट्रेन आगे बढ़ी तो मैं फिर सवार हो गया।
आगे का रास्ता मुश्किलों भरा था। ट्रेन जैसे-जैसे आगे बढ़ रही थी, अतिक्रमण
भी बढ़ता जा रहा था । बेली रोड के पास के लोग तो ट्रेन को देखकर पटरी खाली कर
देते थे, मगर आगे के रास्ते में जो लोग मिले वे निश्चिंत नजर आ रहे थे, कई
बार हॉर्न देने पर भी पटरी खाली करने में उन्होंने हड़बड़ी नहीं दिखाई। अपनी
रफ्तार से काम करते रहे ।
जगह-जगह ट्रेन रोककर हॉर्न देना पड़ रहा था। अजीब नजारा था । कहीं खाट पड़ी
थी और लोग बैठकर बतिया रहे थे, तो कहीं रिक्शा पटरियों के बीचोबीच लगा था।
कहीं बैठकर लोग ताश खेल रहे थे तो कहीं औरतें पटरियों पर बैठकर एक-दूसरे का
जूँ निकाल रही थीं ।
ट्रेन आती देखकर भी किसी को खतरे का एहसास नहीं था। लोग आराम से उठ रहे थे।
एक जगह पटरियों के बीच गाय को खिलाने वाली नाद छूटी पड़ी थी। ड्राइवर ने वहाँ
पहुँचकर हॉर्न बजाया। किसी ने आवाज दी, “ऐ फलनवा, तोहर लाद रैह गेलौ पटरिए
पर... " फिर फलनवा दौड़े दौड़े आया। दो लोगों ने मिलकर नाद हटाया और फिर
ट्रेन आगे बढ़ी।
राजीव नगर स्टेशन के पास एक व्यक्ति ने पटरियों से सटाकर अपनी बोलेरो गाड़ी
लगा दी थी। अगर ट्रेन आगे बढ़ती तो बोलेरो का पलटना तय था। अब ट्रेन के
ड्राइवर महाशय की विनम्रता कहिए या स्थानीय लोगों की दबंगई का डर, ट्रेन वहाँ
दस मिनट तक रुकी रही। ढूँढ़कर बोलेरो के ड्राइवर को बुलाया गया, उसने बोलेरो
हटाई, फिर ट्रेन आगे बढ़ी। ड्राइवर ने बताया, "क्या करें, मार खाएँ? रोज इसी
रूट पर चलना हैं... '
आखिरकार हम लोग दीघा स्टेशन पहुँच ही गए। ट्रेन स्टेशन से कुछ दूर पहले ही
रुक गई, क्योंकि आगे दोनों तरफ कीचड़ भरे गड्ढे थे। अगर ट्रेन वहाँ रुकती तो
नीचे उतरना भी मुश्किल होता। दोनों तरफ झुग्गी-झोंपड़ियाँ भी थीं। बहरहाल मैं
किसी तरह नीचे उतरा और दीघा स्टेशन का बोर्ड, कोई भवन या झोंपड़ी तलाशने लगा,
जिससे समझा जा सके कि यह स्टेशन ही है। अफसोस, मुझे ऐसा कुछ भी नहीं मिला,
लेकिन यही जगह इस यात्रा का आखिरी पड़ाव थी। थक-हार कर मैंने दोनों ड्राइवरों
से विदा ली और सड़क तक पहुँचने का रास्ता तलाशने लगा। कुछ दूर गीली मिट्टी पर
पटरियों के समानांतर चलने के बाद सड़क दिखी। अब मैं निश्चिंत था, सामने वही
शोरगुल, गाड़ियों की आवाजाही थी, सड़क के किनारे सब्जियाँ बिक रही थीं। लगा,
असली दुनिया में लौट आया हूँ। मैं जहाँ था, वहाँ से ट्रेन नजर नहीं आ रही थी।
ट्रेन को वहाँ दो घंटे रुकना था, ड्राइवर भी कहीं चाय पानी के लिए निकल गए
होंगे।
बहरहाल इस वृत्तांत को संक्षेप में मैंने अपने अखबार में छपने दे दिया। बाद
में कई अखबारों और टीवी चैनलों ने इस पर रिपोर्ट की । यह मुद्दा बना और
आखिरकार पटना हाईकोर्ट के हस्तक्षेप के बाद 2019 में रेलवे यह जमीन बिहार
सरकार को देने के लिए तैयार हो गई। इस रूट से अतिक्रमण हटा दिया गया है। इस
जगह पर एक फोर लेन सड़क बन रही है।
ऐसे बहुत सारे किस्से हैं, बिहार के अलग-अलग इलाकों के । एक बनमनखी -
बिहारीगंज रेलवे रूट हुआ करता था, जहाँ लोग टिकट ही नहीं कटाते थे। रेवेन्यू
कम होने लगा तो रेलवे ने फैसला किया कि वे इस रूट पर परिचालन ही बन्द कर
देंगे। तब स्थानीय लोग जगे और खुद टिकट बेचने और चेक करने का काम शुरू किया।
भागलपुर से मंदार हिल तक चलने वाली पैसेंजर ट्रेन की भी ऐसी ही कथा थी ।
ड्राइवर ट्रेन को रोककर ताड़ी पीने उतर जाता था। पटना गया पीजी लाइन के
किस्से भी मशहूर रहे हैं।
अभी भी कई सुस्त रफ्तार रेलगाड़ियाँ और रुकतापुर स्टेशन हैं। भले ही लोग 'जा
झाड़ के' वाला गाना गाकर अपनी रफ्तार बढ़ाने की कोशिश करते हैं। दरअसल,
बिहारियों के पाँव में चक्कर है। उन्हें अपने घर में टिकना नसीब नहीं है।
पहले कलकत्ता, मॉरिशस और फिजी जाते थे, फिर दिल्ली और पंजाब जाने लगे। अब
केरल से लेकर कश्मीर तक किसी भी जगह चले जाते हैं।

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