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नाटक-एकाँकी >> दरिंदे

दरिंदे

हमीदुल्ला

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 1987
पृष्ठ :138
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1454
आईएसबीएन :00000

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आधुनिक ज़िन्दगी की भागदौड़ में आज का आम आदमी ज़िन्दा रहने की कोशिश में कुचली हुई उम्मीदों के साथ जिस तरह बूँद-बूँद पिघल रहा है उस संघर्ष-यात्रा का जीवन्त दस्तावेज़ है यह नाटक


बूढ़ा : इहया न समझै की कौउन बात है ? जउन बात हम अपने ख़ातिर ठीक समझत हैं, हम करते हैं, जऊन उई अपने ख़ातिर ठीक समझत हैं, ऊ करते हैं।
बूढ़ी : जऊन बात ऊ अपने खातिर ठीक समझत हैं ऊ उनके काजे अच्छी है ?
बूढ़ा : अच्छै होई तबहित तो ऊ वैसेन करत है जेहिका ऊ अच्छा समझत है।
बूढी : और हम वैसा करित हैं, जेहिका हम अच्छा समझत हैं ?
बूढ़ा : हाँ, हाँ (खाँसता है।)
बूढ़ी : तुम तो हमका पहाड़े रटाबे लगे। अरे हम तो उनकी और अपनी समझ के बीच के फरक की बात करत रहित है।
बूढ़ा : फरक तो रहिबे करी। कोई चीज़ हमेस एक-सी नाही रहत। ई प्रकृति का नियम है कि जौउन चीज़ की बढ़त रुक जात है, तो ऊ गिरे लागत है।
बूढ़ी : तुम तो सीधे-सीधे कोऊ बात नाही करत।

बूढ़ा : हम तो यही कहत रहत हैं कि हम हू वइस कहाँ रहिगै जैस छब्बीस बरस पहिले रहैन। समझ का फरक उमिर का फरक होत है। कबहु-कबहु उमिर का फरक बहुत बड़ा फरक होत है। याद है तोहका, सादी के सिरू के दिनन मा हम घण्टन बातन करत रहिन।
बूढ़ी : सबे याद है।
बूढ़ा : हम तुम्हारा देह निहारा करत रहैन।
बूढ़ी : वो हू ! लो साड़ी सुखवाये दो।
बूढ़ा : ऊँह। तमाम भिगोये दिया, निचोड़ा नाहीं।
बूढ़ी : ठीक है, ठीक है।
बूढ़ा : (साड़ी सुखाने की कोशिश में हाथ ऊपर करता है।)
ई कमर का दर्द हमार जान ले लई, रामकली। (पॉज़)
(साड़ी खींचते दोनों पास आ जाते हैं।)

बूढ़ी : वा दिनन तुम हमसे घण्टन बातन करित।
बूढ़ा : काहे से कि वा दिनन हमका तुम्हार बातन से जादा तुहार सुडौल देह में दिलचस्पी रहिन।

बूढ़ी : अब हम कहाँ वइस रह गइन।
बूढ़ा : यही तो फरक होई गवा।
बूढ़ी : भला तुम हू तो वैसे कहाँ रहे।
बूढ़ा : ठीक है। ब्याह के बाद हम सोचित रही, रामकली, कि सायद हमार सादी तीन-चार बरस से जादा नाहीं निभी-काहे से कि तुम्हार और हमार विचारन में जमीन-आसमान का फरक हुई। पर सादी होन पर तुम इतनी तेज़ी से हमरे खाये-पिये, उठे-बैठे, सोचे-समझे कै तरीके पे छाय गवा कि रामकसम रामकली, आज हम सोचित है कि साँचऊँ हम वइस नाहीं रहै जैसे सादी के पहिले रहित।
बूढ़ी : शिकायत करत हो ?
बूढ़ा : नाहीं, सिकायत नाहीं करत हैं। हम तो ई कहत रहिन कि (कमर के दर्द से कराहता है।) हमें एक और जिये का मौका लागे, तो रामकसम रामकली, हम तोइकै अपन जीवन संगिनी चुनी।

बूढ़ी : याद है तुमका, जब हमार राहुल होए वाला रहा तुम कित्ता खयाल राखत रहे हमार।
बूढ़ा : राहुल। राहुल नहीं आवा अबै तक।
बूढ़ी : ईय राहुल कै बहू बहुतै बोर किये रहे हमका। पाँच बरस होए गवा सादी को मगर बच्चा...
बूढ़ा : आवा नाहीं अबै तक। (दोनों मूकाभिनय द्वारा कुछ न कुछ करते रहते हैं)
बूढ़ी : जब कि राहुल हमार सादी के एक बरस बाद होई गवा।
बूढ़ा : हम राहुल की बात करित रहे।
बूढ़ी : हमहू राहुल की बात करित है।
बूढ़ा : नाहीं। तुम तौ बच्चा की बात करत हो और हम सिगरेट की।
बूढ़ी : तुम लड़कवा के आदत बिगाड़ रहे।
बूढ़ा : अरे ज़रूरत खराब करत है सबका। और आज ज़रूरत बेहिसाब बढ़ गयी हैं।

बूढ़ी : राहुल कै होए पै हम एक सानदार दावत दिया रहा।
बूढ़ा : अरे धीरे बोलो, धीरे। दावतन पै रोक है सरकार का।
बूढ़ी : कछु भी होये, भगवान हमार सुन लें। हम ज़रूर दावत देबैं।
बूढ़ा : लेकिन कानून।
बूढ़ा : फूड कमिसनर के साले के दामाद के चाचा के ससुर के बहनोई से तुहार जान-पहचान के का भये ?
बूढ़ा : लोग का कहेंगे।
बूढ़ी : लोगन का का है। हमका अपन से मतलब रहे।
बूढ़ा : देस में जगह-जगह भुखमरी फैली है।
बूढ़ी : सबन कौ राहत मिल रही है। दावत ज़रूर होगी। पहिलेन जइसे। आज हउन याद है।
बूढ़ा : (याद करने की कोशिश करता है) दावत में अचानक दिनेस आई गवा। तुहार बचपन का साथी।
बूढ़ी : (पुरानी यादों में खो जाती है) ऊ एक तोहफा लावा रहा।
बूढ़ा : एक गुड़िया।
बूढ़ी : नन्ही-मुन्नी।
बूढ़ा : तुहार सकल से मिलत-जुलत।
बूढ़ी : प्यारी-प्यारी।
बूढ़ा : तुमका इमोश्नल हुई गवा।
बूढ़ी : तुम और तुहार सक।
बूढ़ा : नाराज होई गयी।
बूढ़ी : तुम्हई परवाह है। कहै वारी बात कही जात है। जउन मुँह में आये बकिन लागत हो। अब उहाँ कहाँ जात हो ?
बूढ़ा : कबहु-कबहु बच्चेन के जैसे डाँटन लागत हो रामकसम, रामकली। एक बच्चा का होई गवा...पैरन की आहट भई है। सायद राहुल आय रहे। हाँ, उहे है।
बूढ़ी : आज हम एहिसे साफ़-साफ़ पूछ लेब कि तुम्हार बहू के...
बूढ़ा : पूछई का है। सब आपन खोखलापन छिपावत है।
बूढ़ी : तुम नाहीं ?
बूढ़ा : हम बात अपन को सरीक करके कही है।
बूढ़ी : जइसे बाप वइसे बेटा।
बूढ़ा : जइसे सास, वइसे बहू।
बूढ़ी : हमका नाऔलाद नाही हैं।
बूढ़ा : बस इत्ता ही फरक होई गवा।
बूढ़ी : तुम का सक की आदत को हम सादी के तुरत बाद जान गये रहे।
बूढ़ा : काहे पिछली बातन दोहराये को मजबूर करते हो। हम बाहिर जात हैं। पूछ लो राहुल से जोउन पूछना है। ऊ आय रहा है। (बूढ़ा विंग्स की तरफ़ जाता है और कमर सीधी करके राहुल के रूप मैं लौट आता है।)
राहुल : ममी, प्लीज डोण्ट आस्क मी ऐनी कोएशचन्स। मैं जब भी घर आता हूँ, कोई न कोई सवाल करती हो तुम मुझसे।
बूढ़ी : तुहार पामन की आहट सुनके तुमहार बब्बा जान गये कि तू आया है।
राहुल : आहट। आहट की याद मत दिलाओ, ममी। तुम तो जानती हो, आहट से कितना डर लगता है मुझे। जब मैं छोटा-सा था...
बूढ़ी : चार-पाँच बरस का...
राहुल : रात को डैडी जब घर नहीं होते थे...
बूढ़ी : उनकी रात की डूटी रहत रही।
राहुल : कोई रीछ हमारे कमरे का दरवाजा धीरे-धीरे खटखटाता।
बूढ़ी : तुम नींदों में डर जात रहे।
राहुल : मैं दबी आवाज़ में डैडी-डैडी चिल्लाने लगता।
बूढ़ी : डरावना सपना।
राहुल : दरवाजा खुल जाता।
बूढ़ी : नींदों माँ।
राहुल : वह मुझे टॉफी देने के लिए हाथ बढ़ाता।
बूढ़ी : तू डर से आँख बन्द कर लेते।
राहुल : मैं आँखें खोल देता और तुम मेरे पास नहीं होती थीं। मैं डर से फिर आँखें बन्द कर लेता...और उसके बाद सरसराहट, सिसकियाँ...मैं डर से चीख उठता...डैडी, डैडी...दौड़ो-दौड़ो ममी को बचाओ...घर में रीछ घुस आया है। तुम दौड़कर मेरे पास आतीं...मैं आँख खोलकर देखता...तुम मेरे पास होती थीं।

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