लोगों की राय

नाटक-एकाँकी >> दरिंदे

दरिंदे

हमीदुल्ला

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 1987
पृष्ठ :138
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1454
आईएसबीएन :00000

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

349 पाठक हैं

आधुनिक ज़िन्दगी की भागदौड़ में आज का आम आदमी ज़िन्दा रहने की कोशिश में कुचली हुई उम्मीदों के साथ जिस तरह बूँद-बूँद पिघल रहा है उस संघर्ष-यात्रा का जीवन्त दस्तावेज़ है यह नाटक

Darinde - A Hindi Book by - Hamidullah

‘उलझी आकृतियाँ’ के बाद हमीदुल्ला के चार और नाटक : ‘दरिन्दे’। ‘दरिन्दे’ अर्थात् दरिन्दे नहीं, जो हिंस्र पशु होते हैं और शीलवान सुसंस्कृत मानव की बस्तियों से दूर जंगलों में रहते हैं। ‘दरिन्दे’ से आशय जीवन के मूल्यों का विकास करने वाली मानव-जाति की ही उन व्यापक इकाइयों से है जो बाहर से शीलवान् सुसंस्कृत दिखते भी हैं फिर भी बहुत अंशों में अपने आदिम पुरखों के निकट।

कितनी भी कड़वी और अनचाही लगे यह बात, मगर है सच। जीवन के अनेक क्षेत्र और पक्ष हैं जहाँ पग-पग पर जिनसे सम्पर्क पड़ता है उनके व्यवहार का भाव और अर्थ मानवों-जैसा तो नहीं ही होता। कुछ वर्ग तो जैसे बिलकुल उसी साँचे के ढले बने हैं, भले ही यों शिष्ट और प्रिय-दर्शन हैं, सम्भ्रान्त और परदुख कातर हैं। और तो और, अपने पारिवारिक और निजी जीवन तक में कहीं न कहीं मानव का वह मूल आदिम रूप बना चला आता है। कैसा अजीब लगता है आज के युग में यह सब ! पर आज के युग में ही तो यह सब और भी उभर सका, निखर सका !!

हमीदुल्ला के इन नाटकों में इन्हीं तथ्यों का उद्घाटन किया गया है। अनूठी शैली, मीठे और पैने व्यंग्यों, और तथ्यप्रियता ने इन्हें अत्यन्त प्रभावपूर्ण बना दिया है। मंच पर लाये गये तो चारों नाटक पुरस्कृत हुए, ‘दरिन्दे’ को तो समस्त भारतीय भाषाओं के नाटकों में सर्वश्रेष्ठ माना गया। ये एक ऐसा दर्पण है जो बाहरी आँखों से अधिक मन की आँखों के लिए हैं, और इसलिए जितने उपयोगी ये पीड़ा भोगियों के लिए हैं उससे अधिक उस पीड़ा के कारण-वर्गों के लिए। पढ़ेंगे तो फिर-फिर पढ़ना चाहेंगे दरिन्दे’ को और मंच पर लायेंगे तो बार-बार लाने के लिए आग्रह होता पायेंगे।


कुछ शब्द


दिसम्बर 9, सन् 1973 को नयी दिल्ली के मावलंकर ऑडीटोरियम में, केन्द्रीय सचिवालय नाट्य परिषद् द्वारा आयोजित अखिल भारतीय सर्व भाषा नागरिक सेवा नाटक प्रतियोगिता के सिलसिले में, हमें हमीदुल्ला द्वारा लिखित और सरताज माथुर द्वारा निर्देशित नाटक ‘दरिन्दे’ देखने का सौभाग्य मिला। ‘हमें’ मैं इसलिए कह रहा हूँ कि खचाखच भरे हुए हॉल के दर्शकों के साथ-साथ मेरे साथी एक बंगाली, एक कश्मीरी, एक तमिषभाषी तीन और जज भी थे। करीब छह दिन तक लगातार तीन-तीन नाटकों के हिसाब से सतरह-अट्ठारह नाटक कई भाषाओं में हमने देखे थे।

और उन सबमें हम चार निर्णायकों को सब दृष्टियों से यह सर्वश्रेष्ठ लगा। इस नाटक के संवाद, अभिनय, निर्देशन सबकुछ बहुत ही नया और ताजगी देने वाला था। यह नाटक कई स्तरों पर आज के सामाजिक यथार्थ का और विसंगतियों का बड़े सक्षम रूप से चित्रण करता है इस नाटक को सर्वश्रेष्ठ आलेख, प्रदर्शन, निर्देशन और अभिनय के छह प्रथम पुरस्कार प्रदान किये गये। यही हमीदुल्ला का मेरा प्रथम परिचय था।

इसके बाद इनका एक संग्रह ‘उलझी आकृतियाँ’1 मैंने पढ़ा, जिनमें इनके ‘एक और युद्ध’ और ‘समय सन्दर्भ’ दो और नाटकों के साथ तीन नाटक छपे हैं। उनके संवाद, चरित्र-चित्रण और प्रयोगधर्मिता से मैं बहुत प्रभावित हुआ। अब सुनता हूँ कि ‘दरिंदे’ के पचास प्रदर्शन राजस्थान संगीत नाटक अकादेमी, और संस्थाओं ने अनेक प्रमुख नगरों में कराये हैं हजारों दर्शक और पाचासों नाट्य-समीक्षकों ने इसे सराहा है। अब हमीदुल्ला ने चाहा कि दो शब्द इसपर मैं भी लिखूँ, तो मैं सोच में पड़ गया कि कहाँ से शुरू करूँ।

सबसे पहले तो मुझे जानवर पसन्द हैं। मैं जीवदया मण्डल का सदस्य नहीं हूँ, न रोज़ चींटियों को चीनी या आटा खिलाता हूँ, पर पशु-पक्षी सब प्रकृति के अंग हैं। मैं भी-यानी ‘पुरुष’ भी ‘प्रकृति’ से आबद्ध हैं। एक तरह से मैं या हमीदुल्ला या हम सब जो इसे पढ़ रहे हैं, पशु हैं। पर केवल पशु नहीं हैं।

पशु नाटक नहीं लिख सकते या खेल सकते-पर हमीदुल्ला ने लिखा है। यानी नाटक पसन्द आने का पहला कारण यही है कि मैं अब भी चिड़ियाघर देखना और सरकस देखना बहुत पसन्द हूँ।

भारत के बड़े शहरों के सब चिड़ियाघरों में मैंने कई दिन बिताए हैं (उसके पालित अंश के नाते नहीं, दर्शक के नाते)-और विदेश में भी ! अमेरिका में सेण्ट लुई मजूरी में मैंने दो दिन तक एक चिड़ियाघर देखा, कई स्केच बनाये, पश्चिम जर्मनी में फ्रांकफुर्ट और बर्लिन के चिड़ियाघर बड़े ही उमदा हैं। वहाँ एक जगह मछली से पैदा होने वाली बिजली से बल्ब जलाया हुआ दिखाते हैं और अण्डे से चूजा कृत्रिम गरमी से जल्दी पैदा करने का पूरा जादू दिखाते हैं।

रूस में हम उनके अतिथि थे, तो लेनिनग्राद या मास्को में एक सर्कस भी हमें दिखाया गया। वैसे तो कुछ देशों में बड़े शहरों के भूगर्भ-रेलवे देखो, तो आदमी भी सरकस के ही अंग लगते हैं चाहे न्यूयॉर्क की ‘सब’ हो, या पैरिस या मास्को की ‘मैट्रो’।

अभी भी मैं घण्टों अपनी ढाई बरस की नातिन के साथ दिल्ली के ‘जू’ में आधा दिन आनन्द से बिता सकता हूँ। दार्जिलिंग अभी गया था, तो वहाँ का सबसे ऊँचाई पर घुड़सवारी का मैदान और चिड़िया घर देखे। यानी हर मनुष्य में अपने ‘पूर्वज’ (बन्दर आदि) के प्रति पूजा और प्रशंसा और प्रेम का भाव होता ही है। लार्ड बाइरन ने कहा है : ‘‘मैं मनुष्य से कम प्यार नहीं करता, पर प्रकृति से अधिक करता हूँ।’’ मार्क ट्वेन का कहना है कि ‘‘आप सड़क से एक कुत्ते को उठा लीजिए, और एक आदमी को । कुत्ते को खाना खिलाइये, वह जन्म भर आपके साथ रहेगा।

पर यह बात आदमी के साथ सही नहीं है।’’ आल्डस हक्स्ले की ‘एप एण्ड इसेन्स’ (पशु और मानव) और आरवेल की ‘एनिमल फार्म’ मेरी प्रिय पोथियाँ हैं। शायद बीस साल पहले जब मैं नागपुर रेडियो पर था तो पुरुषोत्तम दारव्हेकी नाम के मराठी बाल-नाट्य लेखक ने एक नाटक रचा था, जिसमें एक आदमी को पिंजरे में बन्द रखकर सारे पशु उसे देखने आते हैं और शिकायतें करते हैं, ऐसी कहानी थी।

टॉलस्टाय की एक बड़ी प्रसिद्ध लघु-कथा है कि एक आदमी के पास गौएँ थीं। उन्हें वह एक बड़े भारी पींजरापोल में बन्द रखता था। अब उनके बड़े-बड़े सींग थे, उनमें वे एक-दूसरे को घायल भी कर सकती थीं। तो इस गौशाला-मालिक ने उन सींगों पर मखमली टोपियाँ सिलवा दीं। एक आदमी ने पूछा कि इतना सब खर्च करते हो, तो उन्हें घास चरने के लिए छुट्टा क्यों नहीं छोड़ देते ? वह मालिक बोला: ‘फिर उनका दूध और लोग जो दुह लेंगे। मैं इन गौओं का सारा दूध अकेले दुहता हूँ और बेचता हूँ।’ यानी पंचतंत्र के जमाने से आजतक आदमी और जानवर में अक़ल के बारे में होड़ लग रही है: कभी एक दूसरे से सीखता है, कभी एक दूसरे को सिखाता है।

हमीदुल्ला के इस नाटक में जानवर और आदमी ‘सिम्बॅल’ हैं। और उनके द्वारा आज के अर्थहीन माहौल में एक नया ‘शब्द-व्यापार’ या ‘संवाद’ उपस्थित किया गया है। वैसे तो चिड़िया और जानवर की बोली बोलने वाले ‘आदमी’ ‘वेंट्रोलोक्विस्ट’ होते हैं, और तमाशा दिखाते हैं। पर जानवर की बोली समझनेवाले बहुत कम हैं। वैसे तो चालीस साल लेखकी करने के बाद हमें यह भी लगने लगा है कि आदमी की भी बोली या ‘शबद’ समझने वाले कम ही इन्सान हैं। ‘शबद शबद बहु अन्तरा....’ कबीर कह गये। हमारे यहाँ इसलिए शब्द को ब्रह्म कह दिया कि आगे परिभाषा न करनी पड़े। बाइबिल में कहा: ‘इन दि बिगनिंग देअर वाज़ वर्ड, ऐण्ड दि वर्ड बिकेम गॉड’ या इस्लामी धर्मग्रन्थों में उसे ‘कुन’ कहा गया !
तो हमीदुल्ला की सबसे बड़ी खूबी इस नाटक में यह है कि शब्दों का कम से कम, और कई जगह ‘बेकेट’ की तरह और ‘आनुई’ और ‘जिरादूँ’ के एबसर्ड नाटकों की तरह कलात्मक ‘ऊलजलूल’ प्रयोग करके उन्होंने बहुत बड़ा सार्थक प्रभाव पैदा किया है। ऐसा कमाल कुछ-कुछ ‘कारवाँ’ वाले भुवनेश्वर के ‘ताँबे के कीड़े’ जैसे एकांकियों में था-जो सबसे पहले लखनऊ के यशपाल के ‘विप्लव’ में छपा था; या मोहन राकेश के मरणोपरान्त छपे ‘अण्डे के छिलके’ में ‘छाते’ नाटक में देखा। हिन्दी में ऐसे प्रयोग कम हैं-भुवनेश्वर और राकेश दोनों अब स्वर्गीय हैं।

शब्दों की एक गति मौन है, दूसरी गति अर्थपूर्णता है। ‘अर्थ’ वाले हाजी मस्तान शब्दों की दुनिया में कम नहीं, यानी जगलर-स्मगलर। और ‘मौनी’ बाबाओं की दूकानें तो देश-विदेश में खूब कमा रही हैं: ‘दुनिया ठग ले मक्कर से। बमभोले घी और शक्कर से !!’

व्यंग्य और परिहास कहाँ समाप्त होता है और गम्भीर नाटक कहाँ शुरू हो जाता है, इसका ‘दरिंदे’ में पता ही नहीं लगता। यही उसकी खूबी है। सरताज माथुर ने अँगरेज़ी में जो इस नाटक का परिचय छापा था उसमें बरतोल्त ब्रेश्ट (या ब्रेख़्त) का एक वाक्य दिया है : ‘थियेटर कन्सिस्ट्स इन मेकिंग लाइव रिप्रज़ेण्टेशन्स ऑव रिपोर्टेड और इनवेण्टेड हैपनिंग्स बिटविन ह्यु मन बीइंग्ज ऐण्ड फ़ेलो क्रीयेचर्य।’ हमीदुल्ला ने इसी तरह का थियेटर दिया है जिसमें मनोरंजन भी है और विचारों का उत्तेजन भी।

मैंने अपनी छोटी-सी ज़िन्दगी में कई नगरों में, कई देशों में सैकड़ों नाटक देखें हैं-अनेकों भाषाओं में। ब्रेख़्त का नाम लिया गया है ऊपर उनके थियेटर में 1967 में बर्लिन में जर्मन में ‘सोल्जर श्वाहत्ज’ देखा। ‘दरिन्दे’ देखते हुए मुझे नाज़ी अत्याचारों के ख़िलाफ़ संकेतमय ढंग से दिखाये गये उन कम से कम नाट्य-मंच-साधनों से बड़ा से बड़ा व्यंग्य पैदा करने की याद आ गयी। गये साल बाँग्ला देश में ढाका में मैंने बादल सरकार का ‘बाक़ी इतिहास’ और खुद उनके निर्देशन में कलकत्ता में ’सगीना महतो’ भी देखा है।

सरकार भी इस तरह के एब्सर्ड थियेटर की युक्तियाँ ‘एवम् इन्द्रजीत’ में प्रयुक्त करते हैं। खानोलकर ने ‘एक शून्य बाजीराव’ (मराठी) नाटक में इसी तरह की शब्दों की ‘अ-शब्दता’ का उपयोग किया है। हमीदुल्ला से इस दिशा में बहुत आशाएँ हैं।

नाटक सिर्फ़ ‘आलेख’ या ‘संहिता’ (मराठी में ‘टेक्स्ट’ के लिए यह शब्द चलता है) नहीं होता। नाटक एक ‘टोटल आर्ट’-समग्र कला है। आधुनिक नाटककार केवल शब्दों का प्रसाद लेकर वाग्विजास के कोणार्क नहीं बनाता। उसे दृश्य, अभिनेय, ‘नृत्त’, मंचसज्जा, प्रकाशयोजना, ‘कोरियोग्राफ़ी’ सभी का ज्ञान आवश्यक है। इसलिए कभी-कभी हिन्दी में देखते हैं कि नाटक का ‘पाठ’ तो कहीं रहता है, प्रस्तुतकर्ता उसका मंच-रूप और ही बना देते हैं।

बलवन्त गार्गी नामक पंजाबी नाटककार ने तो यहाँ तक कहा है कि मुझे अच्छा डाइरेक्टर नहीं मिला। राकेश डाइरेक्टर की इच्छानुसार अपने ‘पाठ’ को दुबारा-तिबारा बदलते, रिवाइज़ करते थे। हमीदुल्ला के इस नाटक के साथ ख़ूबी यह है कि ये ही ख़ुद अभिनेता और निर्देशक आदि सबकुछ हैं। यानी ‘मैं’ भी खुद ‘प्याला’ भी ख़ुद, ‘साक़ी’ भी ख़ुद, ‘मैख़्वार’ भी ख़ुद-गोया कि वेदान्तवाली आदर्श स्थिति है-‘अहं ब्रह्मास्मि’; माया तो ब्रह्मा की छाया ही ठहरी।

हमीदुल्ला का नाटक मैंने पहले देखा, बाद में पढ़ा। इसलिए उसका असर कहते हैं कि दिल में नक्श हो गया। यह उन थोड़े-से सौभाग्यशाली नाटकों में से एक है जिसे मैं नहीं भूलूँगा। और यह कहना इस नाटक की सबसे बड़ी तारीफ करना है। तारीफ़ यानी परिभाषा और परिचय भी (त-अरीफ़)।

हमीदुल्ला हमारी नाव में बैठे हैं। यानी अँगरेज़ी मुहावरे में मैं कह सकता हूँ कि हम और वो एक ही नाव में हैं, और उस नाव का नाम है-‘अहिन्दी भाषी’ लेखक जिनकी मातृभाषा दूसरी है, लिखते हैं हिन्दी में।

बड़ी खुशी की बात है कि जिस खड़ी बोली हिन्दी को अमीर ख़ुसरो और नज़ीर अकबराबादी ने सँवारा, जिसकी माँग रहींम, जायसी और रसखान ने भरी, और जिसके हाथों में मेंहदी रचानेवाले आज इतने सारे नामी-गिरामी शोहरत पाये हुए कहानीकार, उपन्यासकार, कवि, निबन्धकार, समीक्षक उर्दू-भाषी हैं, जैसे राही मासूम रज़ा, ख़्वाजा बदीउज़्ज़माँ, गुलशेर शानी, मेहरुन्निसा परवेज, नईम, इब्राहीम, शरीफ़, फ़िरोज़ अशरफ़, माजदा असद, मलिक मुहम्मद, बशीर अहमद, ‘मयूख’, इत्यादि-इत्यादि, उनमें एक और अच्छा लेखक नाम जुड़ गया-हमीदुल्ला !

‘दरिन्दे’’ एक ऐसा नाटक है जो आसानी से खेला जा सकेगा और खेलने वालों को मुश्किल ज़बान या सलीस-और-सकील की पेचीदगियों से सहज बचा देगा। क्योंकि इसकी भाषा सीधी-सादी, बोलचाल की सरल हिन्दी या हिन्दुस्तानी है-जहाँ आकर हिन्दी-उर्दू का भेद खत्म हो जाता है। इसकी भाषा दर्शकों और पाठकों को भाषातीत की ओर ले जायेगी-जो कि भाषा का असली मकसद है : प्रेम की भाषा या ‘का भाषा, का संस्किरित, प्रेम चाहिए साँच’ वाली भाषा।
मैं पुनः हमीदुल्ला का अभिनन्दन करता हूँ।

-प्रभाकर माचवे

Next...

प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book