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सदाबहार >> गोदान

गोदान

प्रेमचंद

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :327
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1442
आईएसबीएन :9788170284321

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गोदान भारत के ग्रामीण समाज तथा उसकी समस्याओं का मार्मिक चित्रण प्रस्तुत करती है...


गाँव के समीप आकर सिलिया ने कहा–अच्छा, अब इधर से अपने घर चले जाओ। कहीं पण्डित देख न लें।

मातादीन ने गर्दन उठाकर कहा–मैं अब किसी से नहीं डरता।

‘घर से निकाल देंगे तो कहाँ जाओगे?’

‘मैंने अपना घर बना लिया है।’

‘सच?’

‘हाँ, सच।’

‘कहाँ, मैंने तो नहीं देखा।’

‘चल तो दिखाता हूँ।’

दोनों और आगे बढ़े। मातादीन आगे था। सिलिया पीछे। होरी का घर आ गया। मातादीन उसके पिछवाड़े जाकर सिलिया की झोपड़ी के द्वार पर खड़ा हो गया और बोला–यही हमारा घर है।

सिलिया ने अविश्वास, क्षमा, व्यंग और दुःख भरे स्वर में कहा–यह तो सिलिया चमारिन का घर है।

मातादीन ने द्वार की टाटी खोलते हुए कहा–यह मेरी देवी का मन्दिर है।

सिलिया की आँखें चमकने लगीं। बोली–मन्दिर है तो एक लोटा पानी उँड़ेलकर चले जाओगे।

मातादीन ने उसके सिर की टोकरी उतारते हुए कम्पित स्वर में कहा–नहीं सिलिया, जब तक प्राण है तेरी शरण में रहूँगा। तेरी ही पूजा करूँगा।

‘झूठ कहते हो।’

‘नहीं, तेरे चरण छूकर कहता हूँ। सुना, पटवारी का लौंडा भुनेसरी तेरे पीछे बहुत पड़ा था। तूने उसे खूब डाँटा।’

‘तुमसे किसने कहा?’

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