सदाबहार >> गोदान गोदानप्रेमचंद
|
164 पाठक हैं |
गोदान भारत के ग्रामीण समाज तथा उसकी समस्याओं का मार्मिक चित्रण प्रस्तुत करती है...
‘भुनेसरी आप ही कहता था।’
‘सच?’
‘हाँ, सच।’
सिलिया ने दियासलाई से कुप्पी जलाई। एक किनारे मिट्टी का घड़ा था, दूसरी ओर चूल्हा था, जहाँ दो-तीन पीतल और लोहे के बासन मँजे-धुले रखे थे। बीच में पुआल बिछा था। वही सिलिया का बिस्तर था। इस बिस्तर के सिरहाने की ओर रामू की छोटी खटोली जैसे रो रही थी, और उसी के पास दो-तीन मिट्टी के हाथी-घोड़े अंग-भंग दशा में पड़े हुए थे। जब स्वामी ही न रहा तो कौन उनकी देख-भाल करता। मातादीन पुआल पर बैठ गया। कलेजे में हूक-सी उठ रही थी; जी चाहता था, खूब रोये।
सिलिया ने उसकी पीठ पर हाथ रखकर पूछा–तुम्हें कभी मेरी याद आती थी?
मातादीन ने उसका हाथ पकड़कर हृदय से लगाकर कहा–तू हरदम मेरी आँखों के सामने फिरती रहती थी। तू भी कभी मुझे याद करती थी?
‘मेरा तो तुमसे जी जलता था।’
‘और दया नहीं आती थी?’
‘कभी नहीं।’
‘तो भुनेसरी...’
‘अच्छा, गाली मत दो। मैं डर रही हूँ, गाँववाले क्या कहेंगे।’
‘जो भले आदमी हैं, वह कहेंगे यही इसका धरम था। जो बुरे हैं उनकी मैं परवा नहीं करता।’
‘और तुम्हारा खाना कौन पकायेगा।’
‘मेरी रानी, सिलिया।’
|