बिसू की मौत के जिस प्रसंग को सुकुल बाबू घर-घर में फैला गए थे, वह फिर
चार-छः घरों में सिमट गया और बाक़ी घरों में इस योजना के तहत मिलनेवाले
रुपयों का हिसाब-किताब होने लगा।
तीसरे दिन ही 'मशाल' का अंक निकला। उसके प्रथम पृष्ठ पर बड़े-बड़े अक्षरों पर
शीर्ष-पंक्ति थी- 'खेत-मजदूरों और हरिजनों की आर्थिक स्थिति सुधारने की दिशा
में दा साहब की सरकार का ठोस और क्रांतिकारी क़दम !'
दा साहब के भाषण की विस्तृत रिपोर्ट देते हुए बड़े विस्तार से इस योजना के हर
पहलू पर प्रकाश डाला गया था, साथ ही इस योजना को अन्य प्रांतों के लिए
अनुकरणीय बताया गया था।
अधिकारी को चैक देते हीरा की एक बड़ी-सी तसवीर छपी थी। बग़ल में दा साहब खड़े
हैं। चेहरे पर बापू का सपना पूरा करने का सुख-संतोष झलक रहा है।
पांडेजी ने गाँव के घर-घर में इस अंक की प्रतियाँ बँटवा दीं-मुफ़्त।
वैसे तो दा साहब के भाषण की रिपोर्ट कल सवेरे ही सुकुल बाबू को मिल गई थी और
उनका सारा दिन काफ़ी वेचैनी में ही बीता था, पर आज सवेरे जब से 'मशाल' का यह
अंक देखा है तब से तो उनके थुलथुल शरीर में उत्तेजना की लहरें थरथरा रही हैं।
उन्हें तो पूरी उम्मीद थी कि इस सभा में ऐसा हुड़दंग मचेगा कि अपनी लाई सारी
गोटें अपनी ही धोती में समेटकर वापस ले जानी पड़ेंगी दा साहब को। बिहारी भाई
के साथ बैठकर पूरी योजना बनाई थी सुकुल बाबू ने और पिछले पाँच दिनों से लोगों
को भड़काने और तनाव फैलाने में किसी तरह की कसर नहीं रखी गई थी। बिहारी भाई
ने जिम्मा लिया था इस काम का कि ऐसा माहौल तैयार कर देंगे गाँव में कि दा
साहब की सभा हो ही न पाए ! थोड़ी मार-पीट और खून-खराबा होने का डर ज़रूर
था...पर यह कोई ख़ास बात नहीं-यह सब तो चुनाव-अभियान का ज़रूरी हिस्सा हो गया
है। बल्कि इस तरह की घटनाओं से सरगर्मी और बढ़ती है-जोश और उत्तेजना फैलती है
लोगों में। बस, इतना ज़रूर है कि इस जोश-खरोश को अपने पक्ष में मोड़ लिया जाए
किसी तरह। और यही आश्वासन बिहारी भाई देकर गए थे। काशी तो उनका भाषण होने के
बाद से लौटे ही नहीं। सरोहा में ही डटे हुए हैं। ज़मीन तैयार कर रहेहैं सुकुल
बाबू के लिए ! तेज़ आदमी हैं दोनों, और बिहारी भाई को तो इस तरह के कामों में
कमाल ही हासिल है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि भरोसे के आदमी हैं दोनों। आँख
मूंदकर विश्वास किया जा सकता है दोनों पर ! सुकुल बाबू के अच्छे-बुरे सब समय
में साथ दिया है इन लोगों ने और पूरी ईमानदारी और लगन के साथ दिया है। वैसे
सुकुल बाबू के मुख्यमंत्रित्वकाल में फ़ायदा भी बहुत उठाया है दोनों
ने...ख़ासकर बिहारी भाई ने...पर नमक खाकर नमकहरामी क़तई नहीं की, बल्कि उसकी
अदायगी ही कर रहे हैं संकट के दिनों में।
अपना भाषण ख़त्म करके लौटते हुए जब बिसू के घर गए थे सुकुल बाबू और पता लगा
था कि बिसू के माँ-बाप को बिंदा नाम का कोई आदमी शहर ले गया है तो उनका माथा
ठनका था। पता नहीं, कहीं दा साहब ने ही तो नहीं बुलवाया...उलटा-सीधा कुछ
पढ़ाकर...कुछ दे-दिलाकर चुप करा दें। इन गरीब लोगों का क्या है...पैसा जेब
में पड़ते ही आधा दुख-दर्द तो दूर हो जाता है इनका। और यदि मुख्यमंत्री खुद
बुला लें तो फिर बस...बिछ जाएँगे। लगेगा जैसे जनम सफल हो गया। और दा साहब ने
जब बुलाया होगा तो केवल जेब में ही कुछ डालकर तो रहेंगे नहीं...मुँह में भी
ज़रूर कुछ डाला होगा। अब वही गाते फिरेंगे ससुरे सारे में। बिसू की मौत का
हादसा हवा का रुख बदलने में बहुत कारगर हो सकता है; पर निर्भर करता है बस इस
बात पर कि कौन कितनी चतुराई से इसे अपने पक्ष में मोड़ ले। कहीं ऐसा न हो कि
उनकी थाली में परसा यह भोजन भी दा साहब ही गटक लें ! सुकुल बाबू ने मन की यह
कचोट बिहारी भाई को बताई तो दूसरे दिन दोपहर तक ही सारी ख़बर ले आए।
बिंदा बिसू का खास दोस्त है...बेहद गुस्सैल और बेधड़क। डरता नहीं किसी से और
न किसी का लिहाज़ करता है। उसकी बीवी रुक्मा भी बड़ी बदमिज़ाज और बदज़बान औरत
है। शादी से पहले बिसू के स्कूल में पढ़ती थी और बहुत मानती थी बिसू को। बिसू
की मौत से दोनों बौखलाए फिर रहे हैं और क़ानूनी सलाह-मशवरा करने के लिए
वकीलों के पास गए थे। दा साहब के हाथों बिकनेवाला जीव नहीं है वह ! सरेआम
गालियाँ देता फिरता है सबको ? सुकुल बाबू ने सुना तो काफ़ी-कुछ निश्चित हो
गए। केवल निश्चित ही नहीं, बल्कि बहुत-कुछ आश्वस्त भी कि बिंदा अकेला ही
जुलूस निकालकर रख देगा दा साहब का। और यह एक तरह से ज़्यादा अच्छा होगा !
गाँव के लोगों में से ही कोई खड़ा होकर धज्जियाँ बिखेरे तो बात ही दूसरी होती
है उसकी। पर वह साला उस दिन भी शहर में ही धकियाता रहा...सभा के बीच में आया
भी तो दो-चार फ़िक़रे कसे और चलता बना ! चाहता तो मज़े से हुड़दंग मचाकर सभा
में धूल उड़वा सकता था। पर इन गाँव वालों के साथ यही मुसीबत है। बस, तरंग में
काम करते हैं ससुरे ! और उस दिन तो बिसू के माँ-बाप को भी साथ बाँधकर ले गया।
सुकुल बाबू का तो उसके घर तक जाना ही बेकार हो गया। दा साहब मज़े से हीरा को
अपनी गाड़ी में बिठाकर लाए, अपने साथ मंच पर बिठाया, उद्घाटन करवाया और आज
फ़ोटो भी छप गई। मरनेवालों के मन में तो ठुक गई मोहर । मारनेवाले को शह दो और
मरनेवाले को हमदर्दी-दोनों हाथों में लड्डू !
लगता है, बिहारी भाई कल लौटे ही नहीं...वरना आते ज़रूर ! असली ख़बर तो उन्हीं
से लगेगी। रेडियो साला कल से दा साहब का भाषण ही गुहार रहा है, जैसे और कोई
ख़बर ही नहीं रह गई दुनिया में ! जन-संचार के साधनों को अपना भोंपू बनाकर रख
दिया। लगता है कि 'मशाल' के दत्ता बाबू को भी अच्छी डोज़ दे दी गई है, अब दा
साहब का कीर्तन ही हुआ करेगा उसमें भी।
सुकुलजी ने बड़ी हसरत-भरी नज़र से उँगली में पड़े नीलम को देखा। पता नहीं, यह
भी सकलवा की क़िस्मत बदलेगा या नहीं ? लगा था जैसे बिसू ने मरकर हरिजनों के
खोए वोट फिर से उनकी झोली में ला पटके हैं...पर अब कल से यही लग रहा है कि वे
भी दा साहब ही झटककर ले गए !
तभी बिहारी भाई प्रकट हुए। उनके चेहरे पर दो दिन की भाग-दौड़ की पस्ती स्पष्ट
उभरी है-साथ ही दा साहब की सभा की कचोट भी। परसों एक तरह से सभा न होने देने
का बीड़ा ही उठाकर गए थे यहाँ से। बीड़ा मुँह का मुँह में ही रह गया !
'क्या समाचार है ?' सोफे पर एक ओर सरककर सुकुल बाबू ने अपने पास ही जगह बना
दी बिहारी भाई के लिए और पूछा, 'काशी नहीं आया ?'
‘पान बनवाने रुक गया है मोड़ पर। आता ही होगा अभी।'
सुकुल बाबू उम्मीद कर रहे थे कि बिहारी भाई खुद ही शुरू करेंगे, पर बिहारी
भाई तो एकदम गुम्म होकर बैठ गए। सुकुल बाबू जानते हैं कि बिहारी भाई की
नाराजगी की अदा है यह। सो खुद ही पूछा, 'सुना बहुत जमकर हुई दा साहब की सभा !
क्या करते रहे तुम लोग ?'
‘झख मार रहे थे...धूल फाँक रहे थे ! गाँव में ख़ाक के सिवाय और रखा भी क्या
है ?' बिहारी भाई के मन में दो दिन से जो गुस्सा बलबला रहा था, सुकुल बाबू के
इस प्रश्न को सुनते ही फूट पड़ा जैसे !
'गाँववालों की ओर से विरोध नहीं हुआ ? उस समय तो लग रहा था कि बडा तनाव है
लोगों में ?'
'खाक विरोध हुआ ! अजीब अहमक हैं ये स्साले देहाती भी। परसों सवेरे से कितना
समझाया...किस-किस तरह तैयार किया, पर दा साहब हीरा के घर चले गए, उसे अपनी
गाड़ी में बिठा लिया तो बस निहाल ! जुलूस बनाकर गाड़ी के पीछे-पीछे ऐसे जा
रहे थे जैसे रामचंद्र जी की सवारी जा रही हो !'
‘अपने आदमियों से वहीं नारे लगवाने शुरू कर देते-कुछ तो माहौल गड़बड़ाता।'
'सो सब वहाँ नहीं हो सकता था। पाँच दिन से काशी यही तो समझा रहे थे कि वहाँ
कोई किसी तरह की गड़बड़ी नहीं करेगा...हुड़दंग नहीं मचाएगा। काली झंडियाँ
लेकर मौन विरोध प्रकट करेंगे...बिलकुल अहिंसात्मक ढंग से।'
काशी की हू-ब-हू नक़ल करते हुए बिहारी भाई ने दोहराया और फिर भभक पड़े,
'गाँधीजी के बाद सिर छिपाने को काशी की धोती में ही तो जगह मिली है बेचारी
अहिंसा को ! हूँ...!' और उन्होंने गुस्से से सिर झटक दिया।
सुकुल बाबू कुछ नहीं बोले। समझ गए कि इस गुस्से का असली कारण ज़रूर बिहारी और
काशी के बीच हुई झड़प है।
‘फिर क्या मालूम था कि दा साहब गाड़ी से उतरते ही सीधे हीरा के घर जाएँगे !
हीरा का घर न हुआ स्साला, कोई देव-स्थान हो गया, जहाँ माथा टेके बिना कोई काम
ही न शुरू होता हो। जैसे-तैसे कुछ आदमियों को मैंने तैयार किया था...सो मंच
के सामने बिठा दिया था जमाकर, वे ही कुछ बोल-बाल लिए।'
तभी मुंह में पान का बीड़ा दबाए और एक हाथ से धोती की लाँग उठाए...पसीने में
सराबोर काशी प्रकट हुए।
मुँह को ऊपर उठाए, पीक को भीतर-ही-भीतर साधे हुए उन्होंने सुकुल बाबू से
पूछा, 'जान लिए हो सब हाल ? बहुत भिनभिना रहे हैं बिहारी भाई...इन्हें थोड़ा
शीतल करो !'
और वे पीक थूकने भीतर चले गए। कुछ देर में रूमाल से मुँह पोंछते हुए लौटे।
शायद वे मुँह धोकर आए थे। कुछ तरोताज़ा लग रहा था उनका चेहरा ! सामने की
कुर्सी पर बैठते हुए बोले, 'हरिजनों के बीच क्रांति करने चले थे सो तो 'मशाल'
वालों के हिसाब से दा साहब ने कर दी। अब अपने लिए कोई और उपाय सोचो।'
काशी के चेहरे पर न तनाव है, न तमतमाहट। बहुत हलके-फुलके ढंग से बात कर रहे
हैं वे, और उनका यह रवैया ही बिहारी भाई को जलाकर खाक किए दे रहा है। बिहारी
भाई के मुक़ाबले काशी का दाँव बहुत नगण्य है इस चुनाव में। शुरू से ही सुकुल
बाबू का साथ दिया है-सो देते रहेंगे...पर बदले में बहुत अपेक्षाएँ न पहले कभी
थीं, न अब हैं ! मस्त-फक्कड़ आदमी हैं...एकदम मौजी ! सुकुल बाबू मुख्यमंत्री
थे तो खूब मौज-मजा करने को मिलता था-चार आदमियों के बीच चौधराहट चलती थी। बस,
इसी में खुश थे वे। पर बिहारी भाई के तो अनेक प्रपंच जुड़े हुए हैं सुकुल
बाबू के भविष्य के साथ। कहना चाहिए कि सारे परिवार का भविष्य ही जुड़ा हुआ है
एक तरह से ! इसीलिए यह चुनाव सुकुल बाबू का कम और उनका अपना ज़्यादा हो गया
है। और यह काशी है कि तमाशा बना रखा है इसको। पर करें क्या, होल्ड तो काशी का
ही है सरोहा पर !
'स्कुल बाबू, भोजन में तो अभी देर होगी...इस बीच कुछ चा-चू तो पिलवा दीजिए।
बिहारी भाई को न हो तो कुछ ठंडा पिलवा दीजिए।'
'अरे हाँ...हाँ !' सुकुल बाबू को जैसे अपनी गलती का अहसास हुआ और उन्होंने
बगल में रखी घंटी बजाई तो नौकर चाय की ट्रे के साथ ही प्रकट हुआ।
'देखो, किशन जानता है कि यह काशी आया है तो चाय तो माँगेगा ही। सुकुल बाबू
भूल जाएँ, किशन नहीं भूलता।'
मंद-मंद मुसकराते हुए किशन ने चाय प्यालों में ढाली और एक-एक सबको पकड़ा
दिया।
काशी ने दोनों टाँगें ऊपर चढ़ाकर कुर्सी पर ही आलथी-पालथी मार ली और चम्मच से
चीनी हिलाते हुए बोले, 'देखो बिहारी भाई, अब इन गाँववालों को बहुत
कोसने-गलियाने से तो कुछ होगा नहीं। जैसे हैं...हैं !' फिर एक घूँट चाय का
सुड़ककर बोले, 'तुमने तो उनके लिए कभी कुछ किया भी नहीं, पर बिसू ने तो जब से
होश सँभाला, इन्हीं के लिए मरता-खपता रहा था। लेकिन पाँच साल पहले जब बिना
वजह पकड़कर उसे जेल में डाल दिया था तो सब साँस खींचकर बैठ गए। तब तो
इमरजेंसी भी नहीं थी, फिर भी किसी ने चूं तक नहीं की !'
फिर दूसरा घूँट सुड़ककर बात जारी रखी, 'इस आगजनी की घटना के बाद एक हफ्ते तक
बिसू से कतराते रहे थे हरिजन टोला के लोग। अपने यहाँ आने को मना कर दिया था।
डरते थे कि ज़ियादा मिलेंगे-जुलेंगे बिसू से तो कौन जाने उन्हें ही जलवा-मरवा
दिया जाए। मेरी तो देखी-जानी है सारी बात !'
तो फिर क्यों सारे दिन आप बखान करते रहते हैं कि क्रांति गाँव से आएगी...गाँव
से आएगी...गरीबों के तबके से आएगी?'
‘सो तो ठीक है। जब सही माहौल बनेगा...स्थितियाँ ठीक ढंग से आकार लेंगी तो
आएगी वहीं से क्रांति... ! यह जमा-खातिर रखो तुम !'
'हुँह !' गरदन झटककर बात को परे झिड़क दिया बिहारी भाई ने।
'अरे तुम्हारी हुँ-हुँ से बात नहीं उड़ेगी, समझे ? क्रांति जब भी आएगी वहीं
से आएगी। हमारे-तुम्हारे किए नहीं होने की क्रांति ! और इन किराये के जुटाए
हुए लौंडे-लपाड़ों से तो कभी भी नहीं !' अंतिम फैसला दे दिया काशी ने।
'रहने दीजिए ! इन लोगों को आज एक पैसे का फ़ायदा दिखाई दे तो कल के लिए पूरी
जिंदगी गिरवी रख देंगे अपनी। ये करेंगे क्रांति !'
बिहारी भाई का तैश और आक्रोश तिल-भर भी नहीं घट रहा है।
‘सो तो है ही !' काशी ने चाय का दूसरा कप भरते हुए कहा, 'तुम्हारी तरह सास्तर
भी नहीं पड़े और जेबें भी नहीं भरी हुई हैं बेचारों की ! जो कौड़ी-कौड़ी को
महताज हो-उसे जहाँ भी दो पैसे दिखेंगे, उधर लपकेगा तो सही।'
'तो फिर ठीक है ! जोरावर के वोट हैं ही दा साहब के, हरिजनों के वोट भी उधर ही
जाते हैं तो फिर यहाँ क्यों मगजपच्ची करने बैठे हैं ? अपने-अपने घर चलकर सोइए
मज़े से...चार साल बाद आँख खोल लेना !' सारी बात का उपसंहार करते हुए बिहारी
भाई ने कहा और शरीर को एकदम ढीला छोड़कर पीठ को सोफे पर टिका दिया। इतनी देर
से सुकुल बाबू चुपचाप ही इन दोनों की बहस सुन रहे थे, अब एकदम भड़क गए,
'क्यों बेकार की छोटी-छोटी बातों पर समय बरबाद कर रहे हो ? यह बताओ कि रैली
की तैयारी कैसी हो रही है ? चार दिन चाहे और ज्यादा ले लो, पर बस यह रैली ऐसी
होनी चाहिए कि तहलका मच जाए। सारे हरिजन और खेत-मज़दूर मौजूद हों
उसमें-औरत-बच्चों के साथ। बहुत ज़रूरी हो गया है यह अब !'
'काशी से कहिए आप...वे ही करेंगे इंतज़ाम !' एक रूठे हुए बच्चे की तरह बिहारी
भाई ने कहा तो ज़ोर से हँस पड़े काशी। हँसते हुए बोले, 'भारी कोप है हम पर
बिहारी भाई का !' फिर ज़रा ठहरकर बोले, 'देखो, सुकुल बाबूं, राजनीति हमारी
विचार-सून्य तो थी ही...इधर कुछ सालों से आचार-सून्य हो गई है। पर राजनीति के
नाम पर यह मारपीट और हुड़दंग मचानेवाली गुंडागर्दी हमारे बस की नहीं है !
साफ़ कहे देते हैं हम !' दोनों हाथ झटककर अपनी स्थिति साफ़ कर दी काशी ने।
‘पिछले चुनाव में तो यही सब किए रहे बिहारी भाई...क्या मिला ? हार और बदनामी
! फिर ?'
'आप तो हफ़्ते-भर से वहाँ जमे हुए थे...और कौन-सी आचारवाली राजनीति की, बताइए
तो सुकुल बाबू को ! दा साहब की सभा का इंतज़ाम करवाते रहे ?'
आहत नहीं हो रहे काशी, बल्कि आनंद ले रहे हैं बिहारी भाई की इन
व्यंग्योक्तियों का। हँसकर बोले, 'अरे, दा साहब की सभा में तो आनेवाले लोग कम
और इंतज़ाम करनेवाले लोग ही ज़्यादा थे...हम क्या इंतज़ाम करते ! पर वहाँ
बैठे थे तो किया कुछ ज़रूर है हमने भी, और ठोस ही किया है !
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