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महाभोज

मन्नू भंडारी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :167
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 13538
आईएसबीएन :9788171198399

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महाभोज विद्रोह का राजनैतिक उपन्यास है


सुकुल बाबू के चेहरे पर स्पष्ट कौतूहल उभर आया और बिहारी भाई चाहकर भी उदासीन नहीं रह सके। पूछा किसी ने कुछ नहीं, पर दोनों की उत्सुक नज़रें काशी के चेहरे पर टिक गईं।

'देखो, जोरावर वाले वोट ही सबसे बड़ी ताक़त हैं दा साहब की। पैंतीस प्रतिशत सालिड वोट ! एक नहीं टूटता इनमें से।'

और क्या, सो तो है ही। इन्हीं के चक्कर में तो इंसानियत को सूली पर चढ़ा रखा है उस गीता के भक्त और बापू की औलाद ने ! पर तुम उसमें क्या कर लोगे ? बचे हुए पैंसठ प्रतिशत वोट दिलवा दोगे अपनी आचारवाली राजनीति से या मूक-विरोध से ?' खीझ और कुढ़न ज़रा भी कम नहीं हुई बिहारी भाई के स्वर में से।

'नऽहीं, उसमें से भी बीस-पच्चीस प्रतिशत तो ले ही जाएँगे दा साहब इस योजना-वोजना के चक्कर में। पर हाँ, इससे ज़ियादा वोट नहीं ले जा पाएँगे इस तबले के, जमा-खातिर रखो तुम... । सो भी बहुत ज़ोर मारा तो। वो इंतज़ाम हम कर दिए हैं !'

और अपने इंतज़ाम से बेहद संतुष्ट होकर उन्होंने डिबिया में से दो पान निकाले और बाएँ गाल में दबा लिए...उँगली से ज़रा-सा चूना भी चाटा।

पैंतीस जमा पच्चीसवाले सीधे-से हिसाब के बाद जमा-खातिर रखने के लिए बचा ही क्या था, सो बिहारी भाई ने शरीर फिर सोफ़े की पीठ के हवाले किया। लेकिन सुकुल बाबू समझ गए कि काशी के पास है ज़रूर कुछ कहने के लिए, पर अपनी आदत के अनुसार कहेगा टँगा-हँगाकर ही ! उन्होंने स्वर में आदेश का पुट घोलते हुए इतना ही कहा, 'काशी !'

हमने जोरावर को तैयार कर लिया है खड़ा होने के लिए आखिरी दिन अपना नामांकन-पत्र भरेगा।'

एक धमाका-सा करके पीक थूकने के लिए काशी भीतर चले गए। सुकुल बाबू और बिहारी भाई अवाक् ! काशी की इस बात पर विश्वास किया जा सकता है भला ? दा साहब के बूते पर जोरावर मनमानी करता है और जोरावर के बूते पर ही दा साहब अपने पाँव के नीचे जमीन महसूस करते हैं। जोरावर विरोध में क्या खड़ा होगा भला ? काशी लौटकर आए तो सुकुल बाबू ने पूछा, 'तुमने तैयार किया खड़ा होने के लिए और हो गया ?'

हो गया !...हम खुद नहीं गए उसके पास...हमने तैयार करवाया !'

‘उसे मालूम नहीं कि इन दो घटनाओं के बाद जान फँसी हुई है उसकी दा साहब की मुट्ठी में !'

'यही तो समझाया उसे कि यहीं रहा तो जिंदगी-भर गलामी करनी पड़ेगी उसे दा साहब की। पैसा भी दो और अँगूठे के नीचे भी रहो। एक बार जीतकर विधानसभा में पहुँच जा, फिर दा साहब को मुट्ठी में रखना। बऽस, बात गले उतर गई उसके। फिर थोड़ा रुककर बोले, 'जाट आदमी है, ऊपर से पैसे ने भेजे में गरमी भर रखी है बुरी तरह। गुलामी करना तो दूर, गुलामी की बात भी रास नहीं आती उसे। फिर दा साहब की इस घरेलूवाली योजना से बहुत भड़का हुआ है। समझवा दिया उसे कि दा साहब जड़ काटने पर लगे हैं। जितना फ़ायदा उठाना था, उठा लिया तेरा।'

हूँ ऽऽ !' पूरी तरह विश्वास न होने पर भी दिमाग आँकडों में उलझ गया सुकुल बाबू का। स्थिति का नया नक़्शा उभरने लगा मन में ! पर बिहारी भाई बिलकुल तटस्थ ही है सारी स्थिति से। न विश्वास जम रहा है, न कोई नक़शा उभर रहा है।

'बस, अब खेत-मज़दूरों और हरिजनों को अपनी तरफ़ करने का काम जोर-शोर से करो। योजना का पैसा सरकार से लें और वोट हमको दें। पिछले चुनाव में जैसा हमारे साथ हुआ, ठीक वैसा ही दा साहब के साथ करवा दो इस बार ! हो भी जाएगा। यह योजना-वोजना ठीक है-बाक़ी बड़ी निराशा है लोगों में बड़े दुखी हैं लोग इस सरकार से !'

लोगों में फैली निराशा की बात से बड़ी आशा जागी सुकुल बाबू के मन में। उत्साहित होकर बोले, 'अब एक ऐसी रैली करवा दो जैसी इस प्रांत के इतिहास में न हुई हो। देखते रह जाएँ दा साहब भी। पैसा पानी की तरह भी बहाना पड़े तो कोई चिंता नहीं।'

'सो काम बिहारी भाई का। पैसा दे-देकर लोग जुटा देंगे ढेरों। आपके समय में इस काम की ट्रेनिंग बहुत अच्छी हुई है इनकी ! किराए के लोगों की सभा-रैलियाँ करवाने में माहिर हैं।'

पहली बार काशी ने भी जमाया बिहारी भाई को तो डपट दिया सुकुल बाबू ने। वे नहीं चाहते कि इन छोटी-छोटी-सी बातों को लेकर किसी तरह का मन-मुटाव हो इस समय। ज़रूरत है इस समय एक होकर और मिलकर काम करने की। बिहारी भाई को बढ़ावा देते हुए बोले, 'हाँ, तो इसमें तो कोई शक नहीं। बिहारी भाई ने वो-वो रैलियाँ और सभाएँ करवाई हैं कि मैं खुद दंग रह गया। आज शाम को पार्टी-मीटिंग है। सबके साथ मिलकर योजना बना डालो और जुट जाओ। वैसे प्रचार तो हो ही रहा है रैली का भी।'

'बिंदा को फोड़ सको तो काम और आसान हो जाए। सुना है, बिसू ने जो प्रमाण जुटाए थे आगजनी की घटना के, वे अब बिंदा के पास हैं। पर हाथ नहीं रखने देता ससुरा किसी को। खुदै भाग-दौड़ कर रहा है इस केस को फिर से खुलवाने की।'

सुकुल बाबू सुन चुके हैं यह सब बात और कोशिश भी करवा चुके हैं भरपूर। बिंदा को तो बहुत आश्वासन भी दिया कि प्रमाण दे दे, वे सब तरह की मदद करवाएँगे...पैसे से भी और दूसरी तरह से भी। विधानसभा में धज्जियाँ बिखरवा देंगे और दिल्ली तक तहलका मचवा देंगे। पर वह तो किसी से सीधे-मुंह बात ही नहीं करता। इसलिए काशी की बात सुनकर इतना ही कहा, 'मूर्ख है...अपना हित-अहित नहीं मालूम उसको।'

'मूर्ख नहीं है।' हँसे काशी-'हाँ, आपका हित ज़रूर नहीं जानता।'

तभी नौकर ने आकर सूचना दी कि खाना तैयार है। सबसे पहले काशी उठे और बिहारी भाई के पीछे जाकर उनके कंधे दबाकर बोले, 'चलो, अब गरमा-गरम भोजन के साथ रैली की बातचीत करते हैं। और कुछ चाहे हमसे न हो...हाँ, एक पोस्टर लेकर जरूर बैठ जाएँगे ट्रक में और रास्ते-भर नारा गुहारते रहेंगे।'

बिहारी भाई की उदासीनता गरम भोजन से टूटी या कि बड़ी गर्मजोशी से हुई रैली की तैयारी की बातचीत से, पर वहाँ से निकलते समय वे भी अपनी पूरी फ़ॉर्म में आ गए थे।

आज सवेरे से ही थाने की बड़े जोर-शोर से सफ़ाई हो रही है। टीन की कर्सियाँ हटाकर लकड़ी की कुर्सियाँ लगाई गई हैं। उन पर गद्दियाँ भी बिछी हुई हैं। दो बेंचें और डाली गई हैं। सजावट के नाम पर दीवार पर दो कैलेंडर टाँगे गए हैं-एक शिव-पार्वती का और दूसरा भारतमाता का। भारतमाता के एक ओर चरखा कातते हुए गाँधीजी हैं और दूसरी ओर तिरंगा लिए जवाहरलाल । गाँधी-नेहरू को देश एक क्षण के लिए भी नहीं भूलता ! चप्पे-चप्पे में वे आपको विराजमान मिलेंगे, चाहे निर्जीव तसवीरों के रूप में ही सही। थानेदार से लेकर चौकी तक-सबकी कलफ़ लगी वर्दियाँ निकल आई हैं। वर्दी में लगे पोतन के बटन और बकसुए ब्रासो लगाकर चमकाए गए हैं। सब एकदम लक़दक़, चुस्त-दुरुस्त।

वैसे तो थाने के नाम पर है ही क्या ? एक बरामदा, कोठरीनुमा दो छोटे-छोटे कमरे। पीछे कच्चा आँगन है, जिसके दूसरे सिरे पर सुरंगनमा एक पतली लंबी-सी कोठरी है-अँधेरे, सीलन और बदबू से भरी हुई। तीस गाँवों की शांति-सुरक्षा का भार इसी थाने पर है। तीसों गाँवों में अमन-चैन रहे, इसलिए गड़बड़ फैलाने वाले तत्त्व बीस-पच्चीस की संख्या में हमेशा इस सुरंग में बंद रहते हैं। वे भीतर गाने गाते हैं...गाली-गलौज करते हैं...जुआ खेलते समय झगड़ा हो जाने पर खुलकर मार-पीट भी करते हैं। पर आज सबको सख्त हिदायत कर दी गई है कि किसी तरह का कोई शोर नहीं होगा। जो भी बोलेगा, रात को बेंत से उसकी धुनाई होगी।

थाने के सामने जो कच्चा अहाता है, वहाँ बाल्टी भर-भरकर पानी का छिड़काव कर दिया गया है, जिससे धूल जम जाए, वरना जून की इस गर्मी में सारे दिन धूल-धक्कड़ ही तो उड़ता रहता है। यहाँ के लोगों को तो आदत है, पर शहर के लोगों को तो परेशानी हो ही सकती है।

दा साहब के खास आदेश पर एस.पी. सक्सेना आ रहे हैं। खास कचहरी बैठेगी। शायद दो-तीन दिन लग जाएँ। सबके बयान होंगे फिर से। गाँव में खासी चर्चा है इस बात की। दा साहब कहकर गए थे कि वे बयान लेने के लिए किसी बड़े अफ़सर का भेजेंगे। अब जिसको जो कहना हो कहे, डरने की कोई बात नहीं। सबकी बात सुनी जाएगी और उस पर गौर किया जाएगा ! एस.पी. कोई मामूली आदमी नहीं, बहुत-बहुत बड़ा अफ़सर होता है पुलिस का। बड़े अफ़सर की नज़र भी बड़ी पैनी ही होती होगी...सब भाँप लेगा। अब बिसू की मौत की असलियत का पता लगेगा ! पहले की तरह बात गोल-मोल होकर नहीं रहेगी। पहले ऐसी ख़ास कचहरी बैठी ही कब थी ? इस बार तो दा साहब ने खुद आदेश दिया है। बात के सच्चे निकले दा साहब। यह नहीं कि कहने को तो कह दिया और बात आई-गई हो गई। कहा तो करके भी दिखा दिया। लोगों के मन में बड़ा आदर जाग रहा है दा साहब के लिए। वरना गरीब के लिए कौन इतना सोचता है ?

आज जिन लोगों के बयान होने हैं, उनके पास थानेदार ने पहले से ही सूचना भिजवा दी है। जोगेसर साहू, महेश बाबू, हीरा और बिंदा के बयान होंगे आज। महेश बाबू तो पढ़े-लिखे आदमी हैं...बात को और बात की अहमियत को समझते हैं। वैसे बयानबाज़ी के इस झमेले में वे बिलकुल नहीं पड़ना चाहते थे, पर बिसू रोज़ उनके यहाँ बैठता था, घंटों उनसे बतियाता था, सो पूछताछ तो उनसे होनी ही थी। थानेदार को भरोसा है कि चाहे अनखाते हुए ही आएँ, पर वे समय पर पहुँच ज़रूर जाएँगे। बाक़ी तीनों को ठोंक-बजाकर कह दिया है कि आठ बजे ही थाने पर पहुँच जाएँ ! इस ख़ास कचहरी में गाँववालों की बेशुमार दिलचस्पी देखकर सख्त हिदायत कर दी गई थी सबको, कि भीड़ नहीं लगनी है थाने के पास। यह कोई नौटंकी का तमाशा नहीं कि जिसे देखो मुँह उठाए देखने चला आ रहा है। पर इन गाँववालों को लाख समझाओ, भेजे में घुसती ही नहीं कोई बात ! आठ बजते-बजते हीरा और जोगेसर के साथ बीस-पच्चीस लोग आ ही गए। थानेदार ने झिड़का तो बोले, 'यहाँ दूर बैठे रहेंगे, सरकार...बैठने दो।' और वे थाने

से दूर खुले मैदान में एक घने पेड़ की छाया में झंड बनाकर बैठ गए।

कोई और मौक़ा होता तो धकिया देता थानेदार, पर आज गम खा गया। ऊपर से आदेश आया हुआ है...किसी के साथ किसी तरह की कोई सख्ती न बरती जाए। ठीक है, उसका क्या है...वह कुछ भी करेगा-कहेगा नहीं। इन देहातियों से पाला पड़ेगा तो एक ही दिन में पता लग जाएगा। शहरी लोग भले ही नरमी से काबू में आ जाते हों-पर ये देहाती भुच्च ? डंडे के बिना कोई रास्ते पर ला सकता है इन्हें भला ? अब इस बिंदा को ही देखो-अभी तक पता नहीं है साले का। अजीब सिरफिरा है यह आदमी। देहात का आदमी जब एक बार शहर की हवा खा लेता है तो फिर बिलकुल लाटसाहब ही समझने लगता है अपने को। मेरी तो किरकिरी करवाकर रख देगा। थानेदार के हुकुम पर आदमी आए नहीं...थानेदार हुआ या स्साला...खैर छोड़ो, मेरा क्या है ? सख्ती का हुकुम होता तो मुश्के बँधवाकर ले आता उस हरामी को। अब नरमी से बुलाएँ एस.पी. साहब खुद।

दो बार आए हुए लोगों को आगाह कर चुका है थानेदार, पर जैसे भरोसा नहीं हो रहा। तसल्ली नहीं हो रही तो एक बार फिर गया और सख्त हिदायत कर दी- जैसे ही एस.पी. साहब की जीप अहाते में घुसे बतकही एकदम बंद। बिलकुल चुप। जिसका बयान होना है, वही भीतर आएगा और एकदम इकल्ला। बाक़ी लोग यहाँ से हिलोगे भी नहीं, समझे ? यह नहीं कि भीतर तो बयान हो रहा है और बरामदे में झुंड बनाकर, मुंडियाँ निकाल-निकालकर ताक-झाँक कर रहे हैं। सऊर तुम लोगों को जिंदगी-भर नहीं आने का ! पर समझ लो, एस.पी. साहब के सामने देहाती मामला नहीं चलने का है। जो पूछे उसी का जवाब देना...इधर-उधर की फ़ालतू बात एकदम नहीं।'

एस.पी. के सामने फिर से बयान देना होगा, जब से यह सुना, जोगेसर साहू का दिल तो तभी से धकधक कर रहा था। थानेदार की बार-बार की हिदायतों से उसे लगने लगा जैसे उसके दिल की धड़कन ही बंद हो जाएगी। जिंदगी में कभी तो थाना-पुलिस का काम नहीं पड़ा और आज सीधे एस.पी. के सामने ही खड़ा होना पड़ रहा है। बैठे-बिठाए

कहाँ की मुसीबत गले आ पड़ी ! पता नहीं किस बुरी साइत में बिसू की लाश देख ली !

तभी जीप की आवाज़ सुनाई दी। थानेदार एकदम अटेंशन की मुद्रा में खड़ा हो गया। एस.पी. साहब के उतरते ही एक कड़कदार थानेदारी सैल्यूट मारा। एस.पी. के साथ तीन कांस्टेबल भी आए हैं। सक्सेना ने माहौल को भाँपते हए चारों ओर एक नज़र दौड़ाई। नहीं, किसी तरह के तनाव या सरगर्मी की गंध तो नहीं है हवा में। दूर बैठी भीड को देखकर पूछा, 'क्या इतने लोगों के बयान होने हैं आज ?'

'नहीं सर, बयान तो केवल चार लोगों के ही होने हैं।' फिर ज़रा हिचकिचाते हुए कहा, 'तमाशबीनों को जुटने के लिए सख्ती से मना कर दिया था, पर ये देहाती लोग हैं न सर...।'

'हूँ।' सक्सेना ने वाक्य पूरा नहीं करने दिया थानेदार को।

सक्सेना के साथ आए कांस्टेबल ने जीप से फ़ाइलें निकालकर अंदर मेज़ पर जमा दीं और थानेदार बहुत अदब के साथ सक्सेना को भीतर ले आया। भीतर एक कोने में चाय का सारा इंतज़ाम था। बहुत क़ायदेवाला टी-सेट, साथ में बिस्कुट और नमकीन तथा मिठाई। सक्सेना जब बैठ गए तो थानेदार ने झुककर बहुत अदब से पूछा, 'पहले थोड़ा चाय-पानी हो जाए, सर ?'

'इस समय ? यह काम का समय है या चाय-पानी का ?' सक्सेना के तेवर से भीतर-ही-भीतर सकपका गया थानेदार।

'जिनके बयान होने हैं, वे लोग आ गए सब ? तब काम शुरू किया जाए !'

सर, और सब तो आ गए पर वो बिंदा है न...,' थोड़ा हकलाने-सा लगा थानेदार, 'वो...वो...क्या बताऊँ सर, बहुत ही सिरफिरा आदमी है। दो बार आदमी भेजकर कहलवा दिया था, पर नहीं आया।'

'हूँ।'

‘आप हुकुम करें तो पकड़वाकर मँगवा लें। खेत पर मिल जाएगा अपने। वो तो सख़्ती न करने का हुकुम था वरना...।'

'किसी के साथ किसी भी तरह की सख्ती नहीं बरती जाएगी...

समझे ?' सक्सेना ने बहुत ही ठंडे लहजे में आदेश को एक बार फिर दोहरा दिया। उनके अपने भेजे में दा साहब का आदेश चिपका हुआ था- देखो सक्सेना, किसी के साथ ज़ोर-ज़बरदस्ती या सख्ती न हो। मिठास से पेश आओ... लोगों में हिम्मत और हौसला जगे और वे अपनी बात कहें...बिना डर के कहें...खुलकर कहें। गाँववालों को लगना चाहिए कि उन्हें बोलने का पूरा मौक़ा मिला है। बहुत तसल्ली होती है अगर बात कहने का मौक़ा मिले तो। और हमें लोगों का विश्वास जीतना है।'

और सक्सेना ने भी तय कर लिया है कि मिठास से पेश आएगा और विश्वास जीतकर ही जाएगा।

'जोगेसर साहू को बुलाओ।' आदेश के साथ ही चौकीदार नाम गुहारता हुआ बुलाने चला गया।

थोड़ी देर में जोगेसर साहू थरथराता हुआ भीतर घुसा और काँपते हाथों से ही उसने नमस्कार किया।

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