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महाभोज

मन्नू भंडारी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :167
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 13538
आईएसबीएन :9788171198399

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महाभोज विद्रोह का राजनैतिक उपन्यास है


काम करनेवाले को भरपूर श्रेय तो देते ही हैं, मौक़ा आने पर यथासंभव पारिश्रमिक देने में भी नहीं चूकते दा साहब !

सुकुल बाबू की मीटिंग बर्खास्त होने का धूल-धक्कड़ अभी बैठा भी नहीं था कि गाँव में नई चहल-पहल शुरू हो गई। दूसरे दिन सवेरे से ही गली-गली और घर-घर की दीवारों पर घरेलू-उद्योग-योजना के पोस्टर चिपकने लगे और शाम तक यह स्थिति हो गई कि जिधर नज़र उठाओ, मुस्कराते हुए दा साहब और नीचे योजना की रूपरेखा-मानो उनकी मुसकान से ही बहकर निकल रही है योजना ! पाँच-सात स्वयंसेवक क़िस्म के लोग घर-घर जाकर विस्तार से इस योजना के बारे में समझा रहे हैं, फ़ार्म भरवा रहे हैं और साथ ही यह बताना भी नहीं भूलते कि 15 तारीख़ को मुख्यमंत्री स्वयं आ रहे हैं इस योजना का उद्घाटन करने। दो कमरों के एक छोटे-से घर में जो अस्थायी दफ़्तर बना है-वहाँ सवेरे से शाम तक ताँता लग रहा है लोगों का ! जिस मुस्तैदी से काम हो रहा है उससे तो लगता है कि हफ़्ता बीतते-न-बीतते हर घर में छोटा-मोटा उद्योग खुल जाएगा और देखते-देखते यह गाँव सदियों के दलिद्दर से मुक्ति पा जाएगा।

चंद दिनों में ही गाँव का सारा माहौल बदल दिया है इस योजना ने। लोगों की बातचीत का भी विषय यही, सोच का विषय भी यही।

हाँ, गाँव में एक दल ऐसे लोगों का भी आया है जो सरेआम इस योजना की चिंदियाँ बिखेरकर लोगों को आगाह कर रहा है और बिसू की मौत को भरसक जिंदा रखने की कोशिश कर रहा है। बिसू मर गया, कोई बात नहीं, पर बिसू की मौत का प्रसंग मर गया और इस समय, तो वे कैसे जिंदा रहेंगे ? अजीब रस्साकशी हुई है गाँव में।

और आज तो यह रस्साकशी अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच गई। मुख्यमंत्री दा साहब आ रहे हैं गाँव में। एक तरफ़ उनके स्वागत की तैयारियाँ हो रही हैं जोर-शोर से। सादगी-पसंद दा साहब की सख्त हिदायत के कारण किसी तरह का कोई ताम-झाम तो नहीं है, पर हाँ, उत्साह भरपूर है और चारों ओर उत्साह फैलाने का प्रयत्न भी भरपूर है। गाँव में नए चेहरों की बाढ़-सी आ गई है। काफ़ी संख्या में पुलिस भी उतर आई है-कुछ सरकारी वर्दी में, कुछ सादा वर्दी में। सुकुल बाबू के भाषण वाले दिन से दुगुनी गहमागहमी है आज। स्वाभाविक भी है। कुर्सी से उतरे हुए मंत्री और कुर्सी पर बैठे हुए मंत्री में कितना अंतर होता है ! दूसरी तरफ़ काली झंडियों और बड़े-बड़े पोस्टरों का अंबार लगा हुआ है, जिनमें आगजनी और बिसू की मौत का जवाब माँगते हुए बड़े तेज़ और तीखे नारे लिखे हुए हैं। गाँव के अधिकतर लोगों के लिए यह सारा तमाशा जुम्मन पहलवान के अखाड़े में होनेवाली कबड्डी से कम दिलचस्प नहीं।

ठीक समय से कुछ पहले ही दा साहब की गाड़ी आ पहुँची। आगे-पीछे और गाड़ियाँ भी हैं। पर सीधे मंच की तरफ़ नहीं बढ़ी दा साहब की गाड़ी, पहले पहुँची बिसू के घर। साथ आए लोग अजीब असमंजस में। निर्धारित कार्यक्रम में तो यह सब था ही नहीं। पर जो उन्हें निकट से जानते हैं उन्हें कोई आश्चर्य नहीं होता ऐसी बातों से। वे जानते हैं कि दा साहब का इंसानियती तक़ाज़ा हमेशा निर्धारित कार्यक्रमों को इसी तरह तोड़ता-मरोड़ता रहता है। गाड़ी नहीं जा सकती घर तक, इसीलिए कहा गया कि हीरा को यहीं ले आते हैं, पर दा साहब ने बात अनसुनी कर दी। गाड़ी से उतरे और सीधे क़दमों से आगे बढ़ लिए। साथ आया अमला और कुछ वहीं के लोगों की अच्छी-खासी भीड़ भी साथ हो ली।

दा साहब पहुँचें उसके पहले ही लोग जाकर हीरा को निकाल लाए। बेचारा एकदम भौंचक-सा। समझ नहीं पा रहा था कि क्या कहे, क्या करे ! दा साहब ने सहानुभूति से पीठ पर हाथ रखा तो बस, दो बूंद आँसू आँखों से चू कर झुर्रियों में समा गए।

'बहुत अफ़सोस हुआ बिसेसर का, पर अब हौसला रखो।' दा साहब ने बहुत धीमे-से कहा और हीरा को उसी तरह कंधे से थामे गाड़ी की ओर ले चले।

गाड़ी तक आकर हीरा बेचारा हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। कहा उसने कुछ नहीं, पर बेतरह कातर, बेहद कृतज्ञ हो आया था वह। दा साहब खुद उसके घर आएँ ऐसा मान तो न उसे जीवन में कभी मिला, न आगे ही कभी मिलेगा। लेकिन जब दा साहब ने उसे गाड़ी में बैठने को कहा तो एकदम हकबका गया। जिंदगी में कब नसीब हुआ है उसे गाड़ी में बैठना और वह भी दा साहब की गाड़ी में ! न ना करते बन रहा था, न बैठते बन रहा था। पर दा साहब ने कंधा पकड़े-पकड़े एक तरह से भीतर की ओर ठेल ही दिया। बेहद सकुचाते हुए, सिमटकर एक कोने में बैठ गया बेचारा-बगल में दा साहब।

गाँव की भीड़ बड़ी हुलसकर देख रही है यह सब दृश्य। दा साहब के इस बड़प्पन के आगे सभी नतमस्तक हो आए हैं। बड़े-बूढों को तो शबरी और निषाद की कथाएँ याद हो आईं। किसी-किसी को ईर्ष्या भी हो रही है हीरा से। बेटे तो जाने कितनों के मरते हैं-पर ऐसा मान ?

मंच पर भी हीरा को अपने साथ ही ले गए दा साहब। पांडेजी खुद बड़े असमंजस में पड़े हुए हैं इस सबसे। दा साहब ने खुद हिदायत दी थी कि गाँव में उनके आगमन और भाषण का प्रचार घरेलू-उद्योग-योजना के साथ जोड़कर ही किया जाए। बिसू की मौत और चुनाव की बात को इतनी अहमियत न दी जाए। लेकिन अब ?

इधर दर्शकों की भीड़ में काली झंडियाँ और पोस्टर लिए जो लोग बैठे हैं, वे लोग भी बिसू का नाम लेकर ही नारे लगा रहे हैं। नारों से विरोध का माहौल तो ख़ास नहीं बन रहा, पर बिसू का नाम रह-रहकर हवा में ज़रूर गूंज रहा है। पिछले पाँच दिनों से पांडेजी ने रात-दिन एक करके एक ही काम किया था-सुकुल बाबू के सारे पोस्टरों के ऊपर दा साहब के पोस्टर चिपकवा दिए और घर-घर में बिसू की मौत की जगह घरेलू-उद्योग-योजना की चर्चा चलवा दी। लेकिन इस बदले माहौल में वे अपनी बात कहाँ से और किससे शुरू करें? पांडेजी का संकट शायद समझ गए दा साहब और उबार भी दिया उन्हें तुरंत ! आरंभिक औपचारिकताओं को पूरा करने का मौक़ा दिए बिना ही उन्होंने माइक सँभाल लिया और सीधे श्रोताओं को संबोधित किया-

'मेरे भाइयो,

'आज एक बहुत ही खेदजनक मौक़े पर...एक दुख के मौके पर आया हूँ मैं आप लोगों के बीच। चलने लगा तो लोगों ने सलाह दी कि सुरक्षा का विशेष प्रबंध करके चलूँ। बात में कुछ समझा नहीं। अपने भाई-बंदों के बीच आकर तो आदमी वैसे ही सुरक्षित रहता है...यह अतिरिक्त सुरक्षा कैसी ? क्यों ?'

दा साहब एक क्षण रुके और भीड़ पर एक सरसरी नज़र डाली।

‘बताया गया कि आप लोग बहुत नाराज़ हैं। सुना तो लगा कि तब तो और भी ज़रूरी है कि अकेले ही जाऊँ। आप लोगों की नाराजगी मुझ पर है तो मुझे ही झेलनी चाहिए और अकेले ही झेलनी चाहिए। दूसरों को इसमें साझीदार बनाना तो दूसरों के साथ अन्याय होगा। कुछ समय पहले आप लोगों ने अपना प्यार और विश्वास दिया था मुझे। मैंने सिर-आँखों पर ही लिया था उसे। आज यदि आप अपनी नाराजगी देंगे तो उसे भी सिर-आँखों पर ही लूँगा। मेरी गलती पर नाराज़ होना आपका अधिकार है और उसे झेलना मेरा कर्त्तव्य।'

दा साहब चुप और सारा मजमा शांत ! हाँ, सामने की ओर बैठे कुछ नौजवानों के बीच थोड़ी-सी सुरसुराहट हुई और वहीं डूब गई।

‘मालूम हुआ कि बिसेसर की मौत को लेकर बड़ा तनाव है आप लोगों में। होता तो मुझे ताज्जुब नहीं होता, पर देख रहा हूँ कि ऐसा कुछ है नहीं। तनाव गाँव में नहीं है, काली झंडियों पर सवार कराके बाहर से लाया गया है। पर मेरी प्रार्थना है आपसे, मत ओढ़िए इस वाहरी तनाव को। मैं जानता हूँ कि बिसू की मौत को लेकर तरह-तरह के संदेह उठे हैं आपके मन में। स्वाभाविक भी है। और इसीलिए मैंने डी.आई.जी. को सख्त हिदायत दी थी कि वे खुद सारे बयानों को देखें और खूब गौर से देखें। देखा उन्होंने, और उनके हिसाब से बात बहुत साफ़ है।'

एक क्षण रुके दा साहब, मानो अगला वाक्य तौल रहे हैं। फिर बड़े सहज ढंग से बोले, 'जितने भी संकेत मिले हैं इस घटना के, सब यही बता रहे हैं कि बिसेसर ने आत्महत्या की है।' दा साहब का लहजा रहस्योद्घाटन की तर्ज का नहीं था, पर भीड़ में इसकी प्रतिक्रिया कुछ इस तरह की हुई।

'झूठ है...झूठ है...यह सरासर हत्या है।' सामने बैठे नौजवानों में से एक खड़ा होकर चिल्लाया। वाक़ी लोगों में भी खलबली-सी मच गई।

सादी वर्दी में पास खड़े पुलिस के कुछ लोग हवा में हाथ भाँज-भाँजकर उन्हें चुप कराने लगे।

'नहीं, नहीं, कोई रोके नहीं। बोलने दो।' दा साहब ने माइक के डंडे को हाथ में थामकर आवाज़ में बुलंदी और थोड़ी कड़क घोलकर आदेश दिया। 'बोलने का, और खुलकर बोलने का हक़ सबको है। जिस हक़ को दिलाने के लिए हमने इतना संघर्ष किया...जेलें काटी...उसे अब हम ही छीन लें ? बहुत बड़ा अन्याय होगा यह।' फिर उन्हीं नौजवानों को संबोधित करके कहा, 'आप लोग इस गाँव के तो नहीं लगते। फिर भी बोलिए, आपके मन में जो कुछ है, खुलकर कहिए।'

एक क्षण को ज़रूर सन्नाटा रहा, फिर एक नौजवान ने कहा, 'बिसेसर को मारा गया है...हत्या हुई है उसकी।'

'प्रमाण है आपके पास ?'

दा साहब ने पूछा तो नौजवान चुप। मुसकराए दा साहब, 'नहीं है न ! खैर, फिर भी मैं चाहता हूँ अगर हत्या हुई है तो सामने आएगी बात। असलियत छिप नहीं सकती। और अब तो मैं भी नजर गड़ाए बैठा हूँ। मैंने डी.आई.जी. से कह दिया है कि किसी बड़े अफ़सर का भेजकर फिर से बयान लें आप लोगों के। भेजेंगे वे किसी को। इस बार आप खुलकर अपनी बात कहिए...प्रमाण जुटाने में मदद कीजिए पुलिस की।'

अभी कुछ देर पहले ही आया एक नौजवान...जो मज़मे के किनारे अलग-थलग-सा ही खड़ा था, एकाएक सामने आया और दा साहब को संबोधित करके ज़ोर से बोला, 'अरे दा साहब, काहे यह नौटंकी कर रहे हो यहाँ ? हरिजनों को जिंदा जला दिया गया और आपकी सरकार और आपकी पुलिस तमाशा देखती रही और महीने-भर से खुद तमाशा कर रही है। हुआ आज तक कुछ ?'

मंच पर बैठे लोगों की गरदनें आगे को निकल आईं। 'बिंदा आ गया...बिंदा आ गया' और 'निकालो इसे यहाँ से, हरामखोर कहीं का' की मिली-जुली आवाजों ने माहौल में थोड़ी-सी हरारत पैदा कर दी। काली झंडियाँ थामे लोगों ने भी दो-चार नारे हवा में उछाल दिए। पर दा साहब की बुलंद आवाज़ ने सारे शोर को चाक कर दिया। 'गलत नहीं कहते हो, मेरे भाई। आपके मन में जो गुस्सा है, बहुत सही है। अन्याय के लिए क्रोध होगा तभी तो अन्याय मिटेगा, पर बात केवल गुस्सा करने से नहीं बनती...उसके लिए हिम्मत जुटानी पड़ती है। एक आदमी नहीं मिला गाँव में गवाही देने या शिनाख्त करने के लिए !'

'कौन देगा... गवाही...मरना है किसी को शिनाख्त करके ? चार दिन यहाँ आकर रह लीजिए... पता चल जाएगा कि कैसा आतंक है !'

दा साहब ने बात बीच में ही से तोड़कर अपने ज़िम्मे कर ली, 'ठीक कहते हैं आप। केवल गाँव की ही नहीं, पूरे देश की यही हालत हो गई थी। आतंक ने गले दबा रखे थे सबके...कोई भी चूँ नहीं कर सकता था। हम लोग शुरू से यही तो कोशिश कर रहे हैं कि लोग दहशत से मुक्त हों...निडर बनें...खुलकर अपनी बात कहें। पर अभी भी जैसे लोगों में डर है। सही बात कहने का साहस नहीं जुटा पाते।'

क्षणिक विराम। 'और अब प्रमाण के बिना पुलिस भी करे तो क्या करे ?'

'प्रमाण की ऐसी की तैसी। कौन नहीं जानता कि आग किसने लगवाई ? आप नहीं जानते ? फिर पकड़वाते क्यों नहीं...अभी किसी गरीब का मामला होता तो पीसकर रख दिया जाता बेचारे को।'

बिंदा की तैश-भरी बात से मंच और मजमे-दोनों में फिर खलबली मच गई। पर दा साहब इस बार भी बड़ी सौम्यता और धैर्य से झेल गए वार को। आवाज़ में लेशमात्र भी आवेश लाए बिना, समझाने के लहजे में बोले, 'नहीं भाई, नहीं। यह गरीब-अमीर का मामला नहीं, क़ानून का मामला है। और क़ानून हाथ में लेने का लालच मत दो। क़ानून हाथ में लेते ही आदमी वेताज का बादशाह हो जाता है। आप लोगों ने तो भोगा है उस वादशाह को। जब जिसकी मर्जी आई उटाया और जेल में। कोई मुक़दमा नहीं, कोई सुनवाई नहीं, कोई फैसला नहीं.... कोई सज़ा नहीं। क़ानून क़ब्जे में, पुलिस चंगुल में, जिसको चाहो उठाओ-जिसको चाहो पटको।'

'पुरानी बातों से बहकाइए मत। बिसू की मौत का हिसाब लेकर ही रहूँगा मैं आपसे...पाई-पाई का हिसाब। बिंदा डरेगा भी नहीं...चुप भी नहीं रहेगा और बिकेगा भी नहीं इन टुकड़ों से, जो आप डालने आए हैं।'

सादी वर्दी वाली पुलिस और दो-तीन लठैत बिलकुल सिमट आए बिंदा के पास। पर इसके पहले कि उसे पकड़कर बिठाने की कोशिश करते, दा साहब ने अपनी बात से ही बरज दिया।

'बहुत अच्छा लग रहा है आपका यह जोश और मैं क़दर करता हूँ ऐसे जोश की। लेकिन मैं बहका नहीं रहा। दूर क्यों जाते हैं ? जिस बिसेसर को लेकर आपके मन में इतना रोष है, उसे क्या इसी तरह जेल में नहीं डाला गया था ? एक-दो दिन के लिए भी नहीं, पूरे चार साल के लिए। और केवल डाला ही नहीं, भयंकर यातनाएँ भी दी गई थीं। इस बात को मुझसे ज्यादा अच्छी तरह तो आप लोग जानते हैं।'

भीड़ में यहाँ से वहाँ तक चुप्पी। बिंदा दा साहब का मुंह देख रहा था और भीड़ बिंदा का मुंह देख रही थी। यह माहौल टूटे उसके पहले ही दा साहब ने अपनी बात शुरू कर दी, 'सुकुल बाबू आप लोगों के पास हमदर्दी जताने और बिसू की मौत का बदला लेने आए थे। पूछा नहीं आप लोगों ने कि क्यों साहब, आपके राज में बिना कोई कारण बताए...बिना मुक़दमा चलाए इस बिसेसर को जेल में क्यों डाल दिया गया था ? पूछना चाहिए था। बिसेसर तो बड़ा नेक और भला आदमी था।

चुप्पी स्तब्धता में बदलने लगी।

‘बात एक अकेले बिसेसर की नहीं। ऐसे हज़ारों नेक और भले बिसेसर जेलों में ट्रंस दिए गए थे। हम लोगों ने जब उन्हें छोड़ा तो एकदम पस्त ? सारी जीवनी-शक्ति ही निचुड़ गई हो जैसे। कुछ भी झेलने-सहने लायक़ नहीं छोड़ा उन्हें। इसकी आत्महत्या के पीछे यह भी एक कारण है।'

दा साहब थोड़ा रुके। मज़मे को अपनी मुट्ठी में कर लेने का श्रम और संतोष-दोनों एक साथ उनके चेहरे में झलक रहे थे। अब बात को हलका-सा मोड़ दिया उन्होंने।

'समझदार आदमी हैं सुकुल बाबू...मैं उनका आदर करता हूँ। पर उनका यह रवैया आपस में द्वेष फैलानेवाला है। मैं ठीक नहीं समझता इसे। लेकिन स्वार्थ कभी-कभी आदमी को ऐसी अविवेकी बात करने के लिए उकसाता है।

क्षणिक विराम।

'इस बार तो देख लिया सबने कि जनता की एकता में बड़ा ज़ोर है। तूफ़ानी जोर। तूफ़ान आता है तो बड़े-बड़े पेड़ों को जड़ सहित उखाड़ फेंकता है। जनता एक होती है तो बड़े-बड़े राज्य उलट देती है। फिंका हुआ आदमी ही इस बात को सबसे ज़्यादा महसूस करता है। कुर्सी पर बैठना है तो जनता में फूट डालो...कुर्सी बचानी है तो जनता में फूट डालो। जनता की एकता-कुर्सी के लिए सबसे बड़ा ख़तरा है। समझ रहे हैं न आप लोग मेरी बात ? आप लोग खुद...।'

अचानक दा साहब की बात को बीच में ही काटकर बिंदा चिल्लाया, 'तीस साल से आप लोगों की बातें ही तो सुनते-समझते आ रहे हैं। क्या हुआ आज तक ? पेट भरने के लिए अन्न नहीं, आपकी बातें... ख़ाली...बातें ! जैसे सुकुल बाबू, तैसे आप।'

तड़ाक् से उसने एक ओर थूका और मज़मे की स्तब्धता को चीरकर दनदनाता हुआ एक ओर चला गया। चारों ओर खलबली मच गई।

काली झंडीवाले लोग मौक़ा देखकर नारे लगाने लगे। पांडेजी ने माइक सँभाला और लोगों को शांत करने लगे। थोड़ी-सी स्थिति सँभली तो दा साहब ने माइक सँभाला।

‘बहुत क्रोध और साहस है इस नौजवान में। मुझे बहुत अच्छा लगा है इसका यह तेवर। जिस गाँव के नौजवानों में यह गुण हो...वहाँ किसी तरह का ज़ोर-जुलुम और अन्याय नहीं चल सकता। अपने गरीव भाइयों का हमदर्द लगता है। मुझे तो ऐसे निर्भीक और उत्साही नवयुवकों की आवश्यकता है इस योजना के लिए। चाहता हूँ कि घरेलू-उद्योग-योजना को आप लोग ही सँभालें, आप लोग ही चलाएँ। कितना बड़ा सपना था बापू का कि हमारा हर गाँव और हर ग्रामीण आर्थिक रूप से स्वतंत्र बने...समर्थ बने। आज इस सपने की दिशा में पहला क़दम बढ़ाया है, पर पूरा तो यह आप लोगों की मदद...आप लोगों के सहयोग से ही होगा। मैंने पहल कर दी...पूरा आप कीजिए।'

फिर हीरा की ओर देखकर बोले, 'इस योजना के उद्घाटन के लिए बिसेसर के बाबा से अधिक सही आदमी और कौन हो सकता है भला ?'

पांडेजी बेचारे फिर भौंचक। उद्घाटन तो दा साहब को करना था। पर साथ ही दा साहब की सूझ-बूझ पर मुग्ध भी। बात पूरी की दा साहब ने, 'गरीबों का हितैषी था बिसेसर। उसकी आत्मा को बड़ी शांति मिलेगी इससे।'

'शांति तो तब मिलेगी जब असली हत्यारे को पकड़वाएँगे आप... आगजनी के असली मुजरिम को सूली पर चढ़वाएँगे।'

क्षोभ और क्रोध में डूबा हुआ एक स्वर भीड़ में से आया। बोलनेवाला साफ़ दिखाई तो नहीं दिया, पर जिधर से आवाज़ आई थी उसी दिशा को संबोधित करके कहा दा साहब ने, 'मैंने कहा न कि आप मदद कीजिए पकड़वाने में। जाते ही मैं किसी बड़े अफ़सर को भेजूंगा बयान लेने के लिए। चूकिए मत इस बार...नहीं तो दोषी मैं नहीं, आप खुद होंगे।'

पहली बार हलके-से क्रोध का पुट उभर आया था दा साहब के स्वर में। पांडेजी ने जल्दी से माइक थामकर सभा-समाप्ति की घोषणा कर दी।

सभा बर्खास्त हुई। काली झंडीवाले लोग फिर नारे लगाने लगे, 'झूठे आश्वासन नहीं चाहिए...नहीं चाहिए। बिसू की मौत का जवाब चाहिए।' पर नारों की आवाज़ चारों ओर के कोलाहल में डूब-सी गई। पांडेजी, दा साहब और हीरा एक ट्रैक्टर में बैठकर जुलूस की शक्ल में घरेलू-उद्योग-योजना के दफ़्तर तक गए। मुख्यमंत्री के फंड से निकाले हुए पचास हजार रुपए का एक चैक हीरा के हाथों से अस्थायी दफ़्तर के एक अस्थायी अधिकारी को दिलवाया गया। पांडेजी ने अपने छोटे-से भाषण में यह बात साफ़ कर दी कि विधान सभा में इस योजना के लिए बजट जब पास होगा, होगा। अभी तो दा साहब ने अपने फंड में से रुपया निकालकर योजना का शुभारंभ कर दिया है।

तालियाँ बजी...हर्षध्वनि हुई और ‘दा साहब जिंदाबाद' के नारों से सारा माहौल गूंज उठा।

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