रहस्य-रोमांच >> घर का भेदी घर का भेदीसुरेन्द्र मोहन पाठक
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अखबार वाला या ब्लैकमेलर?
तब संचिता ने भी बैचेनी से पहलू बदला। उसने कुछ कहने के लिये मुंह खोला, बहन
के रौद्ररूप को देखा और फिर होंठ भींच लिये।
"इसीलिये मैंने"-सुनील धीरे से बोला-"अकेले में बात करने की पेशकश की थी।"
"मिस्टर" -संचिता भड़ककर बोली- "चलते फिरते नजर आओ यहां से।"
"ये यहीं रुकेंगे।"-भावना सख्ती से बोली। संचिता ने सकपका कर उसकी तरफ देखा।
"और जो सवाल इन्होंने पूछा है, उसका जवाब मैं भी सुनना चाहती हूं।"
"ये खामखाह एक मामूली बात का बतंगड़ बना रहा है।"
"मैं नहीं"..-सुनील बोला- "तुम! बात मामूली हो तो उसके लिये झूठ बोलना दरकार
नहीं होता।"
"मैंने क्या झूठ बोला?"
"एक झूठ तो ऐसा बोला, तुम्हारी बहन को तो जिस की तसदीक की जरूरत भी नहीं,
क्योंकि वो तुम्हारी मांजायी है। तुम्हारा जन्म दिन क्या साल में दो बार आता
है?"
"क्या मतलब?"
"तुम्हारा जन्म दिन, जो तेरह अप्रैल को आता है, वो दो हफ्ते पहले फिर कैसे आ
गया?"
संचिता के मुंह से बोल न फूटा।।
"संचिता" --भावना तिरस्कारपूर्ण स्वर में बोली-“मुझे नहीं मालूम था कि तू बहन
का ही घर उजाड़ने पर तुल जायेगी।"
_ "उजड़े घर को कौन उजाड़ सकता है!" -संचिता तल्खी से बोली।
भावना के मुंह से बोल न फूटा, वो हक्कीबक्की-सी बहन का मुंह देखनी लगी।
"और" -संचिता पूर्ववत् तल्खीभरे स्वर में बोली- “मेरे मुंह पर कालिख पोतने की
कोशिश करने से पहले अपना मुंह भी शीशे में देख लेना । उस पर भी कम स्याही
नहीं लगी हुई। अच्छा होता कि मुझे घर उजाड़ने का ताना देने से पहले तुमने
संजीव सूरी को याद कर लिया होता।"
ऐसी बातें आपस में की जाती हैं।"-भावना दबे स्वर में बोली।
“शुरूआत तुम्हीं ने की थी।"
"लेकिन तुमने भी तो...."
“दीदी, इस बात को यहीं खत्म कर दो। इसी में हम दोनों की भलाई है।"
“लेकिन तुमने...."
“ठीक है।"-वो उठकर खड़ी हुई- “ऐसे ही सही।" वो पांव पटकती हुई वहां से रुखसत
हो गयी। पीछे सन्नाटा छाया रहा।
“भावना जी" --फिर सुनील ने खामोशी भंग की, वो खंखार कर गला साफ करता हुआ
बोला-"संजीव सूरी के बारे में मैं एक बात खासतौर से आप से कहना चाहता हूं।"
"क्या?"-भावना सशंक भाव से बोली।
"मैं चलता हूं, भई।"-लेखक एकाएक उठ खड़ा हुआ-"मैं किसी घरेलू तकरार का गवाह
नहीं बनना चाहता। मैं कोई 'खास बात' नहीं सुनना चाहता।"
“जाइये जरूर"-सुनील बोला-“लेकिन एक बात सुनते जाइये।"
"सुनाओ, भई।"
“आप ऐन कत्ल के वक्त यहां थे और ये बात कोई यकीन में आने वाली नहीं है कि
परसों रात यहां इतना हंगामा हो गया - और आप को नीचे जिम में उसकी भनक तक न
लगी।"
"भई, बताया तो था कि जिम साउन्डप्रूफ है।"
"आप वहां से बाहर भी तो निकले थे। जहां एक कत्ल जैसी होलनाक वारदात होकर हटी
हो, वहां की तो फिजा भारी हो जाती है और बिना किसी के बताये भी अहसास होने
लगता है कि कुछ असाधारण हो गया था।"
"बहुत बढ़िया बात कही, बरखुरदार। .....मेरे पास कापी कलम होती तो नोट कर लेता
और किसी नावल में अपने हीरो से कहलवाता।"
"आप बात को हंसी में उड़ा रहे हैं।"
"भई, जैसी बात होती है, उसको वैसा ही तो ट्रीटमेंट दिया जाता है।"
"फिर तो आप इस बात को भी हंसी के काबिल ही बतायेंगे कि मुझे कतई यकीन नहीं कि
कल आप अपने किसी नावल की तलाश में मकतूल की पेज के कागजात टटोल रहे थे।"
"कमाल है, भई! वो इन्स्पेक्टर भी ऐन यही जुबान बोल रहा था मेरे से।"
“जानकर खुशी हुई कि आप पुलिस के भी फोकस में हैं।"
"पुलिस का फोकस । कैसा रहेगा मेरे अगले उपन्यास का नाम?"
“आप आदी मालूम होते हैं हर बात को मजाक में उड़ाने के।"
"हर बात को नहीं...सिर्फ ऐसी बातों को जो चोर बहकाने के लिये कही जाती हों।
और चोर बहकाना पुलिस वालों का काम होता है। इसे कहते हैं अक्लमन्द को फिर से
इशारा।"
सुनील खामोश रहा। . मन्द मन्द मुस्कराता लेखक वहां से विदा हो गया।
"तुम क्या खास बात कहने जा रहे थे?"-पीछे भावना उत्सुक भाव से बोली।
"ये कि आप संजीव सूरी को भूल ही जायें तो अच्छा है।"
"क्यों ?"
"क्योंकि वो शख्स आपकी नवाजिशों के तो क्या, आपकी तवज्जो के भी काबिल नहीं।"
"क्या मतलब?"
"परसों रात को ही वो अपने फ्लैट से खिसक गया था और..
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