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रहस्य-रोमांच >> घर का भेदी

घर का भेदी

सुरेन्द्र मोहन पाठक

प्रकाशक : रवि पाकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :280
मुखपृष्ठ : पेपर बैक
पुस्तक क्रमांक : 12544
आईएसबीएन :1234567890123

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अखबार वाला या ब्लैकमेलर?


उसने पर्दा यथास्थान सरका दिया और पलंग के पहलू में बने दो बन्द दरवाजों के करीब पहुंचा। उसने एक दरवाजा खोला तो पाया कि वो अटैच्ड बाथ का था। बाथरूम में एक खिड़की थी जिस पर धुंधले शीशे लगे हुए थे और जो उस वक्त खुली थी।
उसने उसके पास जाकर बाहर झांका तो नीचे उसे कोठी के पहलू से गुजर कर पिछले कम्पाउन्ड की ओर जाती राहदारी दिखाई दी।
बाथरूम से निकल कर वो दूसरे दरवाजे पर पहुंचा। उसने उसे खोलकर भीतर कदम रखा तो अपने आप को उस कमरे में पाया परसों रात जिसमें उसने पनाह पाने के लिये कदम रखा था, जिसका फर्श लकड़ी का था और जिसे अर्जुन ने हाल कमरा बताया था। एक दूसरे से जड़ी दो डायनिंग टेबलें और उनके गिर्द लगी कुर्सियां तब भी पूर्ववत वहां मौजूद थीं। उस कमरे के गलियारे के दरवाजे के सामने की दीवार में दो विशाल खिड़कियां थीं जिन्हें कि उसने खोल दिया और यूं कमरे में भरपूर रोशनी हो गयी। फिर उसने बारीकी से कमरे का मुआयना करना शुरू किया।
एक कुर्सी के करीब वो ठिठका। उसने उस कुर्सी को हटाकर, फर्श पर दोहरा होकर, उसके सामने के फर्श का मुआयना किया जो कि मेज की ओट में होने की वजह से बाकी कमरे की तरह रोशन नहीं था।
फिर भी उसे लकड़ी के फर्श पर आड़ी तिरछी खिंची कुछ महीन लकीरें साफ दिखाई दीं।
गुड!--सन्तष्टि से सिर हिलाता वो मन ही मन बोला।
उसने कुर्सी को यथास्थान सरकाया और वहां से बाहर निकल आया।
भावना के बेडरूम के दरवाजे पर पहुंचकर उसने बन्द दरवाजे को हौले से दस्तक दी।
"खुला है।"
भीतर से भावना की आवाज आयी। दरवाजा धकेल कर सुनील भीतर दाखिल हआ।
भावना पलंग पर कई तकियों के सहारे अधलेटी-सी बैठी हुई थी। उसके सामने अगल बगल लगी दो कुर्सियों पर संचिता और लेखक विराजमान थे।
सुनील ने सबका अभिवादन किया।
"आओ।"-भावना गम्भीरता से बोली-“बैठो।"
संचिता ने सुनील के लिये अपनी कुर्सी खाली कर दी और खुद पलंग के पायताने बैठ गयी।
“थेंक्यू।"
सुनील कुर्सी पर ढेर होता हुआ बोला- "मैंने डिस्टर्ब तो नहीं किया आप लोगों को?"
... "नहीं।"-उत्तर भावना ने दिया।
“किताब मिल गयी आप की जनाब!"-फिर वो लेखक से बोला।
"किताब?" लेखक की भवें उठीं। .
"आपका वो नावल जिसकी आप को रिप्रिंट के लिये तलाश थी। अहसानफरामोश।"
"अच्छा, वो! हां, मिल गया।"
"कहां से मिला?"
"स्टडी में से। वहां के एक बुकशेल्फ में मौजूद था।"
"स्टडी की बाबत मुझे कल खबर नहीं थी।"-सुनील भावना की तरफ आकर्षित हुआ-"क्या मैं उसमें एक नजर डाल सकता हूँ?
“अब तो मुमकिन नहीं।"-भावना बोली- "कल बोलते तो कोई प्राब्लम नहीं थी।"
“आज क्या हो गया है?"
"इन्स्पेक्टर चानना आज सुबह सवेरे यहां पहुंच गया था। अभी-अभी यहां से गया है। वो स्टडी को लॉक कर गया है।"
“आई सी।" -सुनील संचिता की तरफ घूमा- "मैं तुम से एक सवाल पूछना चाहता हूं।"
“पूछो।”–वो बेखौफ बोली।
"अकेले में।"
"अकेले में?"
"हां"
"क्यों? प्रोपोज करना चाहते हो?"
“अभी नहीं। क्योंकि अभी तुम मातम में हो। क्योंकि तुम्हारे जीजा की मौत हो के हटी है। रिमेम्बर?"
उसके चेहरे ने रंग बदला, फिर वो रुखाई से बोली- "मैं अभी तुम्हें अकेले में मिलना जितना नहीं जानती इसलिये जो कहना है, यहीं कहो।"
“ठीक है। परसों रात तुमने कहा था कि दो हफ्ते पहले तुम्हारा जन्म दिन था जिसके उपलक्ष्य में, बतरा साहब ने तुम्हें एक हीरे की अंगूठी तोहफे के तौर पर दी थी। क्या वो अंगूठी दिखा सकती हो?"
"तुम्हें किसलिये? तुम्हारा उससे क्या लेना देना है?"
"लेना देना तो कुछ नहीं लेकिन...."
“तो फिर बात खत्म हुई।"
"अभी नहीं हुई। तुमने आगे कहा था कि तुम कृतज्ञता ज्ञापन के लिये अपने जीजा से लिपट गयी थीं और तुमने उन्हें बड़ी गर्मजोशी से किस किया था। ठीक?"
सुनील को ये देखकर बहुत सन्तुष्टि हुई कि भावना आग्नेय । नेत्रों से अपनी बहन को घूर रही थी।

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