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रहस्य-रोमांच >> घर का भेदी

घर का भेदी

सुरेन्द्र मोहन पाठक

प्रकाशक : रवि पाकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :280
मुखपृष्ठ : पेपर बैक
पुस्तक क्रमांक : 12544
आईएसबीएन :1234567890123

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अखबार वाला या ब्लैकमेलर?

तीसरा दिन

तीस सितम्बर : बुधवार


उस रोज दोपहर के करीब सुनील फिर नेपियन हिल पर था। कोठी में उसने सन्नाटा पाया।
उसने अपनी मोटरसाइकल सड़क पर ही छोड़ी और पैदल चलता कोठी के पिछवाड़े में पहुंचा।
उधर का दरवाजा, जैसा कि अपेक्षित था, खुला था। वो खामोशी से पिछले कम्पाउन्ड में दाखिल हुआ और उस खिड़की के करीब पहुंचा जो कि ड्राईंगरूम की थी और जिस के ... रास्ते भीतर गोली चलाई गयी बतायी जाती.थी।
उसने सावधानी से खिड़की के नीचे की जमीन का मुआयना किया जहां कि घास उगी हुई थी। घास में एक चकनाचूर हुई बोतल के कांच के छोटे बड़े टुकड़े बिखरे दिखाई दे रहे थे। कांच का रंग शर्बती था जिससे लगता था कि वो बियर की बोतल के टुकड़े थे।
खिड़की उस वक्त बंद थी।
कांच के टुकड़ों से बचता वो दीवार के करीब पहुंचा। उसने खिड़की के एक पल्ले पर हाथ रखकर उसे भीतर को धक्का दिया।
यूं खिड़की खुली तो नहीं लेकिन यूं हिली जैसे मजबूती से बन्द न हो। उसने जरा जोर से धक्का दिया तो एकाएक उसके दोनों पल्ले चौखट से अलग हो गये। साथ ही एक हल्की सी टन्न की आवाज हुई जिस के साधन या जिसकी किस्म को वो न समझ सका। उसने भीतर निगाह दौड़ाई तो कोई असाधारण बात उसे न दिखाई दी।
वो वापिस कोठी के अग्रभाग में पहुंचा। मुख्यद्वार पर पहुंचकर उसने काल बैल की तरफ हाथ बढ़ाया ही था कि दरवाजा खुला और चौखट पर इमरती प्रकट हुई। उस घड़ी भी वो अपनी भड़कीली-घाघरा, चोली और ओढ़नी वाली पोशाक में थी।
"पहले ही दरवाजा खोल दिया, इमरती।" -सुनील मीठे स्वर में बोला-"कैसे पता चला कि कोई आया था?"
“हम आप को”-वो मुस्कराती हुई बोली-“सीसा वाली खिड़की मां से देखे रहे।"
"शीशे वाली खिड़की?"
"हो।"
“आई सी। मैडम कहां है?"
"कौन?"
"मैडम! बड़ी मेम साहब!"
"ऊपर अपना कमरा में।"
"अकेली?"
“छोटी मेम साहब साथ रहिन। पिछला बंगला वाले साहब साथ रहिन।
"पिछले बंगले वाले साहब ? सागर संतोषी साहब?"
"हौ।"
"फिर तो मैं भी ऊपर जा सकता हूं।"
"हो।"
"मुझे प्यास लगी है। एक गिलास पानी पिला सकती हो।"
हवा के झोंके की तरह वो किचन की तरफ लपकी।
सनील लपककर ड्राईंगरूम में दाखिल हुआ और बार के पीछे खली खिड़की के करीब पहुंचा। उसने खिड़की के नीचे फर्श पर - निगाह दौड़ाई तो पाया कि खिड़की की भीतर की चिटकनी की वो आंख, जिसमें कि लगाये जाने पर चिटकनी की सलाख जा घसती थी, अपने दोनों पेचों समेत नीचे फर्श पर गिरी पड़ी थी। उसने आंख और दोनों पेच उठाये और उन्हें चौखट पर वहां लगाया जहां कि उन्हें लगा होना चाहिये था। उसने हाथ से ही पेचों को उमेठा तो वो चौखट में यूं पैबस्त हो गये कि देखने से नहीं लगता था कि खिड़की को बाहर से धक्का देने पर वो उखड़ सकते थे।
तो ये माजरा था!-वो होंठों में बुदबुदाया।
प्रत्यक्षतः वहां किसी ने ऐसा इन्तजाम किया था कि देखने में मजबूती से भीतर से बन्द खिडकी को बाहर से धक्का देकर खोला जा सकता था।
उसने चिटकनी लगा दी और वापिस लाबी में पहुंचा। तभी इमरती ट्रे पर पानी का गिलास रखे वहां पहुंची।
सुनील ने पानी पिया और कृतज्ञ भाव से बोला “धन्यवाद।"
इमरती मुस्कराई।
"तो मैं अब ऊपर जा सकता हूं?"
"हौ।"
सुनील सीढ़ियां चढ़कर पहली मंजिल पर पहुंचा। गलियारा सुनसान था। .
दाईं ओर का पहला दरवाजा-जो कि मकतूल की स्टडी का था-मजबूती से बन्द था।
उधर का दूसरा दरवाजा-भावना के बेडरूम का-भी बन्द था लेकिन उसके पीछे से वार्तालाप की हल्की-हल्की आवाजें आ रही थीं।
सुनील बायीं ओर के दो दरवाजों की तरफ आकर्षित हुआ।
अर्जुन के अनुसार पहला दरवाजा संचिता के बेडरूम का था। उसने उसके दरवाजे को धक्का दिया तो वो खुल गया। उसने चौखट से ही भीतर निगाह दौड़ाई तो पाया कि दीवार के साथ लगाकर खड़ी की गयी होने की जगह वहां की डबल बैड अब बातरतीब कमरे में लगी हुई थी। बायीं तरफ शीशे की विशाल खिड़की थी जिस पर पर्दा पड़ा हुआ था। उसने करीब पहुंचकर पर्दा एक तरफ किया और बाहर झांका। वहां से बाहर उसे कोठी का सामने का कम्पाउन्ड, उसमें से गुजरता ड्राइव-वे और बाहर की सड़क दिखाई दी।

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