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रहस्य-रोमांच >> घर का भेदी

घर का भेदी

सुरेन्द्र मोहन पाठक

प्रकाशक : रवि पाकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :280
मुखपृष्ठ : पेपर बैक
पुस्तक क्रमांक : 12544
आईएसबीएन :1234567890123

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अखबार वाला या ब्लैकमेलर?


वे भीतर दाखिल हुए।

भीतर हाल में और ड्राईंगरूम के खुले दरवाजे के भीतर-बाहर काफी लोग जमा थे जिनमें कि अर्जुन भी था। उन पर निगाह ' पड़ते ही वो लपक कर उनके करीब पहुंचा।

सुनील की निगाह पैन होती हुई विशाल ड्राईंगरूम में फिरी और फिर वो बोला-“लाश कहां है?"

“वो परली दीवार के साथ बार देख रहे हैं?" - अर्जुन दबे स्वर में बोला।
"हां"
"उसके पीछे। गोर से देखिये, पांव दिखाई दे रहे हैं।" सुनील ने गौर से देखा तो पाया वो ठीक कह रहा था।

"एक ही गोली ने काम कर दिया।"-अर्जुन पूर्ववत् दबे स्वर में बोला- “दाई कनपटी में लगी। भेजा उड़ गया। बार के पीछे जो खुली खिड़की दिखाई दे रही है, उधर से चली। हाथ के हाथ काम हो गया।"

"बार के पीछे क्या कर रहा था वो?"
"वही जो किया जाता है। अपने लिये ड्रिंक बना रहा था। घर में कदम रखते ही सबसे पहले उस बार पर पहुंचना बतरा की स्थापित रूटीन बतायी जाती है।"
“आई सी। खिड़की से पार क्या है?"
"पिछवाड़े का कम्पाउन्ड। उससे आगे झाड़-झंखाड़ और पेड़ों से घिरा खुला इलाका है। ये समझिये कि जंगल है।"
“यानी कि उधर से कोई भी खिड़की तक पहुंच सकता था और भीतर गोली चला सकता था?"
“आज तो खासतौर से । पार्टी की वजह से, जो कि ऊपर .. पहली मंजिल पर संचिता के कमरे में चल रही थी। एक तो पार्टी में जमा डेढ़ दर्जन भर लोगों का ही काफी शोर-शराबा था, ऊपर से बाइस सौ वाट का स्टीरियो चल रहा था।" ।
"फिर तो गोली चलने की आवाज सुनी जाने का कोई मतलब ही नहीं था।"
"हां".
“वे मेड.... क्या नाम बताया था तुमने फोन पर उसका?"
"नीना। नीना मैनुअल । बहुत हसीन है, गुरु जी। देखने भर से हालत हस्पताल जाने जैसी न हो जाये तो कहना।"
"पक्का शागिर्द है तेरा!"-रमाकान्त बोला--"फिर तेरी जुबान बोल रहा है।"
अर्जुन हंसा। .. "तेरी तो न हुई हालत हस्पताल जाने जैसी!"-सुनील बोला।
"मेरी मजबूरी थी।"--अर्जुन धूर्त भाव से बोला- "मैं मिस्ट्रेस का मेहमान था इसलिये मेड पर निगाह मैली नहीं कर सकता था। आपने ही तो सिखाया, गुरु जी, कि नैवर लाइन मारो दि मेड वैन मिस्ट्रेस इज़ विलिंग।"

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