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रहस्य-रोमांच >> घर का भेदी

घर का भेदी

सुरेन्द्र मोहन पाठक

प्रकाशक : रवि पाकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :280
मुखपृष्ठ : पेपर बैक
पुस्तक क्रमांक : 12544
आईएसबीएन :1234567890123

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अखबार वाला या ब्लैकमेलर?


“बन्द तो न थे। वो खिड़की ही खुली थी। अभी भी खुली है।"
 
“इत्तफाक से ऐसा हो गया। नीना वो खिड़की बन्द करने ही आयी थी जबकि उसने...लाश देखी थी।"

“और फिर अभी वक्त भी तो कोई खास नहीं हुआ। कोई सरेशाम ही तो घर के तमाम खिड़कियां दरवाजे वन्द करके नहीं बैठ जाता।"
“बहरहाल खुली खिड़की ने खासी मदद की कातिल की। उसे इमारत में कदम भी न रखना पड़ा और वो अपना काम कर गया।"
"प्यारयो"- रमाकान्त धीरे से बोला- "कदम रखना पड़ जाता तो कौन-सा उसके काम में विघ्न आ जाता! सब लोग ऊपर थे, नौकर-चाकर पिछवाड़े में किचन में थे, वो आकर प्रवेश द्वार पर भी दस्तक देता तो जरूर उसे मकतूल ने ही दरवाजा खोला होता। यानी कि उसकी आमद की खबर सिर्फ मकतूल को लगी होती। और मुर्दे तो बोलते नहीं।"

"फिर भी खुली खिड़की उसके लिये सहूलियत का बायस बनी। उसके जरिये वो तसदीक कर सकता था कि यहां मकतूल अकेला था। यानी कि उसकी करतूत का कोई गवाह यहां मौजूद नहीं था। मेन गेट से दाखिला पाने की दीदादिलेरी दिखाने पर शायद ऐसा न हो पाता। तब उसे भीतर के माहौल की भीतर आये विना खवर न लगती। तब उसे या तो मकतूल के साथ किसी गवाह का भी कत्ल करना पड़ता, यानी कि एक से ज्यादा कत्ल करने पड़ते, या फिर अपना कत्ल का इरादा मुल्तवी करना पड़ता।"
 
रमाकान्त कुछ क्षण सोचता रहा और फिर बोला-“ठीक कह रह हो, मालको।"
"आपने कहा" -सुनील फिर संचिता से सम्बोधित हुआ-- "कि खिड़की खुली होना इत्तफाक की बात थी। इसका मतलब क्या ये हुआ कि वो खिड़की अमूमन बन्द रहती थी?"
 
"ऐसा तो नहीं है। खोली तो जाती है। लेकिन अगर डाईंगरूम में कोई न हो और किसी के आने की अपेक्षा भी न हो तो अन्धेरा होने के बाद कदरन जल्दी बन्द कर दी जाती है।"
“आज तो ऐसा न हुआ?"
“इसी को तो मैंने इत्तफाक की बात बताया। आज तो पार्टी की वजह से वैसे ही सब लोग ऊपर थे.... और फिर खिड़की कुछ अरसा देर तक खुली रहना कोई आफत वाली बात तो नहीं थी! किसी को क्या सपना आना था कि यहां इतनी बड़ी वारदात हो जाने वाली थी और उस वारदात का जरिया वो खिड़की बन जाने वाली थी!"
 
“यू आर राइट, माई हनीचाइल्ड । तो कोई दुश्मन अपनी दुश्मनी निकाल गया?"
"हां"
"कौन?" - “क्या पता कौन? लेकिन वो जो कोई भी था, यकीनन बाहर से आया था।"
"लिहाजा आप इस मामले में अपने डेढ़ दर्जन मेहमानों की जामिन बन रही हैं।"
"मेरे मेहमानों में से कोई कातिल नहीं हो सकता। आधे से ज्यादा तो जीजा जी को जानते तक नहीं थे, कुछ तो ऐसे भी थे जो नाम से क्या, उनकी सूरत से भी वाकिफ नहीं थे। ऐसे लोगों में से भला कैसे कोई उनका कातिल हो सकता है?"
"पंकज सक्सेना के बारे में क्या खयाल है?"
वो सकपकाई।
"जो कि आपका स्टेडी है। खास है।"
"कौन बोला?"
"क्या ये सच नहीं है?". ...
“सच तो है लेकिन...”
"वो अपनी जुवानी कुबूल कर चुका है कि वो वतरा साहब को सख्त नापसन्द करता था। गाली देकर बात कर रहा था। उनकी बाबत उसके मुंह से नफरत का सैलाब उमड़ रहा था।" .
"जरूर नशे में होगा। नशे में ही आदमी यूं अनाप-शनाप . . . . . बकता है।"
"ऐंजलफेस, नशे में ही आदमी सच भी बोलता है।"
"क्या सच बोला उसने? क्या कहना चाहते हो?"

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