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रहस्य-रोमांच >> घर का भेदी

घर का भेदी

सुरेन्द्र मोहन पाठक

प्रकाशक : रवि पाकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :280
मुखपृष्ठ : पेपर बैक
पुस्तक क्रमांक : 12544
आईएसबीएन :1234567890123

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अखबार वाला या ब्लैकमेलर?


“आफत आ जाती मिस्टर, आफत आ जाती।"
"क्या ?"
"मुझे केन्द्रीय उद्योग मन्त्री बनाये जाने की पेशकश है।"
"अच्छा! मुझे नहीं मालूम था।"
"जब कि रिपोर्टर हो।"
“मेरा फील्ड जुदा है। मैं क्राइम रिपोर्टर हूं। पॉलिटिक्स और इन्डस्ट्री मेरा फील्ड नहीं है।"
"तभी तो!"
“आप कैबिनेट मिनिस्टर बनाये जाने वाले हैं, जबकि आप एम. पी. भी नहीं हैं।"
“मंत्री बनने के लिये एम. पी. होना जरूरी नहीं होता। बने रहने के लिये जरूरी होता है जिसके लिये कि छः महीने का टाइम मिलता है जिसमें कि मैं लोकसभा का चुनाव लड़ सकता हूं या राज्यसभा का सदस्य बनाया जा सकता है।"
"मैं समझ गया। अब बताइये कि इस बात में पेच कहां है?"
"इस वक्त मुल्क में जिस पार्टी की सरकार है, उसका ये नारा है, पुख्ता दावा है कि उनका कोई मंत्री ऐसा नहीं होगा जिसका कि दामन दागदार हो। मेरी बेटी की करतूतें अगर उजागर हो जाती तो मौजूदा सरकार गोली की तरह मंत्री पद के लिये मेरे नाम पर विचार करना छोड़ देती।"
“आई सी। आपको बतरा की इस बात पर यकीन आ गया था कि वो ब्लैकमेल की अपनी मांग दोहराने वाला नहीं था?"
“भई, लौटा तो नहीं था वो।"
"जिन्दा रहता तो शायद लौटता।"
“भविष्य में कौन झांक सकता है, मेरे भाई! कम से कम मैं तो नहीं झांक सकता।"
"वो मांग दोहराई न जाती, आपका दामन उजला ही बना रहता, कत्ल ही इस बात की इंश्योरेंस था।"
“अगर मेरा इरादा कत्ल का होता तो मैं उसे पांच लाख ही क्यों देता?" .
"रसीद दिखा सकते हैं पांच लाख की?"
"पागल हुए हो। ब्लैकमेलर रसीदें देते हैं?" ...
"सो देयर।".
"तुम ये कहना चाहते हो कि मैंने पहली मांग ही कबूल नहीं की होगी और उसका मुंह हमेशा के लिये बन्द करने के लिये उसका कत्ल कर दिया होगा?"
"या दूसरी मांग होने पर ऐसा किया होगा।"
"दूसरी मांग नहीं हुई थी। उसकी पहली मांग मैंने पूरी की थी। कत्ल का न कोई सवाल था, न कोई जरूरत थी। जो मैंने कहा, वो सच है लेकिन इस सच को साबित करने का मेरे पास कोई जरिया नहीं। इसलिये तुम्हारी मर्जी है, तुम मेरी बात मानो या न मानो।"
"मेरी मर्जी आपकी बात मानने की है। सच झूठ परखने का कोई आला तो मेरे पास नहीं है लेकिन मेरा दिल गवाही दे रहा है कि आप सच बोल रहे हैं।"
"थैक्यू।"
“तानिया इस वक्त घर में है?"
“क्यों पूछ रहे हों?"
"मैं एक मिनट उससे मिल सकता हूं।"
"क्यों मिलना चाहते हो?"
"शायद मेरे पास उसकी दुश्वारी का कोई इलाज हो। जो आप की दुश्वारी का इलाज अपने आप ही बन जायेगा।"
चटवाल ने घूर कर उसकी तरफ देखा। सुनील बड़े सहज भाव से मुस्कराया।
चटवाल कछ क्षण और अनिश्चित-सा उसे देखता रहा फिर उसने कालबेल बजाई जिसके जवाब में एक नौकर दौड़ता हुआ वहां पहुंचा।
“जाके पता करो"-चटवाल ने आदेश दिया-"मिस्सी बाबा घर में हैं या नहीं!"
वैसे ही लपकता हुआ नौकर वहां से रुखसत हुआ।
"तानिया इस वक्त तक निकल जाती है घर से।"-चटवाल वाल क्लॉक पर निगाह डालता हुआ बोला।
"कहां जाती है?"
"जहां उसकी मर्जी होती है। मुझे क्या बताती है कुछ! अगर वो जल्दी में हुई तो जरूरी नहीं कि तुम्हारे लिये उसे रुकना कबूल हो।"
"देखा जायेगा।"
“आज वो निकल गयी तो कल आना। दोपहर के करीब। रात को लेट आती है न! इसलिये दोपहर के आसपास ही सोकर उठती है।"
"रोज़ लेट आती है?"
उसने जवाब न दिया। वो कई क्षण खामोश रहा और फिर आह भरकर बोला-"किसी ने गलत नहीं कहा कि औलाद न हो, एक दुख। होके मर जाये, सौ दुख। सलामत रहे पर नालायक निकले, हजार दुख।"
“बिल्कुल सही फरमाया आपने।"

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