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रहस्य-रोमांच >> घर का भेदी

घर का भेदी

सुरेन्द्र मोहन पाठक

प्रकाशक : रवि पाकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :280
मुखपृष्ठ : पेपर बैक
पुस्तक क्रमांक : 12544
आईएसबीएन :1234567890123

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अखबार वाला या ब्लैकमेलर?


"क्या बोला वो फोन पर?"
"बोला कि जिस शादीशुदा औरत के साथ वो तफरीह में मशगूल था, बदकिस्मती से उसके पति ने उन्हें देख लिया था, अब उसकी सलामती इसी में थी-कि पति को लगे कि उसने उसे नहीं देखा था। ऐसा तभी हो सकता था जब कि ये बात मजबूती से स्थापित रहती कि वो तो तब रेडियो स्टेशन से अपना प्रोग्राम ब्राडकास्ट कर रहा था। बोला कि अगले रोज इस बाबत कोई पूछताछ करने आ सकता था और ऐसा होने पर मैंने इस बात से नही हिलना था कि वो तो पिछली रात नौ से दस बजे तक यहां साउन्ड स्टूडियो नम्बर पांच में था।"
“उसके अन्देशे के मुताबिक आया था कोई पूछताछ करने के लिये?"
हाँ एक प्रेस रिपोर्टर आया था। शायद अर्जुन नाम था उसका। उसने आकर मेरे से पूछा था कि क्या वाकई संजीव सूरी पिछली रात नौ से दस बजे तक अपना रेडियो प्रोग्राम ब्राडकास्ट करता स्टूडियो में मौजूद था! मैंने कहा कि था।"
"इतने से बात खत्म न हो गयी?"
"हो जानी चाहिये थी लेकिन न हुई।"
"क्यों?"
"क्योंकि फिर कोई और जना यही कुछ पूछता यहां पहुंच गया।"
“कोई और रिपोर्टर?"
“पुलिस वाला। वो तो तीन सितारों वाला इन्स्पेक्टर था। उसी के बताये तो मुझे मालूम हुआ कि उन बातों का एक कत्ल के केस से रिश्ता था। तब मेरे से झूठ न बोला गया।"
“आपने कह दिया कि संजीव सूरी उस रात यहां नहीं था और उसका वो प्रोग्राम उसकी जगह उसके भाई ने ब्राडकास्ट किया था और आपकी मिलीभगत से भाई ऐसा पहले भी कई बार कर चुका था?"
"हां". . . "लिहाजा झूठ बोलने की कला के कच्चे कलाकार निकले! माहिर झूठ बोलने वाले तो न हुए आप!"
"मिस्टर!" .
"दादा, आपने एक जने को एक बात कही और दूसरे जने को दूसरी, पहली बात से ऐन उलट, बात कही। अब कैसे पता चले कि कौन सी बात सच्ची है?"
"दूसरी बात सच्ची है। उस रात सूरी वो प्रोग्राम ब्राडकास्ट करने के लिये यहां मौजूद नहीं था।"
“आप एक स्काच विस्की की बोतल के बदले में एक झूठ वोल सकते हैं तो एक से ज्यादा स्काच की बोतलों के बदले में 'या किसी और प्रभोलन में आकर दूसरा झूठ भी तो बोल सकते हैं!"
“ऐसा नहीं है। मैं लालच में नहीं, मुलाहिजे में फंसा था और मुलाहिजा मैं एक हद तक ही निभा सकता था। मैं पुलिस से झूठ नहीं बोल सकता था।"
"क्यों?"
"क्योंकि अगर पुलिस मेरा झूठ पकड़ लेती तो फिर मैं भी संजीव सूरी के साथ ही हवालात में बन्द होता।" “मतलब ये हुआ कि एक प्रेस रिपोर्टर से बोला झूठ झूठ नहीं है, पुलिस से बोला झूठ ही झूठ है।"
"देखो, वकीलों की तरह तो तुम मेरे से जिरह करो नहीं। और न ही मुझे जुबान देने की कोशिश करो। मेरी बात पर यकीन करके उसे सुनना चाहते हो तो सुनो, उसमें कोई मीन मेख निकालना चाहते हो तो...” .
उसने जानबूझकर वाक्य अधूरा छोड दिया। ..
"तो चलता फिरता नजर आऊ" -सुनील विनोदपूर्ण स्वर में बोला।
वो खामोश रहा।
"सूरी से आप के दोस्ताना ताल्लुकात हैं?" -सुनील ने पूछा।
"बहुत गहरे। वो मेरा जिगरी यार है। तभी तो मैं उसकी खातिर उसे कवर करना कबूल कर लेता था।"
"उसकी खातिर नहीं, स्काच की बोतल की खातिर।"
“फिर वहीं पहुंच गये?" . . .
“यारी निभाही तो नहीं आपने! झूठ पर कायम तो न रह सके! सब सच उगल दिया।"
“वजह मैंने बताई है। मैं पुलिस से बाहर नहीं जा सकता।
“जिगरी यार के लिये भी नहीं?" उसने उत्तर न दिया। उसने बेचैनी से पहलू बदला।
"जब आप दो यारों में ये बात पहले से ही सैटल हो गयी थी कि उस रोज का ब्राडकास्ट सूरी की जगह उसके भाई ने हैंडल करना था और ये भी आपके लिये स्थायी निर्देश था कि पूछे जाने पर आपने उसके भाई का नाम तक नहीं लेना था तो उस रात सूरी ने इस बावत फोन क्यों किया था आपको?"
"क्यों किया?"
“आप बताइये।"
वो कुछ क्षण सिर खुजाता रहा और फिर बोला--"सच पूछो तो अब तो मुझे खुद हैरानी हो रही है।"
"यूं अपनी पिछली किसी गैरहाजिरी के बाद उसने ऐसे कभी फोन नहीं किया था?"
“न। कभी भी नहीं।"
"वैसा फोन पहली बार आया था?"
"हां। और कुछ और भी पहली बार आया था।"
"क्या?"
“तुम शरीफ लड़के मालूम होते हो, ऊपर से मेरे जात भाई हो, इसलिये बताता हूं। अगली सुबह मुझे एक छोकरा एक मोटा लिफाफा ये कहके देकर गया था कि वो संजीव सूरी ने मेरे लिये भेजा था। खोखा, उसमें दस हजार रुपये थे।"
"अरे! ये तो सरासर रिश्वत हुई झूठी गवाही देने की।"

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