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कृष्णकली

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2019
पृष्ठ :232
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 12361
आईएसबीएन :9788183619189

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आण्टी की चिन्तातुर मुद्रा में बनावटी स्नेह का स्पर्श भी नहीं था। कली मन-ही-मन अचरज में डूबी जा रही थी। जिसे उसने कल तक देखा भी नहीं था, वह आज उसे कितनी सगी लग रही थी।
''उस बुढ़िया ने कहीं तुझे इसी धन्धे में तो नहीं लगा दिया?''
''नहीं आण्टी,'' कली ने मुसकराकर कहा, ''मैं तो वहाँ कुछ ही महीने रही, जैसे ही माथा ठनका, मैंने आण्टी का फार्म छोड़ दिया था।''
''फ़ार्म इण्डीड,'' आण्टी ने उसकी पीठ थपथपा दी। ''तभी तो मैं मन-ही-मन कह रही थी। लौरीन के धन्धे में होती तो यह चेहरा क्या ऐसा भोला दिख सकता था।''

उसी चेहरे की मरीचिका के लिए लौरीन आण्टी के प्रशंसा के शब्द यदि कली दोहरा दे तब? पर उन शब्दों को दुहराने पर भी शायद कोई उन पर विश्वास नहीं करता।
सात टिनों में इलाहाबाद ने कली की काया पलटकर रख दी थी। उसे लग रहा था कि जीवन में पहली बार उसके पैर जीवन के यथार्थ धरातल का स्पर्श कर रहे थे। अब तक क्या वह जीवनदोले की दिशाहीन पेंग ही लेती शून्य आकाश में झूलती रही थी? शायद! सरस स्नेह से छलकती आण्टी की सिग्ध मातृवत् चावनी, कभी-कभी उसकी आँखें गीली कर देतीं। पन्ना की आंखें भी तो ऐसी ही नीली थीं, तब अन्तर कहां था?
एक दृष्टि थी, नीले आकाश-सी ही उदार-और दूसरी में थी चित्रांकित आकाश
की-सी नीलाभ शून्यता! एक ने उसकी अभिशप्त नन्ही देह को ठोकर लगाने पर दया की भीख देकर गोदी में लिया था, दूसरी ने अनजान होने पर भी बिना कुछ पूछे ही अपनी उदार बाँहें फैला दी थीं।
इन सात दिनों में कली के चेहरे ने मेकअप की एक सामान्य तूलिका का भी स्पर्श नहीं किया था, चेहरे की स्वाभाविक लुनाई में किसी दक्ष कलाकार के पेन्सिल स्केच कीं-सी लाइट एण्ड शेड की सिन्ध छाया उतर आयी थी।
''बड़ा आश्चर्य है, कली!'' विवियन एक दिन कहने लगी, ''बंगाल में रहती है पर आज तक क्या सत्यजित रे की अनुसन्धानी दृष्टि तुझ पर नहीं पड़ी, एकदम उसी के चलचित्र की नायिकाओं से मिलता-जुलता चेहरा है तेरा-क्यों, है ना रे बॉबी?''
बॉबी सात दिनों में ही उस सौन्दर्य-उदधि में कण्ठ तक डूब चुका था। कली को लेकर पूछा गया सामान्य-सा स्वाभाविक प्रश्न ही उसे लाल कर देता, यह विवियन भी समझने लगी थी। इसी से जान-बूझकर वह कभी-कभी उसे छेड़ने लगती।
''ऐ बॉवी, देखूँ कितने मिनट में तुम्हारा हेलीकॉप्टर हमें फाफामऊ पहुँचाता है! ''वह कहती और किसी रेस कार के उत्तेजित प्रतियोगी की ही भाँति बॉबी प्राण हथेली पर धर पूरी स्पीड में गाड़ी भगा देता।
फाफामऊ की ओर जाती निर्जन सड़क के वक्ष पर अमानवीय दुस्साहस से विराट् जहाज-सी ठेला-ट्रकों को पछाड़ती बॉबी की जर्जर गतयौवना गाड़ी सहसा षोडशी बनी भागने लगती, तो कली और विवियन चीखें मारती हँसती-हँसती दुहरी हो जातीं। 
''बस करो बॉवी, अब बस!'' लगता किसी कार्निवल की कार रेस में ही दोनों बच्चा मोटर भगा रही हों।
अपनी बचकानी हिस्टिरिकल चीखें कली के कानों में स्वयं ही अनजान बनकर टकरा उठतीं। एक अरसे से वह इतना नहीं हँसी थी। उसे लगता कि बहुत दिनों से अस्वाभाविक अभिनय की कवायद में 'जाम' हो गये उसके शरीर के अंजर-पंजर किसी तेल-ग्रीज से चमकायी गयी मशीन के अवयवों की ही भाँति एक बार फिर नये बन गये हैं।
घर लौटती तो आधी-आधी रात तक विवियन यूनिवर्सिटी के कथापुराण का पोथा खोलकर बैठ जाती। एक-एक रोचक अयर कली को कण्ठस्थ हो गये थे।
''हाय कली, तू हमारी यूनिवर्सिटी में आती तो क्रेज़ बन जाती, सच!'' विवियन कहती तो उसका मन ललच उठता, पर अपनी खोखली बनावटी जिन्दगी की केचुली क्या वह अब चाहने पर भी उतारकर फेंक सकती थी?
''अब मुझे लौटना ही होगा विवियन,'' उसने आठवें दिन कहा।
''वाह, वाह, अभी तो तुझे माघ मेले की सैर ही नहीं करायी, अभी कैसे जाएगी!''
स्वयं आण्टी ने तार देकर उसकी छुट्टी बढ़वा ली थी।

''कल अमावस का नहान है, खूब बढ़िया मेला जुटेगा'' आण्टी हँसकर कहने लगीं, ''आज तक कली देश-विदेश के इण्डियन पैवेलियन की मॉडल बनी है, इस बार इसे माघ के मेले की मॉडल बनाएँगे, अच्छा विवियन! बीबी, अपना कैमरा 'लोड' कर लेना, कल तड़के ही चल देंगे। साइमन से मैंने कह दिया है, बजरा निकालने वह आज ही संगम चला जाएगा।''
आण्टी ने कभी बड़े शौक़ से अपना बजरा बनवाया था, नाम था 'गोल्डन ऐरो।' अब वह बजरा एक पण्डे के गोदाम में ही बन्द रहता, पर कभी-कभी आण्टी के अतिथियों के सम्मान में किसी उजड़ी रियासत के हाथी की ही भाँति सज-धजकर संगम के नीलाभ जल में तैरता, तो सबकी दृष्टि आकर्षित कर लेता। बजरे को विशेष रूप से नक्शे में बाँधकर तराशा गया था। उसके वेनीशियन गोण्डोला की-सी छरहरी देह के दोनों ओर दो नुकीले सुनहले तीर, सूर्य की प्रखर किरणों में स्वयं भी दीप्त अग्रिशिखा की-सी ही किरणें छोड़ने लगते।

''माघ मेला देखना ही है तो बहुत तड़के चलेंगे,'' आण्टी के उत्साह का अन्त नहीं था, ''दुर्भाग्य से इस साल का कुम्भ नहीं है, फिर भी संगम का माघी मेला 'इज क्वाइट समथिंग'-देखना कली, तेरे 'वर्ल्ड फेयर' में भी ऐसी स्वाभाविक चहल-पहल नहीं रहती होगी। और फिर बजरा रोककर बीच संगम में डुबकियाँ लेने में जो आनन्द आता है, आहा-हा!'' आण्टी आँखें मूँदकर सचमुच ही काल्पनिक डुबकियों में डूबने-उतराने लगीं।

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