''आण्टी की नानी पक्की ब्राह्मणी थीं,'' विवियन हँसकर कहने
लगी, ''किसी चतुर्वेदी की इकलौती बेटी थीं, नाना उन्हें भगा
लाये थे, इसी से तो माघ मेले में आण्टी हर साल बीरा जाती
हैं।''
''सच?''
कली की विस्फारित दृष्टि ने बॉबी को अजगर की भाँति मुँह फैलाकर
निगल लिया। आश्चर्य की मुद्रा ही क्या इस अलौकिक रूपसी की सबसे
मोहक मुद्रा नहीं थी? किसी सर्पिणी द्वारा 'हिप्रोटाइज्ड'
पक्षी-सा बीबी उसी से पूछे गये प्रश्न का उत्तर देना ही भूल
गया।
''और क्या झूठ कह रही हूँ पूछ लेना आण्टी से,'' विवियन ने बॉबी
को ठसकाकर चेतनान्तागत् में खींच लिया। ''ए सिली, हाउ यू
स्टेयर?'' वह फुसफुसायी और अचकचाकर कसी तनी पतलून को अपनी
नटिनी की-सी कमर पर खींचता, तीर-सा बाहर निकल गया।
''बड़ी लम्बी कहानी है नानी के इलोपमेण्ट की, कभी फुरसत से
सुनाएँगे,'' आण्टी बोलीं, ''पहले शर्मा को फ़ोन कर दूँ गाड़ी के
लिए, संगम का पास भी तो बनवाना होगा।''
आण्टी फ़ोन करने चली गयीं, तो विवियन बोली, ''चल, यह अच्छा है
कि कल
बॉबी की गाड़ी में नहीं जाना पड़ेगा। शर्मा साहब की गाड़ी तो
एकदम मखमल पर फिसलती है, देंगे ज़रूर।'' उसने एक आँख मींचकर
कहा, ''हां डेयर नाट रिफ्यूज, क्योंकि आण्टी की ओल्ड फ्लेम
हैं। देख लेना सुबह होने से पहले ही गाड़ी हमारे पोर्च में
होगी।''
सचमुच ही आण्टी के मुर्गे ने सुबह की बाँग दी ही थी कि शर्मा
साहब की काली लम्बी खुशनुमा गाड़ी, बिना किसी आवाज़ के ही सर्र
से आकर पोर्च में लग गयी। आण्टी के उत्साह की छूत अब घर के सब
सदस्यों को लग गयी थी। साइमन बजका सजाने पहले ही दिन चला गया
था। भीड़ के रेले में चींटी की गति से रेंगती शर्माजी की स्लीक
गाड़ी के काँच से मुँह सटाये कली मुख दृष्टि से भीड़ के रामधुन
को देख रही थी। रंग-बिरंगी गोट लगे ऊँचे अवधी लहँगे, दक्षिणी
साड़ियाँ, जोधपुरी पगड़ियाँ, पगड़ियों पर पोटलियाँ और पोटलियों पर
सधे सरकसी बच्चों-से जमे अर्धनग्न काले चमकते बच्चे! थके छिले
पाँव पर कण्ठ की स्वर-लहरी में गूँजता अदम्य उत्साह। किसी-किसी
कन्धे पर एक साथ बैठे तीन-तीन, चार-चार बच्चे, ठीक जैसे कोई
होटल का दक्ष बैरा दोनों हाथों में एक साथ कई जोड़ा प्लेटों का
अम्बार बनाये मुसकराता बड़े इत्मीनान से चला जाता है, ऐसे ही वे
ग्रामीण किलकते बन्दरों से अबाध्य बालकों को स्वाभाविक सन्तुलन
में कन्धे पर बाँधे चले जा रहे थे। एक साथ चार-पाँच वैलगाड़ियाँ
सहसा कार ही के साथ दुस्साहसी क़दम रखती आगे-पीछे चलने लगीं।
बैलगाड़ियों में तीन-चार मूँज की उलटी चारपाइयों पर ढोलक के साथ
गाती-बजाती मुखरा ग्राम्याओं का दल कार की खिड़की के पास ही
सटकर रेंगने लगा। सब की कँकरेजी, लाग लगायी गयी एक-सी
मिलती-जुलती साड़ियाँ थीं, हाथों में कोहनी तक चमकती लाख की
चूड़ियाँ और पटेला, नाक में सोने की सर्चलाइट-सी चमकती पुगनियाँ
और पैरों में बेड़ियों-सी पड़ी पैंजनी!
''ये सब बुन्देलखण्डी हैं, यह इनका खास पहनावा है,'' आण्टी कली
से कह रही थीं, ''मैं तो बरसों रीवा-छतरपुर में रही हूँ...माई!
व्हट वॉयस!''
उनकी तीखी आवाज, शहनाई की-सी बुलन्द गूँज की नौबत बजा रही थी।
'गाड़ीवारे मसक दे बैल
चले पुरवैया के बादर'
बाद का 'र' का एक मोहक सधी मरोड़ के साथ मुड़ता और तरुण रँगीला
पगड़ीधारी गाड़ीवान अधूरी पंक्ति को पकड़कर, पहली पंक्ति को फिर
दोहराने लगता। सहसा गीत की लय में झूमते गाड़ीवान से एक धृष्टा
नवयुवती ने न जाने क्या कहा, और वह कली की कार के काँच के
चौखटे में बन्द, बड़ी आँखों में आँखें डाल, गीत की अधूरी पंक्ति
दोहराता कार को पछाड़ता चला गया। उसकी रंगीनी से साथ की
स्त्रियों का पूरा दल खिलखिला उठा और कली ने खिसियाकर मुंह फेर
लिया।
जो देश-विदेश के समृद्ध समाज की भीड़ के सम्मुख दिन-रात सीना
तानकर नित्य नवीन वेश-भूषा के तरस का जाल बुनती, इठलाती चली
जाती थी, उसी को प्रयाग की धूल-भरी सड़क पर एक गँवारू ग्रामीण
लोकगीत की एक ही पंक्ति ने छुई-मुई बना दिया। क्या हो गया था
उसे?
''संगम का पास बना है कली, बस क़िले तक ही चलना होगा हमें।''
कार के रुकते ही विवियन बड़े उत्साह से नीचे कूद गयी और कली का
हाथ पकड़कर भीड़ को चीरती चलने लगी। कभी-कभी बालू में दोनों के
पैर धँस जाते। ऊपर उठातीं तो चप्पलें वहीं रह जातीं, उधर बहुत
पीछे पिछड़ गयी आण्टी अधैर्य की हाँक लगाने लगतीं, ''तुम्हारी
यह आदत ही हमको नापसन्द है विवियन, मैं पूछती हूँ कौन-सी
रेलगाड़ी छूटी जा रही है, जो ऐसी भागदौड़ मची है। रुक जा, मुझे
आने दे, साथ चलेंगे।''
''ओ माई गॉड,'' विवियन अधैर्य से बालू पर ही बैठकर फुसफुसायी,
''देख रही है ना आण्टी को, अब अगले माघ मेले तक यहाँ
पहुँचेंगी।''
''चुप कर, अण्टी सुनेगी तो क्या कहेंगी, ''कली स्वयं बड़ी
चेष्टा से अपनी हँसी रोक रही थी।
जीन्स पहनकर आण्टी और भी विराf लग रही थीं। उस पर उस हो-हल्ले
में भी किसी का कूर रिमार्क, जिसे शायद विवियन नहीं सुन पायी
थी, कली ने सुन लिया था।
''देख यार, आज हाथी पैण्ट पहनकर गंगा नहाने को निकला है।''
होंठ काटकर कली ने हँसी रोक ली।
बड़ी देर बाद हाँफती, पसीने से लथपथ आण्टी उन तक पहुँचीं और
पूरा दल एक बार फिर साथ-साथ चलने लगा।
सामने फूस की छायी झोंपड़ियों की पूरी क़तार बिखरी थी। उजाला
निखर आया था, कुछ तीर्थयात्री हाथ में निचुड़ी, टपटप पानी
टपकाती धोतियाँ लटकाये लौट रहे थे, कुछ सूखी धोतियाँ कन्धे पर
लटकाये नहाने जा रहे थे। विभिन्न पण्डों के चिह्न तोरणद्वारों
से मीठी प्रभाती गूँजने लगी थी। दक्षिण के वेंकटेश्वर की
सुमधुर स्तुति के लयवद्ध छन्दों की रूपक ताल के साथ जवाबी
संगत-सी देती घण्टाध्वनि को कली चकित मृगी-सी ठिठककर सुनने लगी
कि आण्टी ने लपककर उसे अपने पास खींच लिया। फायर ब्रिगेड की ही
भाँति भीड़-भरी सड़क के ट्रैफिक की ओर से एकदम उदासीन नागा
साधुओं का एक जत्था कली की कनपटी से गोली-सा सनसनाता निकल गया।
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