कहानी संग्रह >> ये जीवन है ये जीवन हैआशापूर्णा देवी
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इन कहानियों में मानव की क्षुद्र और वृहत् सत्ता का संघर्ष है, समाज की खोखली रीतियों का पर्दाफाश है और आधुनिक युग की नारी-स्वाधीनता के परिणामस्वरूप अधिकारों को लेकर उभर रहे नारी-पुरुष के द्वन्द्व पर दृष्टिपात है।
पत्रावरण
शनिवार उत्सव का दिन होता है। उस दिन शाम को भी रसोई की खिड़की से धुआँ दिखाई
देता है। पुराने गोसाईबाड़ी के बाग में खेलते-खेलने पीतू की दृष्टि उस
धूमकुण्डली पर पड़ी तो वह चौंक उठी।अरे! आज शनिवार है न। सुबह ही दादी ने कहा था पर याद ही नहीं रहा। कपड़े से धूल झाड़कर पीतू बोल उठी...''और नहीं खेलूँगी रे, अब घर जाना है।''
सहेली लावण्य ने विनती की, ''अरे! इतनी जल्दी थोड़ी देर और खेलना पीतृ!''
सहेली की विनती से द्रवित होकर पीतू ने आकाश की बढ़ती हुई लाली की ओर देखा, सोचने लगी सखी की बात मान ले या नहीं। मगर नहीं, दिन ढलने को है, पता नहीं कब आकाश ने सोने की चादर ओढ़ ली। इसलिए बोली, ''नहीं रे। आज पिताजी आएँगे, जाने दे।''
लावी मुँह बनाकर बोली, ''पिताजी आएँगे तो ऐसा क्यों करती है? क्या सिर्फ तेरे ही पिताजी आएँगे, मेरे नहीं? मैं भाग रही हूँ तेरे जैसे?''
पीतू को शायद इसका सही जवाब नहीं मिला तो घबराकर बोली, ''तेरे पिताजी तो बुड्ढे है।''
''अरे पाजी कहीं की।" लावी क्रोधित होकर बोली, ''मेरे पिताजी बुडढे हैं? ऐसे बात करती है आजकल? मेरे पिताजी तेरे ताऊजी लगते है कि नहीं? ठहर जा, आज तेरी माँ को बताती हूँ।''
यद्यपि पीतू और लावण्य दोनों सखियाँ अभिन्नहृदय थीं फिर भी कोई किसी का दोष माफ करने को तैयार नहीं होती। हालाँकि पीतू यह तर्क नहीं उठाती कि ताऊजी जैसे व्यक्ति को बुड्ढा कहना अपराध है भी कि नहीं। घबराकर कहती, ''नहीं बताना बहन, तेरे पाँव पड़ती हूँ। मुझे क्या पता कि ऐसा नही करना चाहिये। पके बाल दिखते है इसीलिए। नहीं कहेगी न?''
क्षमा की मूर्ति लावी ने आश्वासन देते हुए कहा, ''ठीक है नहीं कहूँगी। मगर उसके बदले और एक दाँव खेलना पड़ेगा।''
''बड़ी देर हो गयी रे लावी। पिताजी के आने से पहले मुँह-हाथ धोकर साफ़ कपड़े पहनने पड़ेंगे कि नहीं?''
लावी हँसकर बोली, ''बाप रे! पिताजी तो जैसे सिर्फ़ तेरे ही आते हैं, और किसी के नहीं। पिताजी आएँगे, नहीं खेलूँगी, पिताजी आएँगे, कपड़े बदलने पड़ेंगे...पिताजी कोई कुटुम्ब है क्या?''
कहने की आवश्यकता नहीं, पीतू और लावी की उम्र में समानता होते हुए भी बुद्धि में अन्तर था। सखी के व्यंग्य से घबराकर पीतू बोल उठी, ''वाह, कुटुम्ब क्यों होंगे? फटे कपड़े पहनने से पिताजी को पता नहीं चल जाएगा कि हम गरीब हैं?
इतना सुनकर भी लावी की हँसी का फव्वारा बन्द रहे, ऐसा कैसे हो सकता था? अपनी हँसी के छूटते फ़व्वारे में पीतू को डूबा छोड़ा उसने और हाँफते हुए कहा, ''अरे बाबा, कितनी बेवकूफ है तू? तू और तेरे घरवाले गरीब और तेरे पिताजी अमीर हैं क्या? तेरे पिताजी गरीब हैं तभी तो तू गरीब है।''
पीतू का चेहरा तमतमा गया, ''नहीं, कभी नहीं। मेरे पिताजी गरीब नहीं हैं। कभी आकर देखना कितने साफ़-सुथरे कपड़े पहनते हैं। कितना कुछ लाते हैं सबके लिए।''
लावी उसी स्वर में बोल उठी, ''हाँ, कितने गहने हैं तेरी माँ के पास।'' लावी की उम्र आठ ही है, मगर उससे क्या? जबसे बोलना सीखा है, ऐसी बुजुर्गों वाली बाते ही करती है वह। माँ-चाची की असावधानी के कारण अकसर लड़कियाँ ऐसा करना सीख जाती हैं।
गहने की बात उठी तो पीतू ने पराजय स्वीकार कर ली। रूठकर बोली, ''अच्छा बाबा, हम गरीब ही सही, ठीक है न?''
''ओ हो, नाराज़ हो गयी? चलो नहीं कहती गरीब। कल खेलने आएगी न?''
''नहीं, माँ डाँटेगी।'' रविवार को पीतू इधर-उधर घूमती फिरे यह उसकी माँ को पसन्द नहीं। यह लावी को भी मालूम था, तब भी पूछ बैठी।
जवाब भी मालूम ही था इसीलिए नाराज़ होकर लावी बोली, ''यही तो मुश्किल है। रविवार आते ही मेरे बदन में आग लग जाती है।''
पीतू हैरान होकर बोली, ''क्या? रविवार आने से तन-बदन में आग लग जाती है?...पिताजी के आने पर खुशी नहीं होती?''
''नहीं बिलकुल नहीं। आकर कौन-सा हमें राजा बना देते हैं। केवल माँ के साथ गप्पें लड़ाते या ताश के अड्डे पर जाते हैं। मेरे हिस्से में तो सिर्फ़ डाँट खाना लिखा होता है। देखते ही डाँटना शुरू कर देते हैं। देखा कि डाँटना शुरू। अच्छा है, कोलकाता में रहते हैं।''
''मेरे पिताजी बिलकुल नहीं डाँटते हैं।'' अपना खोया हुआ गौरव वापस मिला पीतू को। लावी ने भी उसके पितृ-गौरव को ठेस नहीं पहुँचायी। गम्भीर भाव से बोली, हाँ, पंकज चाचा आदमी अच्छे हैं। जा, तू घर ही जा नहीं तो माँ से फिर डाँट जाएगी।'' कहकर आठ वर्ष की लावी ने भी बुजुर्गों की चाल में अपने घर की ओर कदम बढ़ाया।
उसका ऐसा आचरण अविश्वसनीय नहीं था। प्राय: बच्चा समझकर जिन्हें हम अनदेखी कर देते हैं, कभी उन्हीं की बातचीत पर कान देने पर पता चलता है कि वे उतनी अनदेखी करने के योग्य नहीं है।
पीतू जैसी लड़कियाँ ही इसका व्यतिक्रम थीं। धीरे से अन्दर झाँका और चैन की साँस ली पीतू ने। नहीं, अभी तक पिताजी के आविर्भाव की घोषणा उच्चारित नहीं हुई। इसलिए निश्चिन्त होकर प्रवेश कर सकती है। जग से पानी निकालकर हाथ-पाँव धो डालने, कपड़े बदलने और कंघी लेकर बाल सँवारने भर की देर थी। फिर पीतू को किसका डर।
लोटे-बाल्टी का काम लाख धीरे करने पर भी लाभ नहीं हुआ। माँ बोली, ''अब तक खेल चल रहा था? जा झटपट मुँह-हाथ धो ले। चौकी पर कपड़े रखे हैं।''
''चलो, थोड़े में ही छुटकारा मिल गया,'' पीतू ने सोचा। खुश होकर जल्दी से तैयार हो गयी और चौके के सामने आकर हँसकर दादी से पूछा, ''आज क्या पकाओगी दादी?''
दादी उसे देखकर बोलीं, ''तू ही बता, तेरा ही तो बेटा आ रहा है न।''
'धत्' कहकर अन्दर जाकर पीतू चौकड़ी मारकर बैठ गयी। आँखें खुशी से बड़ी-बड़ी हो गयी। बोली, ''कचौड़ी बना रही हो माँ?''
कचौडी बनाने की तैयारी में एक मधुर संकोच छिपा था। मनोरमा के चेहरे पर एक दबी मुस्कान बिखर गयी। जवाब दादी ने ही दिया, ''हाँ पीतू तेरे पिता को कचौड़ी बहुत पसन्द हैं। हालाँकि वहाँ कोलकाता में कितना कुछ मिलता है पर घर के पकवान की बात ही कुछ और है। रोज थोड़ा-थोड़ा तेल बचाकर...''
''रहने दीजिए माँ, बच्ची है, कब बोल बैठेगी।'' मनोरमा ने बीच में ही रोक दिया उन्हें।
दादी बात को सँभालने के लिए बोलीं, ''हमारी पीतू ऐसी नहीं है। बड़ी होशियार है। है न पीतू?''
पीतू लजाकर हँस पड़ी।
मनोरमा बोली, ''गरम-गरम बना रही हूँ, अपने हिस्से की दो कचौड़ी खा ले।''
सुनकर मुँह में पानी भर आया, फिर भी अपनी तीव्र भूख का दमनकर उदासीन
स्वर में पीतू बोली, ''अभी भूख नहीं हे। पिताजी के साथ खाऊँगी।''
''साथ तो खाएगी मगर सामने बेठकर अपनी उँगलियाँ तो नहीं चाटेगी न?'' हँसकर मनोरमा बोली।
नहीं, उस एक दिन की असावधानी की बात को कोई भूलता ही नहीं। शर्म से लाल होकर वह बोली, ''रोज़ ऐसा थोडे ही करती हूँ मैं, वह तो सिफ़ एक दिन।'' हँसकर मनोरमा बोली, ''और आज क्या करेगी? कहेगी, कचोड़ी क्या चीज़ है दादी ? खाने में केसी होती है? यही न?''
पीतू को मुसीबत से बचाने के लिए दार्दा मेदान में उतर पडी। कृत्रिम क्रोध के स्वर में बहू से बोलीं, ''तुम्हें तो बस एकु ही काम आता है। मोक़ा मिलते ही पीतू को चिढाना। वह इतनी बुद्ध है क्या, ही? क्या कहेगी ३ पीतू?''
दादी का आसरा पाकर बडे उत्साह से पीतू बोल उठी, ''क्या कहूँगी ? कहूँगी, कचोडी तो हम लोग हरदम ही खाते हें। दादी अकसर बनाती हैं। खा-खाकर हमारा तो जी ऊब गया हे। आप जी भरकर खाइये पिताजी।''
हँस पड़ी मनोरमा। बोली, ''बस, बस। इतना सब कहने की कोई जरूरत नहीं हे। सिर्फ सामने बैठकर पत्तल नहीं चाटना 1 इतना ही काफ़ी है।''
पीतू ने अब उत्सुक दृष्टि चारों तरफ दोड़ायी, अगर इस शुभ दिन पर ओर कोई विशेष पकवान दिख जाएँ। ऐसा होता है कभी-कभी। जैसे पिछली बार दादी ने नारियल काटकर रखे थे। पीतू ने माँगा नहीं था। सिर्फ पूछा था, ''वह क्या है दादी,'' तभी दादी ने थोड़ा-सा निकालकर उसे हाथ में दे दिया था।
आज नारियल तो नहीं दीखा मगर कुछ भीगे चने एक कटोरे में रखे थे जो कच्चे भी खाये जा सकते थे। पीतू बोली, ''भीगे चने का क्या बनाओगी दादी ?'' मनोरमा ने अब डाँट लगायी, ''बनेगा क्या, सन्ही में डाले जाएँगे। भूख लर्गा है तो जौ खाने की चीज है खा ले न।''
दादी समझती थीं अपनी पोती को। बहू को डाँटकर बोलीं, ''उसने तुमसे कहा तो नहीं कि भूख लगी है। हर बात के लिए उसे डपटती क्यों हो बहू? चने डालकर लौकी की सब्जी बनेगी ३ पीतू। लावी की बुआ आयी थी, अपने बगीचे की लौकी दे गयी 1 इतनी नरम है। तेरे पिता को बहुत पसन्द है रोटी के साथ यह सघनी। ले, तब तक थोडा-सा चना खा ले।'' दादी ने थोडे से चने उसकी तरफ बढ़ा दिये। मगर पीतृ इतनी जल्दी हाथ कैसे बढाती, आखिर उसका भी कुछ आत्मसम्मान हे कि नहीं? तिरछी दृष्टि से माँ की तरफ देखने लगी।
''रहने दे, अब शर्माने की ज़रूरत नहीं है।'' मनोरमा हँसकर एक चुटकी नमक बढ़ाकर बोली, ''ले, नमक के साथ खा, अच्छा लगेगा। चौके में क्यों, बाहर जाकर बैठ न।''
यह एक संकेत था। 'बैठ न।' का अर्थ था 'देख न'। पिता को आते हुए देखना ही तो एक बड़े आनन्द की बात थी।
एक बार दादी नहीं थीं, गंगास्नान करने त्रिवेणी गयी हुई थीं, उस बार माँ-बेटी दोनों मिलकर घण्टे-भर पहले से तैयार होकर दरवाजे पर खड़ी हो गयी थीं।
''आ गये। आ गये। पिताजी आ गये।'' पीतू बोल उठी।
चौके में बैठी मनोरमा का दिल जोर से धड़क उठा। 'शादी के ग्यारह वर्ष बीत गये, फिर भी।
हँसते-हँसते पंकज बेटी की आवाज़ नकल कर बोलने लगा-
''देखो देखो, मैजिक देखो
पीतू रानी का बापू देखो
चार पैसे का टिकट फेंको,
पीतू रानी का बापू देखो।''
ऐसा ही फुर्तीला स्वभाव था पंकज का। हर बात मे हंसना। इसके बाद भी पीतू अपने पिता की पीठ से लिपट न जाती इतना धीरज पीतू को कहाँ।
मनोरमा ने दबी आवाज़ में डाँट लगायी, ''हो गयी शुरू। थक-हारकर कोई घर आया, उसे आराम तो करने दो।''
मगर पीतू को अब माँ से डर नहीं लगा। नहीं लगने के दो कारण थे। पहला तो यह कि पिता उसके परम सहायक थे, दूसरी बात यह कि माँ के चेहरे पर जो खुशी की छटा बिखर रही थी वह पीतू से छिपी न थी। इसलिए माँ से डरना अनावश्यक लगा उसे।
महामाया का शुद्धाचार गाँव भर में प्रसिद्ध था।
उनके घर में यात्रा के कपड़े में पानी तक छूना मना था। मनोरमा जाकर हाथ-मुँह धोने के लिए पानी देने लगी तो दबी आवाज़ में हँसकर पंकज बोला, ''प्यासे को पानी न देकर पैर धुलाने में कोई पुण्य नहीं है।''
मनोरमा मुस्कुराकर बोली, ''अच्छा, रहने दो। अब बेटी बड़ी हो रही है। बातचीत सँभलकर करना सीखो।''
''बेटी! अभी बहुत देर है उसके बड़े होने में।'' कहकर सस्नेह दृष्टि से पास खड़ी कन्या को निहारने लगा पंकज।
''वही तो मुश्किल है। अभी माँ को पूछने दौड़ेगी, दादी, प्यासे का पानी क्या होता है?''
दोनों ही हँस पड़े। 'हाथ-पैर धोने में इतनी देर...' पीतू ने सोचा।
मनोरमा बोली, ''फिर इतना ढेर सारा सामान खरीद लाये? फ़िजूलखर्ची तुम्हारी आदत बन गयी है। इतना छोटा परिवार हमारा, कौन इतना खाएगा बताओ तो?
पिछली बार जो पापड़ लाये थे, अभी तक रखा है। फिर ले आये?''
मुँह बनाकर पंकज बोला, ''ठीक है, अगर तुम लोग नहीं खाओ तो मैं नहीं लाऊँगा।''
''ऐसी बात नहीं है। केतना खाएँगे हम लोग? ढेर सारी सब्जियों से छुट्टी मिले तब तो?''
''इतना कौन दे रहा है? किसी और के साथ बन्दोबस्त तो नहीं कर लिया है?'' पंकज हँसने लगा।
''अब ऐसा ही कुछ करना होगा। जिस तरह बेशर्म होते जा रहे हो, साथ निभाना मुश्किल है।''
उधर से महामाया ने आवाज़ लगायी, ''ओ पंकज बेटा, मुँह धोया कि नहीं? कचौड़ी ठण्डी हो रही हैं। खाकर आराम से बातें करना बेटा।''
''हो गया न?'' तीक्ष्ण कटाक्ष से पति को बेधकर तेजी से हट गयी मनोरमा।
पंकज जलपान करने बैठा।
खिलाने का काम महामाया ने अपने हाथों में रखा था। बहू खिलाती तो दिल नहीं भरता था। उनके तौर-तरीक़े जानती नहीं क्या वह, खिलाते समय ही ऐसा हँसी-मज़ाक्र छेड़ देगी कि खानेवाले को पता भी नहीं चलेगा कि क्या खाया और खिलानेवाली भी यह पूछना भूल जाएगी कि ठीक से खाया या नहीं।
बड़े जतन से, बड़ी निष्ठा से, जी-जान से बनाये गये पकवानों की ऐसी अवहेलना उन्हें सहन नहीं होती। पास बैठकर खिलाएँगी, थोड़ा-सा और लेने की जिद करेंगी, कैसे बने हैं यह सब पूछेंगी, तब तो दिल को ठण्डक पहुँचेगी।
महामाया मछली को हाथ नहीं लगातीं।
रविवार को मछली मँगाकर मनोरमा ही बनाया करती थी। मगर परोसने के समय महामाया जाकर खड़ी रहती थीं। एक दिन कोई विशेष व्यंजन देना भूल गयी थी इसके लिए सास ने मनोरमा को खूब खरी-खोटी सुनाई थी। वैसे बहू के प्रति वह स्नेहशील ही हैं। मगर बेटे के मामले में रियायत नही करतीं।
पंकज आराम से खाने बैठा और बोला, ''कचौड़ी और आलू की भाजी? इससे अच्छा और हो ही क्या सकता था? बिलकुल रईसों का नाश्ता है आज।''
महामाया गद्गद स्वर में बोलीं, ''कचौड़ी तो नाम के लिये है बेटा। आज ही घी खत्म हो गया, तेल में ही छानना पड़ा। खा ले गरम-गरम, बुरा नहीं लगेगा।''
''बुरा?'' एक कौर मुँह में डालकर परितृप्त होकर बोला पंकज, ''तेल में तला ही तो इतना अच्छा होता है। और देखो, कोलकाता में नौकर कड़ाही भर-भरकर घी जलाता है। फिर भी मजाल है कि ऐसी कचौड़ी कोई बना सके! सच बता रहा हूँ माँ, पिछले कुछ दिनों से ऐसे ही तेल में तले चने दाल की कचौड़ी खाने का बड़ा
दिल कर रहा था।''
महामाया छलकते आँसू रोक न पायीं।
रुँधे हुए स्वर में बोलीं, ''माँ का दिल है बेटा। सच ही कहा है न 'मैं रोया परदेश में, भीगे माँ का प्यार।' उमड़ते प्यार के तरंग स्वरूप थाली में रखी बाक़ी कचौड़ियाँ भी बेटे की थाली में डाल दीं महामाया ने।
अब तो पंकज नाराज़ होने लगा।
''बस करो। सब मुझे दे दिया? उफ्, तुम लोगों के सामने तो पकवान की तारीफ़ करना भी मुश्किल है। इतनी सारी कचौड़ियाँ मैं अकेले कैसे खाऊँ?''
''खाएगा कैसे नहीं? रात को रोटी कम खा लेना।''
''और तुम लोग नहीं खाओगी? कम-सें-कम दो तो रख लेती?''
''बहू के लिए रखा है अन्दर, पीतू को भी खिला दिया, अब किसके लिए रखना, मैं रात को दाल की बनी चीज़ खाती हूँ क्या?''
पंकज बड़े अफ़सोस के साथ बोल उठा, ''छि. छि:, फिर आज क्यों बनायीं? कल सुबह बना लेतीं?''
स्नेह से सरस-कोमल हो गया महामाया का चेहरा, बोलीं, ''सुन लो बात, कौन सी बड़ी चीज़ है दो कचौड़ी कि माँ ने नहीं खायीं तो तूफ़ान खड़ा कर रहा है। खाती नहीं क्या? बहू तो अकसर बनाती रहती है। आज ही तो कह रही थी, ''माँ, दशमी के दिन आपको भरपेट दालपूरी खिलाऊँगी।''
'खाना पकाने का नशा है उसे।''
''हाँ, है तो तुम्हारी ही बहू, तभी तो इतने गुण हैं। क्यों पीतू, रोज कचौड़ी-दालपूरी खाती है?''
''रोज़।'' पीतू जैसे एक मरूस्थल में खड़ी दिशा खोजने लगी। कहाँ है वह दुर्लभ वस्तु, प्रतिदिन के भोजन में भात या रोटी को छोड़कर जो कुछ जुट जाता था वह आस-पड़ोस से कुछ साग, झोल या फिर पड़ोसियों से भेंट में मिला बैंगन, लौकी या करेला। पिताजी आलू लाते थे मगर उसमें से अधिकतर अगले शनिवार के लिये बचाकर रख दिया जाता था। पीतू को इस बात का कोई दुःख नहीं था। शनि-रविवार उत्सव का दिन था, पीतू जानती थी।
लेकिन यह सब तो उसने पलभर में सोच लिया और हड़बड़ाकर बोली, ''रोज़ तो नहीं मगर अकसर खाते हैं।''
अबोध लड़की झूठ नहीं बोलेगी यह सोचकर निश्चिन्त हो गया पंकज। बड़े आश्चर्य से बोला, ''इतने कम खर्च में कितनी अच्छी तरह निभा लेती हो तुम लोग, वहाँ कोलकाता में! हूँ।''
महामाया सन्दिग्ध स्वर में बोलीं, ''फिर क्यों कहता है, वहाँ खाना अच्छा मिलता है?''
''अरे हाँ, अच्छा पैसा भी तो लेते हैं। तुम तीन लोगों पर जितना खर्चा होता है उतना अकेले मुझे देना पड़ता है।''
''तो इसमें अफसोस किस बात का? मेहनत करके कमाना पड़ता है, खाएगा क्यों नहीं ठीक से?''
बड़े उत्साह से पीतू बोल उठी ''यहाँ सब कुछ सस्ता जो है पिताजी। आपके कोलकाता जैसा नहीं है। हमलोग कितना कुछ खाते हैं। दादी तो रोज़ खीर पकाती है, तब आपकी याद बहुत आती है। कल फिर बनाओगी दादी?''
महामाया को खाली चीनी का डिब्बा याद आ गया। इसलिए झिझककर बोलीं, देखती हूँ, दूधवाला अच्छा दूध दे तभी तो बनाऊँगी। पानी अधिक मिलाया तो नहीं बनाऊँगी।''
पंकज गिलास का पानी पूरा पी गया और चाय का प्याला हाथ में लेकर बोला, ''बहुत पानी मिलाता है क्या?''
दूधवाले की शिकायत करने में थोड़ी झिझक महसूस होती महामाया को। क्योंकि दोष दूधवाले का नहीं था। उसके पास तरह-तरह का दूध रहता है। महामाया अगर रुपये में ढाई सेर दूध लें तो दूध का रंग पानी से ही मिलता-जुलता होगा न?
इसलिए महामाया पंकज की बात को टालकर बोलीं, ''ज़यादा दूध माँगो तो पानी ज़रूर मिलाएगा। ग्राहक बँधे हुए हैं। एक छटाँक भी दूध बचने पाए तब न! इस देश का क्या हाल हो गया है!''
इस प्रकार प्रसंग बदल गया। पुराने दिनों की बात छिड़ी। निराशा-भरे भविष्यहीन, वर्तमानहीन जीवन का एकमात्र आश्रयस्थल उसका अतीत ही होता है। वही पुराने दिनों में खो जाना। सब कुछ लुटाकर आदमी अपने अतीत की गौरव गाथा का बखान करता है। अभाव-पीड़ित दरिद्र अपने अतीत ऐश्वर्य की रंगीन छवि में डूब जाता है।
''पीतू, पान ले जा।'' अन्दर से मनोरमा ने आवाज़ दी। दो पान उसके हाथ में थमाकर दबी आवाज़ में उसने डाँटा, ''खीर के बारे में क्यों बक रही थी इतना?'' पीतू अपराधी-सी सर झुकाकर खड़ी रही।
माँ और दादी दोनों को पिताजी के सामने हवाई महल बनाते देखकर उसे लगता था कि यह एक बड़ा मज़ेदार खेल है।
मनोरमा में भी इस गलती के लिए अधिक डाँटने की हिम्मत नहीं थी। इसलिए नर्म होकर बोली, ''अच्छा जा, पान दे दे। उल्टी-सीधी बात मत करना। थोड़ा पढ़ क्यों नहीं लेती उनके पास? ये भी तो वैसे ही हैं, बेटी को थोड़ा पढ़ाना चाहिए, याद ही नहीं रहता।''
पढ़ाई ठेंगे से! अभी पढ़ने बैठेगी? पागल तो नहीं हो गयी पीतू? कितनी अच्छी-अच्छी बातें करेगी वह, अभी ऐसे में पढ़ने की बात। छि:।
पंकज भी पिता के कर्तव्य भूलकर बेटी से तरह-तरह की मजेदार बातें करने लगा। बातें भी क्या थीं-शून्य में स्वर्ग-रचना। ऐसा कहा जा सकता है कि इस कहानी का शीर्षक होगा, 'जब ढेर पैसे होंगे।'
लॉटरी में जीतना तो सुनिश्चित था, केवल तारीख का पता लगाना बाकी था। खैर, उससे क्या! पैसे कैसे खर्च किये जाएँगे यही मुख्य चिन्ता का विषय था। बाप-बेटी इसी चिन्ता में निमग्न थे।
अच्छे कपड़े, अच्छा खाना, ढेर सारे खिलौने, दादी के पूजा-घर के लिये चाँदी का सिंहासन, सोने की झालर, माँ के लिए भारी-भारी गहने, पिता के लिए अच्छी-सी घड़ी और एक चश्मा-इन सब बातों में बाप-बेटी एकमत थे, मतभेद होने लगा केवल एक विषय पर।
पंकज चाहता था सब कोलकाता चलें पर पीतू जाने को एकदम तैयार नहीं थी। यह घर, यह गाँव, लावी और सारी सखियाँ, गोसाईंबाड़ी के पुराने खँडहर में ईंटों के ढेर के बीच छोटा-सा उनका खेलने का घर, आँगन में अमरूद के पेड़ पर लगा झूला...यह सब छोड़कर जाने की बात पीतू सोच भी नहीं सकती थी।''
पंकज ने दफ्तर का नाम लेकर कोलकाता की तरफ़दारी की तो पीतू ने गाँव के एक डॉक्टर की मिसाल दे दी जो अपनी गाड़ी में रोज़ कोलकाता आया-जाया करता था। जब ढेर सारे पैसे होंगे तो गाड़ी खरीदना मुश्किल होगा क्या!
बातों ही बातों मे अचानक पीतू पूछ बैठी, ''पिताजी आप गरीब हैं क्या?''
पलभर के लिए पंकज सकपका गया। फिर ठहाका लगाकर हँस पड़ा, ''हा-हा-हा, किसने कही यह बात?''
पिता को हँसते देखकर पीतू की हिम्मत बढ़ी। तभी उपेक्षा भाव से बोली, ''कहेगा और कौन?''
''वही लावी।''
''अरे लावी क्या कहेगी?'' अपनी छाती पर हाथ ठोंककर पंकज बोल उठा, ''मेरे जैसा अमीर इस पूरे गाँव में कोई नहीं है, समझी? कोई नहीं।''
ऐसी घोषणा सुनकर पीतू ने कुछ हैरान दृष्टि से पिता की ओर देखा। इससे वह सम्पूर्ण निश्चिन्त तो न हो सकी मगर पिता का उज्जवल मुखमण्डल उसी बात की साक्षी दे रहा था।
अपने संशय को मिटाने के लिए पीतू बोली, ''फिर आपके जूते फटे हुए क्यों हैं?''
''जूते!''
जूते देख लिए क्या उसने? पंकज ने सोचा। कपड़ों की तरह जूतों को चमकाना आसान नहीं होता। तभी तो अँधेरे कमरे में छिपाकर रखा था उन्हें।
मगर बेटी से हार माने तो कैसे? सहज होते हुए बोला, ''ओह, जूते क्यों फटे हैं, यही न? अरे! खरीदूँगा कब? दुकान जाने की फुर्सत मिले तब न? देख न, शनिवार होते ही तो घर आ जाता हूँ। रविवार बिताकर जो गया तो ऑफिस के काम में फँस जाता हूँ। बाकी दिन भी ऑफिस। कब खरीदूँ। जेब में पैसे लेकर घूम रहा हूँ।''
सुनकर बड़ा आश्चर्य होता पीतू को।
समय नहीं मिलता?
उसे तो समय एक अनन्त स्रोत की तरह लगता था। उषा के आगमन से निशा के अवतरण तक अन्तहीन समय की धारा बहती रहती थी। कितने ही दिन और रात उस अनन्त कालव्यापी तरंग में बह जाते। गोपाल चाचा दिन-भर तम्बाकू पीते और खाँसते रहते थे। चौधरी नाना तो चण्डीमण्डप पर बैठे सुबह से शाम तक गप्पें लड़ाते रहते थे। लावी की बुआ लौकी की एक टुकड़ी लेकर पड़ोस में बाँटने के बहाने सुबह से घर-घर टहलती फिरती थी। कहीं दौड़धूप नहीं, कहीं परेशानी नहीं। सब जगह शान्ति लगती थी। और बेचारे पिताजी।
समय की कमी के कारण फटे जूते पहनकर घूमना पड़ता है उन्हें।
एक प्रकार का खेल चल रहा था पंकज के घर। सभी विभोर थे उसे खेलने में। किसने प्रथम आविष्कार किया था इस खेल का, अब कहा नहीं जा सकता। पंकज?...महामाया?...मनोरमा?... नहीं, किसी को याद नहीं। मगर कोई इसका मज़ा किरकिरा नहीं करता। क्योंकि खेल के रुकते ही एकाएक गरीब हो जाएँगे ये लोग। उस गरीबी पर फिर कोई पर्दा भी तो नहीं रह जाएगा।
अचानक महामाया की रसोई में घी खत्म होने का राज खुल जाएगा। पंकज के समय की कमी की कहानी भी टिक न पाएगी।
उससे तो यही अच्छा है, इस प्रकार मधुर मिथ्या का जाल बुनना।
इस तरह पंकज ने बड़े उत्साह के साथ बोलना शुरू किया, ''सिर्फ जूता ही क्यों? कितना कुछ नहीं कर पाता हूँ समय की कमी के कारण, पता है? बाल झरते जा रहे हैं, एक अच्छा तेल नहीं खरीद पाता, तेरी माँ इतना अच्छा स्वेटर बुनती है, मगर ऊन खरीद कर ला दूँ इतना समय ही नहीं मिलता और तुझे भी तो कितना कुछ चाहिए...कुछ भी नहीं कर पाता हूँ समयाभाव के कारण।''
बालिका के सामने झूठ बोलने में पंकज का विवेक कुण्ठित नहीं होता। समय की कमी-यह बात झूठ है क्या? समय की कमी के कारण ही तो कुछ भी नहीं हो रहा है। यह समय एक दिन अवश्य आएगा, ऐसा पंकज का विश्वास था। वर्तमान
आर्थिक संकट को निहायत ही एक सामयिक अवस्था मानता था वह। वह सुधर ही जाएगी। जब समय आएगा तभी शुरू होगा यथार्थ जीवन। उस जीवन के प्रत्येक पल की छवि पंकज के मानस पट पर अंकित है। जेब में पैसे लेकर घूमना?
वह भी झूठ नहीं है। वह जेब उसकी कमीज़ में लगी नहीं है अभी, मन में है, बस इतना ही अन्तर है।
पिता की बात से सम्पूर्ण सन्तुष्ट होकर पीतू मन ही मन लावी को स्मरणकर चिढ़ाकर बोल उठी, ''लावी न गोभी!''
पंकज ठहाका मारकर हँस पड़ा। उसकी आवाज़ से आकृष्ट होकर मनोरमा आ खड़ी हुई। रसोई का काम पूरा हो गया था। महामाया सन्तुष्ट होकर पूजा के लिए बैठ गयी थीं।
तभी मनोरमा निश्चिन्त होकर पति के पास आ बैठी।
''इतना हँस क्यों रहे हो?''
पंकज मुँह बनाकर बोला, ''जो पास नहीं बैठते उन्हें पता भी नहीं लगना चाहिए। मत बताना पीतू हमलोग क्यों हँस रहे हैं।''
''लो बैठ गयी, अब तो ठीक है?'' हँसकर बोली मनोरमा।
पंकज ने और भी मुँह बना लिया और कहा, ''उससे पहले यह तो कहो कि तुम क्यों हँस रही हो? तुमसे तो किसी ने हँसी की बात नहीं की? आकर बैठी और हँसने लगी? इसका मतलब?''
''कहाँ हँस रही हूँ मैं? अरी पीतू, मैं हँस रही हूँ क्या?'' मनोरमा ने चेहरे पर गम्भीरता लाने की पूरी कोशिश की।
पीतू ने माँ की तरफ़ देखा। लालटेन की उज्ज्वल किरण के ठीक सामने मनोरमा बैठी थी। उसके झुके हुए चेहरे की हर रेखा से किरण की आभा फूट रही थी। मगर ऐसी आभा क्या सिर्फ़ लालटेन की रोशनी दे सकती थी? प्रतिदिन शाम को माँ लालटेन की रोशनी के आगे बैठती हैं। जब पिताजी नहीं होते तो किताब पढ़ती हैं या पीतू को पढ़ाती हैं। तब उनके चेहरे पर वह किरण बाहर से आकर बिखरती है, इस प्रकार भीतर से स्फुरित तो नहीं होती? यह आलोकित मुखमण्डल उसे अनजाना, अलौकिक-सा लगने लगा।
अपनी बेटी के अवाक् चेहरे की ओर देखकर पंकज मुस्कुराया और बोला, ''सुन लो, पीतू की लावी गोभी ने क्या कहा! कि पीतू के पिताजी गरीब हैं। हँसनेवाली बात है कि नहीं?''
''क्यों नहीं?'' मनोरमा का किरण-सा चेहरा झलक उठा। एक अजीब चमक आयी उसके चेहरे पर। बोली, ''गरीब क्या? ये तो सम्राट हैं।''
''सुन लिया न पीतू'' कहा था न मैंने कि मुझसे धनी इस गाँव में कोई नहीं है?
पिता की तरफ मुड़कर देखा पीतू ने। आश्चर्य चकित रह गयी। पिता के मुख पर भी वही अलौकिक आभा बिखर रही थी। पीतू को ऐसा लगा जैसे इनकी ये साधारण बातें निहायत साधारण नहीं हैं। इनकी यह हँसी भी कुछ और कह रही है। इनके मुस्कुराते हुए चेहरों की हर रेखा में अंकित है कुछ और भी, जिसे समझ पाना पीतू के बस की बात नहीं।
फिर भी कितनी अनोखी! कितनी सुन्दर! खुशी के आवेग से पीतू की आँखें छलछला उठीं।
अगर इसी समय लावी को बुलाकर दिखा सकती! अगर लावी माँ को अभी देखती तो क्या उनके गहने कम होने की हँसी उड़ा सकती?
गहने हैं कि नहीं, याद भी रहता क्या?
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