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ये जीवन है

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1204
आईएसबीएन :81-263-0902-4

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इन कहानियों में मानव की क्षुद्र और वृहत् सत्ता का संघर्ष है, समाज की खोखली रीतियों का पर्दाफाश है और आधुनिक युग की नारी-स्वाधीनता के परिणामस्वरूप अधिकारों को लेकर उभर रहे नारी-पुरुष के द्वन्द्व पर दृष्टिपात है।


अगर दीवार बोल सकती
शुरू में समाचार जो लाता है, वही लाया था, कहने का मतलब 'सर्यविद' रथीन सेन। रथीन सेन जैसा इतने उच्च स्तर का संवाददाता इस 'विरही' गाँव में दूसरा नहीं है।
नहीं तो प्रतिदिन कोलकाता जाने-आने वालों की संख्या स्त्री-पुरुष मिलाकर तो यहाँ कम नहीं है। बहू-बेटियाँ भी तो आजकल डेली पैसेंजरी करती हैं किसी-न-किसी काम से। रमेश घोष की बेटी  केतकी तो केवल संगीत सीखने के लिए ही प्रतिदिन कोलकाता जाती है। रवीन्द्र, नज़रूल,  अतुलप्रसाद, इन तीनों सागर का मन्थन करके अमृत संचित करने के लिए अपने संगीत का  पाठ्यक्रम इस प्रकार उसने सजाया है कि हफ्ते में कोई भी दिन उसका रेलगाड़ी पर सफ़र किये बिना नहीं रहता।

अकसर केतकी से नयी-नयी खबर मिलती रहती है, मगर रथीन सेन के आगे वह कुछ भी नहीं।
मगर 'सब जानते' लोगों के साथ जो होता है, पहले सभी बोल पड़ते हैं-''ओह! रथीन की बात?  रहने दो, वह तो हवा से भी तेज चलती है।'' इस बार भी यही कहा था, पर बाद में सभी सँभल गये। क्योंकि कुछ दिनों के बाद से ही तो घड़ी-घण्ट बजने शुरू हो गये शोर मच गया तैयारी का।
विरही की ऊँची-नीची सड़कों पर बालू कंकड़ गिरने लगे। सड़क के सूखे नलों को फिर से सजल करने की कोशिश चलने लगी, विरही के बाजार सजने लगे। इसके बाद अविश्वास करने को रह ही क्या जाता है?

सभी की मालूम हो गया भारत-प्रसिद्ध साधू 'भक्त योगानन्द' को जन्मशताब्दी उत्सव का उद्यापन उनकी जन्मभूमि की पावन धरती पर ही यानी विरही में होगा।
बात कोई छोटी-मोटी नहीं होगी।
देश-विदेश से आनेवाले भक्तों के अतिरिक्त इसमें कुछ प्रसिद्ध विद्वान पण्डित भी योगदान करेंगे। और सभा की शोभा, मंच के मंगलघट-कवि, शिल्पी भी आएँगे। विद्वान ज्ञानगर्भ भाषण में भक्त योगानन्द के जीवनचरित की व्याख्या करेंगे।


तीन दिन चलनेवाले इस अधिवेशन को चार चाँद लगाएँगे दो मन्त्री, एक प्रख्यात बंगाली साहित्यिक तथा तीन भिन्न भाषाओं के कवि। भिन्न-भिन्न प्रदेशों से भक्तों का समागम तो होगा ही, भक्त योगानन्द नई अपने जीवन की परम साधना के दिन बंगाल से बाहर ही तो काटे हैं-शिष्य भी उन्हीं जगहों मैं अधिक हैं।

यद्यपि उनके गृहत्याग के बाद के प्रथम कुछ वर्षों का इतिहास किसी को मालूम नहीं है। वह एक रहस्य-घिरा काल है। कोई कहता है, दीर्घ बारह वर्ष उन्होंने हिमालय की गिरि-कन्दराओं में काटे है, कोई कहता है, भूमिगर्भ में आसन रचकर वे ध्यान-मग्न रहे पूरे एक युग तक, कोई और कहता है ये बारह वर्ष उन्होंने अफ्रीका के घने जंगलों में काटे हैं-कोई भी निश्चित रूप से कुछ नही कह सकता। उनके अतिप्रिय शिष्य भी कुछ लिखकर नहीं गये।

योगानन्द के जीवन का कुछ समय रहस्य से घिरा है।
पर उससे क्या? उनका बाद का जीवन तो उनके शिष्यों के जीवन से ही जुड़ा है। तेईस वर्ष की उम्र में गृहत्याग किया था योगानन्द ने और देहत्याग किया तिरासी वर्ष की उम्र में। कम दिन तो नहीं हुए।
इतने दिनों तक बंगाल के निवासी भक्त योगानन्द की महत्ता को इस प्रकार समझ नहीं पाये थे। इस शतवर्ष की चकाचौंध से उन्हें होश आया है। अतः ध्यान आया है कितने अनमोल रतन को इतने दिनों तक भुलाकर बैठे थे ये लोग। गौरव करने योग्य, आनन्द मनाने योग्य, हलचल मचाकर समारोह करने का उपकरण उनके अपने घर में ही मौजूद था, और उस परम ऐश्वर्य को दूसरे प्रदेशवासी भोग रहे थे। नहीं, नहीं, प्रादेशिक भावना से नहीं, स्वदेशी भावना से प्रेरित होकर ही 'भक्त योगानन्द' के बंगाली भक्तगणों ने इस उत्सव का आयोजन किया है।...

उसके बाद तो पानी से ही पानी बढ़ता गया, भक्त आते गये दिशा-दिशा से। यद्यपि प्रादेशिक दीवार से महापुरुषों को नहीं बाँधा जाता, फिर भी उनकी जन्मभूमि की खोज करने से किसी एक अनजाने गाँव में जाकर रुकना पड़ता है। भक्त योगानन्द के बारे में भी यह बात सही है और उसी प्रकार बंगाल के इस छोटे से गाँव 'विरही' की जीत हो गयी है।

इस विशाल समारोह के उद्योक्ता भक्त साधुगण ही हैं, पर पृष्ठपोषक है स्वयं राज्य सरकार क्योंकि इस उत्सव के बहाने 'विरही' अपने नाम का अर्थ बदलकर 'सर्वभारतीय मिलन-क्षेत्र' हो जाएगा।
इसी को लेकर गाँव के घर-घर में चर्चा, सरगर्मी है, हर पल एक नयी खबर आकर उस पर नयी तरंग बनकर फैल जाती है। गाँव भर के लोग बेहद खुश है, क्योंकि विरही के इतिहास में ऐसी कोई घटना नहीं घटी।
मगर गाँव के उस विशेष घर में दुश्चिन्ता के बादल छाये हैं। रथीन्द्र कह रहा है-मुख्य समारोह गाँव के बीचोंबीच पण्डाल लगाकर हो रहा है, वे लोग मुख्य अनुष्ठान, अर्थात् योगानन्द की प्रतिकृति के सामने एक सौ दीपक जलाना, प्रतिकृति को माल्यदान तथा विशेष अतिथियों के द्वारा श्रद्धा अर्पण, ये सब उनके पैतृक भवन में करना चाहते हैं। वे उनसे भी मिलना चाहते हैं जिन्होंने भक्त योगानन्द को शैशव और बाल्यकाल में देखा है। उनकी संस्मृति के माध्यम से भक्त योगानन्द की सूचना का इतिहास जानने के लिए आग्रहशील हैं वे लोग।

बात तो यह है, कि क्या ऐसा कोई उनके वंश में है?
है क्यों नहीं?
स्वयं योगानन्द के भतीजे ही हैं। योगानन्द के अन्नप्राशन के समय नामकरण हुआ था-योगेन। बाद वाले दोनों भाई नगेन और खगेन। वर्तमान वाशिन्दे उन्हीं के वंशज हैं।

इन्हीं के ऊपर अभी गाँव की इज्जत टिकी हुई है। बाहर से जो लोग योगानन्द के जन्मस्थल पर माथा टेकने आ रहे हैं, क्या वे जान जाएँगे कि उदासीन विरही गाँव अपने खोये हुए बेटे को एकदम भूलकर निश्चन्त होकर बैठा है, आँख उठाकर देखा नहीं वह लड़का निकलकर किस शिखर तक पहुँच गया और कितना गौरव बढ़ाया विरही का!
नहीं। विरही गाँव ने उसके लिए कुछ भी नहीं किया। नाम तक नहीं लिया। मगर अभी भी इज्जत बाकी है।
इस जयन्ती उत्सव की नाव पर चढ़कर अगर बीच दरिया तक पहुँचा जा सके। उसके बाद तो नाव अपने आप चलकर किनारे लग जाएगी। नहीं तो क्या बंगाल के इस अनमोल रतन को दूसरे प्रदेश ले लेंगे?
नहीं, इस पर रोक तो लगानी ही है।

इसलिए दिन-रात रथीन सेन के साथ नगेन के छोटे बेटे 'हड्डी का ढाँचा' तपेन, और कोन के दूसरे बेटे 'दमा के रोगी' देवेन का सलाह-मशविरा चलता रहता। जबकि रथीन जब पहली बार यह समाचार लाया था तब खाँसते-खाँसते देवेन ने कहा था, ''क्या कहा रथीन? योगानन्द की जयन्ती होगी?''
''इस विरही में आकर उत्सव मनाएँगे?''
''कितने खेल दिखाए रे मनवा...!''
और तपेन अपने अस्थि-पंजर कँपाकर हँस पड़ा और बोला, ''अच्छा! तब तो अच्छा-खासा तमाशा देखने को मिलेगा।''
तब धारणा नहीं थी कि तमाशा इतना विशाल होगा और वह तमाशा उनके घर पर आकर हमला करेगा।

मन्त्री का नाम सुनते ही कँपकँपी लग गयी है, कहीं जन्मस्थल के मूल तक पहुँचना चाहें तो?
दोनों के ही बेटे कोलकाता के डेली पैसेंजर हैं, वे आकर सुनाते हैं, ''योगानन्द की शतवार्षिकी का शोर कोलकाता में भी भारी हलचल मचा रहा है। अब रास्ता क्या है?''
एक फोटो तक नहीं है ताऊजी का-तपेन अपनी पतली बाँहों से पीठ खुजलाते हुए बोला, ''कौन जानता था उनको लेकर इतना नाटक होगा।''
हाँ, बात सही है, बचपन की ही एक तस्वीर अगर रह जाती।
उसी के गले में फूलों की माला पहनाकर कहा जाता-''इस परिवार में नित्य पूजा होती है उनकी। पूजा के घर में लक्ष्मीजी के आसन पर रखी थी यह तस्वीर।'' 
''अच्छा होता, बड़ा ही अच्छा होता।''
''मगर तस्वीर है कहाँ?''

समस्या का समाधान आखिर तपेन ने ही कर दिया। बोला, ''ठीक है, बाबूजी के स्कूल जाने के समय की जो तस्वीर है, मामा के यहाँ खींची गयी तस्वीर, उसी से काम चलाना पड़ेगा।''
उसी से काम चलाना पड़ेगा? क्या कह रहा है?
तो क्या किया जाए! विपत्ति में सम्मान की रक्षा तो हो; भाई-भाई के चेहरे में मेल तो रहेगा ही, और फिर काल की चपेट में आकर उस तस्वीर का निन्यानवे भाग तो मिट ही चुका है, हल्का-सा एक पीला दाग है बस।
उसमें से कुछ ढूँढ़कर नाक-नक्शा कौन निकाल सकेगा?
चलो, एक बड़ी समस्या का समाधान हो गया। अब फ़ोटो के काँच पर ढेर-सारे चन्दन के छींटे देने से ही लगेगा कि इसकी नित्य पूजा होती है।
इसके बाद एक और प्रश्न-सस्मरण! वह करेगा कौन?

तपेन या देवेन के लिए सम्भव नहीं क्योंकि बनर्जी परिवार के योगेन ने जब गृहत्याग किया था, तब तो उनके बाप की भी शादी नहीं हुई थी।
सोच-विचारकर बुद्धिमान की तरह देवेन बोला, ''मँझली बुआ को रानाघाट से लाएँ तो कैसा रहेगा?''
''मँझली बुआ! बहुत ठीक! वही तो ठीक रहेंगी! अस्सी के लगभग उम्र है उनकी।''
''उम्र हो गयी है, अपंग हैं।'' इसी बहाने अपने बच्चों की शादी में तपेन ने इस बुआ को बुलाया नहीं था। मगर अब लाएगा। गर्ज बड़ी बला है।
तपेन का बड़ा लड़का सचिन रानाघाट दौड़ा बाप की बुआ को लाने। अर्थात् भक्त योगानन्द की सगी बहन को। सबसे छोटी बहन शशिमुखी को!
शशिमुखी उम्र में और स्वास्थ्य से अपंग हो सकती है, खरी-खोटी सुनाने में
नहीं। आते ही खूब खरी-खोटी सुनाई उन्होंने अपने भतीजों को सात जन्म में कोई खबर न लेने के लिए। फिर सारी घटना सुनने के बाद हँस-हँसकर बोली, "चलो अच्छा है। इसी बहाने बाप के घर में क़दम तो रख सकी। हाँ तो करना क्या होगा, जरा सुनूँ तो?''

हाँ, शशिमुखी ही ऐसे नाटक कीं प्रमुख नायिका है।
करना यह होगा, इस खानदान के आदिकाल में सौरीघर कहाँ थी इस जगह को दिखाना होगा, दिखानी होगी वह जगह जहाँ वह महापुरुष बाल्यकाल व यौवन में सोते थे, कहाँ जाते थे, कहाँ खेलते थे, कहाँ बैठकर पढ़ाई-लिखाई करते थे। और यह भी बताना होगा कि उनके आचरण से महापुरुष होने के कौन-कौन से लक्षण प्रतीत होते थे। और इसके अतिरिक्त उनके विरह में विरही गाँव कितना रोया था, यह भी थोड़ा बताना होगा ही।
शशिमुखी बोली, ''पुरानी सौरी के ऊपर तो देवा ने रसोईघर बना ली, दिखाठेगी कैसे?''
ओ हो-हो! ठीक कहा!
खैर वह मैनॆज कर लिया जाएगा। आँगन के एक किनारे टूटी-फूटी हालत में पड़े तुलसी-मंच को यह पुण्यभूमि बनाने में क्या दोष है?
बैरागी बेटे के गृहत्याग करने पर माँ-बाप ने उसके जन्मस्थल को तुलसी-मंच बनाकर चिन्हित कर दिया। टूटा है अभी हाल में ही, ठीक नही कराया गया क्योंकि उस जगह पर एक स्मृति-मन्दिर बनाने की इच्छा है। वंशजों का भी तो कोई उत्तरदायित्व बनता है-कि उनका ऋण कुछ चुका सके।
मगर गरीब के पास आस ही होती है, आसरा कहाँ?

शशिमुखी बोली, ''उस समय मेरी उम्र तो डेढ़ साल ही थी।''
''तो क्या हुआ? सुना तो है सब!''
''हाँ, सुना है, माँ ने कहा था फिर कभी इस घर में वह अपने कदम न रखे।'' और बाबूजी ने कहा था, ''रहने दे वह बात।''
मगर सस्मरण के लिए और भी तो एक आदमी है गाँव में। बसाक परिवार के बड़े मालिक! बयानवे वर्ष की उम्र में भी वे अभी तक पीठ सीधी रखकर चलते-फिरते है। देवेन जाकर जिद करने लगा, ''बसाक ताऊजी, यह आपको लेनी ही पड़ेगी।''
''मुझे ही लेनी होगी?''
बसाक ताऊ आँखों पर गिरी पकी भौहों को हटाकर बोले, ''यह कैसा मजाक़ कर रहा है देबू?''
कितने गुणों की खान था तेरा ताऊ और किस तरह उसके बाप-चाचा ने

कुत्ते-बिल्ली की तरह खदेड़कर भगाया था उसे, मैं जानता नहीं क्या? घर से निकलकर चोरी के इल्जाम में जेल तक जाना पड़ा उसे, तब से फरार है।''
दोनों हाथ जोड़कर देवेन बोला, ''बसाक ताऊ, भगवान का वास्ता आपको, वह सब बात छेड़ने की जरूरत नहीं है। बचपन में एक साथ खेले हैं, यह बात कहेंगे।'' 
''और...''
''खेलना क्या? वह तो मुझसे आठ-दस साल बड़ा था।''
''अहा-हा मन्त्री लोग क्या आपकी जन्मपत्री देखेंगे? उम्र को जरा इधर-उधर कर लीजिएगा। मैनेज करना पड़ेगा कि नहीं!''
अत: वही मैनेज करना ही तय हुआ। आखिर आ गया वह दिन। घर के सबसे अच्छे कमरे की दीवार के पास एक पुरानी जर्जर चौकी बिछी थी जो भण्डार घर से लायी गयी थी। और अपने शतवर्ष होने का सबूत दे रही थी। उस पर नयी चादर बिछी थी जिसके ऊपर साफ-सुथरा गिलाफ चढ़ाया हुआ तकिया। उस तकिये पर टिकाकर रखी थी तपेन के पिता नगेन के बचपन की वह धुँधली-सी तस्वीर।

तस्वीर पर लटक रही थी ताजे फूलों की माला। दोनों ओर फूलों का गुलदस्ता और सामने जलती अगरबत्तियों का गुच्छा।
दूसरी ओर की दीवार के पास एक टूटी-फूटी चौकी, जिसके ऊपर इस घर के योगी बेटे की व्यवहृत वस्तुओं की प्रदर्शनी भी।...यह आसानी से ही हो गया।
घिसे-पिटे परिवार में पुराने चेहरे की चीजों की कमी होती है क्या? इधर-उधर कितने ही बिखरे पड़े हैं। अतः चौकी बिछायी जाती है जिस पर जंग लगी टूटी कलम सूखी स्याहीवाले टूटे दवात, फटी-चिटी कुछ धार्मिक पुस्तकें, काले धब्बेवाले काँसे के कटोरे, गिलास, दादी की जीर्ण नामावली, तपेन-देवेन के जनेऊ के समय की गेरुआ चादर के फटे अंश-इसके अलावा रखी जाती है पुराने ज़माने के घर के किसी मालिक की फेकी हुई पादुका और एक पूजा का आसन। मिट्टी के कुछ टूटे खिलौने भी रखे जाते है एक ओर।

दरवाजे पर मंगलघट लगाया जाता है। टूटा-फूटा पुराना घर अगरबत्ती और फूलों की सुगन्ध से भर गया है। राजपुरुषों का आगमन होता है। मन्त्रीगण आते हैं। भक्तों का दल आता है, और विरही गाँव के सारे लोग आते हैं बनर्जी परिवार का तमाशा देखने।
तपेन का बेटा ही बातचीत में चुस्त है। वही घूम-घूमकर सबको दिखाता है कहाँ पेदा हुए थे उसके बड़े नानाजी साधक योगानन्द। वही दिखाता है उनके सोने का कमरा, बैठने का पीढ़ा, उनकी व्यवहृत चीज़ों की प्रदर्शनी, और उनके बचपन की तस्वीर। गले में कम्पन लाकर बोलता है, ''मैं तो जन्म से ही यह तस्वीर पूजा के घर में देखता आ रहा हूँ। आज ही यहाँ लायी गयी है।''

शशिमुखी अपनी टूटी आवाज़ में बड़ी देर तक अपने बड़े भैया के प्यार ममता की कहानी का बखान करती रही और बचपन से ही उनमें महापुरुष के लक्षण दिखाई पड़ते थे यह बात भी अनेक कहानियों से उन्होंने विस्तार में बतायी। चारों ओर से कैमरा क्लिक्-क्लिक् करता ही रहता।
बड़े भेया के गृहत्याग के समय शशिमुखी की उम्र थी डेढ़ वर्ष, मगर उससे क्या, स्मृति-पट पर अमिट है वह छवि।
बसाक ताऊ की आवाज़ तीखी है, फिर भी रुँधे हुए कण्ठ से और आँखों में आँसू भरकर योगेन भैया के साथ खेलने, मछली पकड़ने, गाना सुनने और दूर-दूर गाँवों के काली-मन्दिर दर्शन करने की कहानी बताते गये।
रथीन सारे प्वाइण्ट लिखकर दे आया। उसी के साथ अपने बाल्य, किशोर और यौवन काल को मिलाकर विवरण ही तो देना था, बस। किसे पड़ी है कि साल, तारीख का हिसाब रखे।
टूटी-फूटी दीवारें, जिन पर से बालू झरने लगे हैं, वह साँस छोड़कर सोचतीं, हाय। अगर वे बोल सकतीं।
देश-विदेश से आये श्रद्धालु भक्तगण आपस में बोलते, ''महापुरुष के लक्षण जन्मकाल से ही परिलक्षित होते हैं, यह बात गलत नहीं है।''
कुछ लोग उनके परिवार के लोगों की श्रद्धा, उनके विश्वास और चेतना की बड़ी प्रशंसा करते। प्रख्यात साहित्यिक इस पुण्यभूमि के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रदर्शित करते जो साधक के जीवन और वाणी की व्याख्या में सहायक होंगे। वे उस परिवार में सभी को धन्यवाद देते जिस परिवार ने इस साधक को जन्म दिया है।
और मन्त्रीजी ओजस्वी भाषा में, 'धर्म' का गुण-कीर्तन करते, कहते धर्म ही देश-विदेश के मिलन की सेतु रचना कर सकता है। और अन्त में घोषणा करते, इस टूटे हुए घर की मरम्मत के लिए और भक्त योगानन्द की एक स्मारक-वेदी स्थापित करने के लिए राज्य सरकार से आवश्यक आर्थिक सहायता दी जाएगी। कहीं-कहीं अचानक जैसे हथोड़े की चोट होती इस बात पर।
और तालियाँ भी गूँजतीं जमकर।
अतिथिगण आनन्दित चेहरा लेकर और विरही ग्राम के निवासी मलिन चेहरा लेकर घर लौटते।

चालू देवेन बनर्जी ने बिलकुल ठगकर इतना कमा लिया यह देखकर किसका जी नहीं कचोटेगा, पलस्तर गिरी टूटी-फूटी दीवार बोल नहीं सकती हैं तभी असहाय दृष्टि लेकर व्यंग्य-भरी हँसी बिखराती। उसके अनुच्चारित शब्द हवा में तैरते, ''कितनी स्मृति-पूजा देखी, देखे कितने ही स्मृति मन्दिर, सच्चे इतिहास के साक्षी केवल हम हैं।''

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