कहानी संग्रह >> ये जीवन है ये जीवन हैआशापूर्णा देवी
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इन कहानियों में मानव की क्षुद्र और वृहत् सत्ता का संघर्ष है, समाज की खोखली रीतियों का पर्दाफाश है और आधुनिक युग की नारी-स्वाधीनता के परिणामस्वरूप अधिकारों को लेकर उभर रहे नारी-पुरुष के द्वन्द्व पर दृष्टिपात है।
शनि की दशा
''नहीं दिये?''आदित्य अपने पिचके हुए सूखे चेहरे को झुलसी हुई ईंटों की तरह बनाकर बोला, ''क्या कहा?''
आठ वर्ष का हिटू अठारह वर्ष के अन्दाज में हाथ उलटकर बोला, ''और नया क्या कहेगा? जो कहना था, वही कहा। मैं फिर कभी उस गन्दे बुड्ढे के पास पैसे उधार लेने नहीं जाऊँगा बापू। कहता है, तू क्यों आता है? अपनी दीदी को भेज देना।''
हिटू की बात पूरी होने से पहले ही आदित्य ज़ोर-ज़ोर से खाँसने लगा, कुछ देर तक खाँसता ही रह गया। शायद उसी खाँसी के दौरान थोड़ी शक्ति संचित कर लेगा। निराधार तर्क खड़ा करने की शक्ति।
वह शक्ति संचित कर नाक-भौंह चढ़ाकर बोला, ''नहीं जाएगा? नहीं जाएगा तो खाएगा क्या?''
हिटू ने भडककर जवाब दिया, ''वाह रे! क्या सभी उधार लेकर ही खाते हैं? मेरे सिवा और कौन उधार माँगकर अपने बाप को पैसे ला देता है, जरा बताओ तो? बूबू, श्यामला, रंजित, साधन कोई भी?''
आदित्य ने फिर खाँसना शुरू कर दिया।
क्योंकि खाँसी उसके पूर्ण वश में है।
विभा जो कहती हे, गलत नहीं कहती।
केवल पीछे से ही नहीं, कभी-कभी सामने भी बोल पड़ती है, ''यह खाँसी बापू का घूँघट है। शर्मनाक कुछ कर बैठने से ही बापू वह घूँघट डालकर अपनी लज्जा ढंकते हैं। मगर आँधी के आगे वह घूँघट टिकेगा क्या, बापू?''
इस तरह बेपर्दा होकर बात करने से लाचार होकर ही आदित्य को खाँसी रोकनी पड़ती है। और तब वह बुड़बुड़ाकर कहता है, ''हरामजादी की जुबान जेसे खस्सी काटने की छूरी हैँ। ठीक है, काट अपने बाप को ही, काट खस्सी की तरह।''
अभी विभा आस-पास नहीं है, अतः खाँसना जारी रखता है। आदित्य फिर अपने बेटे को झिड़ककर कहता है, ''उन सब के बाप तेरे बाप जैसे बीमार, अपंग हैं?"
यह बात सुनते-सुनते हिटू के कान पक गये है। क्यों न पके? उठते-बैठते यही सुनता रहता है। तभी तो इस आक्षेप से वह विचलित नहीं होता। पूरी तल्खी के साथ जवाब देता है, ''तो अगर तुम जान-बूझकर बीमार रहो तो कोई क्या करेगा?''
सुनकर आदित्य की सूजी हुई लाल आँखें और भी बाहर निकल आई। खड़ा होकर बोला, ''क्या कहा? जान-बूझकर बीमार, अपंग हो गया हूँ मैं?''
बाप की पहुँच से दूर रहकर उसी ताव के साथ हिटू बोला, ''और नहीं तो क्या? इतना नशा क्यों करते हो?''
आदित्य के गले की और माथे की नसें फूलने लगीं। उसका चेहरा कठोर झामा जैसा हो गया। चिल्लाकर बोलने लगा वह, ''मैं नशा करता हूँ? नशा करके जान-बूझकर बीमार पड़ता हूँ? इतनी हिम्मत हो गयी है? जितना बड़ा मुँह नहीं उतनी बड़ी बात! बदतमीज, दीदी से यह सब सीख मिल रही है, क्यों?''
हिटू ने तिरछी निगाह से आड़ में देखा पर वहाँ दीदी के अस्तित्व का पता नहीं चला। अतः फिर ताव में आकर बोला, ''दीदी क्यों सिखाने लगी? वही बुड्ढा कह रहा था।''
''बुड्ढा कह रहा था? कह रहा था मैं नशा करता हूँ? दो रुपये उधार ले लिये तो क्या शूद्र होकर ब्राह्मण का इतना अपमान करेगा?
''अपमान क्या? सच ही तो कहा है। रोज ही तो कहता है, अपने बाप को बोल नशा कम करे। फिर तो तुझे इस तरह पैसे नहीं माँगने पड़ेंगे बार-बार।''
''अच्छा। अच्छा। ऐसा कहा उसने?''
ऐसा लगा कि आदित्य अपनी सूखी चमड़ी के घेरे में रोक नहीं पाएगा अपने-आप को। फाड़कर निकल पड़ेगा बाहर। ''रुपये माँगने के लिए भेजता हूँ तुझे? हरामजादा बुड्ढा उधार देने का धन्धा नहीं करता है क्या? सारी बस्ती के लोग उससे उधार लेने जाते हैं कि नहीं?'' हिटू अपने बाप की इस अग्निमूर्ति से और कुछ दूर हटकर चिल्ला-चिल्लाकर बोलने लगा, ''सो मैं कहता नहीं क्या? बुड्ढा दाँत निकाल कर हँसता है। कहता है जो उधार चुका नहीं सकेगा वह उधार कैसा? वह तो भीख है। भीख माँगकर नशा करने से तो रेल की पटरी पर कटकर मर जाना अच्छा है।''
''ऐसा कहता है!''
आदित्य ने आव देखा न ताव, हाथ के पास पड़ी ऐल्युमिनियम की घिसी हुई एक थाली उठाकर बेटे की ओर दे मारी और कहा, ''निकल जा मेरे सामने से!
बदतमीज बन्दर, बिच्छू लड़का। लोग तेरे बाप को गाली गलौज करते हैं और तू उस बात को रग चढ़ाकर मेरे सामने पेश करने आया है? पैसे के घमण्ड में साले बुड्ढे बदमाश के पैर ज़मीन पर नहीं पड़ते आजकल। अच्छा, मैं भी मुखर्जी ब्राह्मण का लड़का...।''
अचानक बीच में ही खाँसना शुरू कर दिया आदित्य ने। भयंकर ज़ोरदार खाँसी। ऐसा लगा कि अभी शायद दम घुटकर मर ही जाएगा।
दोनों हाथों को सीने पर दबाकर अन्तिम घड़ी का अभिनय करने लगा वह। हिटू को समझते देर नहीं लगी कि उसके बाप ने कहीं से दीदी को आते देख लिया है।
यह खाँसी वही घूँघटवाली खाँसी है।
हिटू का अन्दाजा गलत नहीं निकला। विभा ही आयी थी। इतनी देर तक बड़ी मुश्किल से चुप्पी साधे चौके में बैठी थी विभा। सोचा था, किसी तरह भी इस नाटक में भाग नहीं लेगी। मगर संकल्प दृढ़ नहीं रह सका।
उठकर आयी।
दरवाजे के सामने आकर बोली, ''मुखर्जी ब्राहमण का नाम नहीं लेते तो अच्छा होता। तुम्हारे स्वर्गवासी पिता मुश्किल में पड़ जाएँगे।
आदित्य सीने को दबाकर सिकुड़कर बैठ गया। इस तरह गला दबाकर खाँसने लगा जैसे अभी साँस रुक जाएँगी।
अब विभा कमरे में आई। बोली, ''अब रुकोगे भी?''
आदित्य सर उठाकर टूटी आवाज़ में बोला, ''खाँसी से मेरा कलेजा निकला जा रहा है और तू कहती है रुक जाऊँ?'' कहता है, मगर रुक भी जाता है।
विभा भाई की ओर देखकर तीखे कड़क स्वर में बोली, ''फिर माँगने गया था?''
''वाह, बापू बोले तो...''
''बापू की बात रहने दे। मैंने तुझे मना किया था कि नहीं? बोल? जल्दी बोल, मना किया था कि नहीं? कहा था कि नहीं बापू के सौ बार कहने से भी नहीं सुनेगा।''
अब हिटू बच्चों की तरह अचानक रो पड़ा, बापू बोले, ''तेरे पाँव पड़ता हूँ हिटू...''
शान्त होकर विभा बोली, '''ठीक है, जा उधर।''
हिटू दनदनाकर भागा।
विभा ने क्रुद्ध होकर कहा, ''छिः छिः छिः बापू उस बुड्ढे बनिए की तरह मैं भी कहती हूँ इससे तो रेल से कट जाने से अधिक चैन मिलता तुम्हें। इतना नीचे गिर गये तुम? इतने हीन हो गये?''
आदित्य एक बार फिर खाँसने की फिराक में था मगर बेटी की अग्निमूर्ति देखकर हिम्मत नहीं पड़ी। कराहते हुए बोला, ''तू उस नालायक पाजी की बात पर विश्वास करेगी विभू? झूठ-मूठ बनाकर कहता है वह।''
''हाँ, कह तो सकता है। बाप का बेटा ही है। मगर यह बात उसने झूठमूठ नहीं कहीं, इतना कह देती हूँ। बापू अगर फिर हिटू को बुड्ढे के पास तुमने भेजा, तो मैं ही रेल से कट जाऊँगी।''
आदित्य अचानक ठण्डा पड़ गया। धीरे से बोला, ''अच्छा बाबा, और नहीं भेजूँगा।''
''याद रहेगा?''
''क्यों नहीं रहेगा?''
''क्यों, यह तुम्हें अच्छी तरह पता है। मगर याद रखना यह मेरी अन्तिम चेतावनी है।'' विभा के सारे शरीर में जैसे घृणा फैल गयी।
विभा जा ही रही थी, आदित्य जल्दी से रोनी-सी आवाज में बोला, ''सुबह से जो पेट में चूहा कूद रहा है उसके बारे में सोचा है एक बार भी?''
विभा के चेहरे पर एक व्यग्य भरी मुस्कान छा गयी।
बोली, ''ये सब बातें पुरानी पड़ गयी है। जो हो रहा है अकेले तुम्हारे साथ नहीं। हिटू के बारे में सोचा है तुमने?''
''अरे सोचा नहीं?'' आदित्य अचानक उत्तेजित हो गया। ''तुझे लगता है यह मैं सोचता नहीं? सोचा, तभी तो इज्जत भुलाकर बुड्ढे के पास भेजा था। उसके चेहरे की ओर देखा नहीं जा रहा था, तभी तो...''
अपने हाथों को उलटकर आँखें रगड़कर वह बोलने लगा, ''दो साल का छोड़ कर उसकी माँ चल बसी।''
''हॉ, वह भी तो ठीक है।''
विभा अपनी, उस तीखी बुरी जैसी भाषा में बोली, ''तब से तुम एक ही साथ बाप-माँ दोनों बनकर बेटे को पाल रहे हो, याद नहीं था। मगर बापू नहीं, रहने दो, तुमसे कहना या दीवार से कहना, बात एक ही है। आदमी कहलाने के लायक़ नहीं रहे तुम...''
आदित्य चीखकर बोला, ''हाँ, कह ले जितना कह सकती है। मगर अधिक दिन कहना नहीं पड़ेगा। यह पिजड़ा अब खाली होनेवाला है...''
विभा तो आदित्य की बेटी है। कोई सौतेला नहीं, सगा बाप है। फिर भी विभा के मन में इतनी घृणा, इतना आक्रोश है।
विभा अपने बाप को कुत्ते-बिल्ली से भी गिरा हुआ समझती है। उसकी देखा-देखो हिटू भी बाप की अवहेलना करना, उससे घृणा करना सीख गया है। दो
नहीं, कमरा एक ही है पर पार्टीशन देकर दो बना लिये गये हैं। विभा ने उस दूसरे कमरे में जाकर देखा हिटू मुँह फुलाकर बैठा है। बड़ी दया आयी। बेचारे ने सुबह से कुछ नहीं खाया।
फिर भी दया-माया को लोहे की अलमारी में बन्द कर कठोर स्वर में बोली, ''बुड्ढा क्या बोल रहा था रे?''
हिटू सर उठाकर रोनी-सी आवाज़ में बोला, ''कहा न बापू को नशा करने से मना कर रहा था।''
''वह सुन चुकी हूँ। और क्या कहा?''
दीदी के जिरह के सामने खड़ा होने का अनुभव है उसे। इसीलिए बिना समय नष्ट किये बोला, ''रोज़ तो कहता हे कि तू बच्चा है, रोज़ पैसे लेने क्यों आता हे, दीदी को भेज देना, हाल पता करूँगा।''
''तुम जाओगी तो जरूर देगा दीदी।!''
हिटू के स्वर में आवेदन था। पेट में चूहे जो कूद रहे थे। दीदी के जाते ही वह विनोद घोषाल दस क्या, बीस दे देगा। वह आठ साल का लड़का पता नहीं कैसे यह बात समझ गया है।
मगर विभा के मन में कोमलता की छाया भी नहीं है। दहकते स्वर में बोली, ''मैं जाऊँगी तो एक भारी ईंट लेकर, समझा हिटू? उसका गजा सर फोड़कर फाँसी पर चढ़ जाऊँगी।''
हिटू सिहरकर चुप हो गया।
विभा फिर बोली, ''आज तुझे साफ-साफ़ बता देती हूँ हिटू, हम तीन लोग अगर बिना खाये मर भी जाए तो भी किसी से पैसे उधार लेने नहीं जाएगा।''
उस सूख-सूख कर मर जाने की छवि की कल्पना से ही हिटू को जोर से रोना आ गया।
बोला, ''चाहूँ तो मैं ही कुछ कमा सकता हूँ।''
''अच्छा, तो वह कमाने की जगह कौन-सी है? राइटर्स बिल्डिंग में कोई ऑफ़िसर की पोस्ट खाली हुई है क्या?''
अब हिटू भी नर्मी छोड़कर गम्भीरता से बोला,''मज़ाक़ करने से क्या मिलेगा? मोड़ पर चाय की दुकानवाला तो अकसर मुझे कहता है।''
''चाय की दुकानवाला?''
विभा बैठकर बुझे हुए स्वर में बोली, ''चाय की दुकान का नौकर बनेगा तू?'' इस धिक्कार के आगे हिटू ठण्डा पड़ गया। फिर भी बोला, ''गरीब के लिए इज्जत क्या चीज़ है?''
''गरीब की भी इज्जत होती है हिटू। गरीब और कुछ न कर सके, मर तो
सकता है। खबरदार, उस चाय की दुकान की ओर नहीं जाना।''
हिटू अब बौखला उठा। नहीं जाएगा? ''रोज़ शाम को बापू के लिए चाय लाना पड़ेगा कि नहीं? तू देती है बापू को शाम की चाय?''
विभा कुछ कहे, इसके पहले ही अचानक आदित्य मुखर्जी का नाटकीय आविर्भाव हुआ। व्यंग्य भरे स्वर में वह भी बोला, ''हाँ, वह चाय देगी। इतनी दयावती बेटी है न मेरी। बाप के मुँह पर बासी चूल्हे की राख मल देती, अगर उसका बस चलता।''
इस बात पर विभा अचानक शान्त हो गयी। शान्त भाव से बोली, ''वही देती बापू, अगर देने लायक़ राख चूल्हे में पड़ी होती। बढ़ई की दुकान से चुने हुए काठ के टूटे-फूटे टुकड़े जला-जलाकर चावल उबालती हूँ, उससे राख तो नहीं निकलती है।
अब आदित्य के खाँसने की नहीं, रोने की बारी आयी। वह फूट-फूटकर रो पड़ा। बोला, ''फिर तो महारानी, तू थोड़ी तकलीफ और करके दो क़दम जाकर दो रुपये उधर माँग कर नहीं ला सकती। बढ़ई की दुकान से लकड़ी चुनकर लाने में तेरा ऊँचा सर नीचा नहीं होता, बस इसी से होता है। तू जाएगी तो ज़रूर देगा।''
विभा अपने बाप के रोते हुए कुरूप चेहरे की ओर देखती रही, फिर बोली, ''अच्छा जाती हूँ, जिन्दगी भर के लिए उसका उधार देना छुड़वाती हूँ।''
रंग लगे आँचल, सिली हुई साड़ी को ही झाड़कर सीधा कर लिया उसने और पीठ पर आँचल खींचकर कठोर भाव से बाहर निकल गयी।
मगर घोषाल के घर की गली के सामने ही रुकना पड़ा विभा को। सामने ही खड़ा था शरत्। उसे देखकर रुक गया और बोला, ''विभू तुम यहाँ।''
विभा ने उसकी ओर देखा।
चमकदार, शानदार, दिव्यकान्ति सुदीर्घ शरत् की ओर देखकर उसके जैसी दीन-हीन का संकुचित होना ही स्वाभाविक था, मगर उसका सारा हिसाब हो उल्टा चलता है। अत: सकोच की जगह स्पष्ट और व्यंग्य भरी आवाज़ में उसने जवाब दिया, ''गरीब के लिए यहाँ-वहाँ क्या? बल्कि सोच रही हूँ आप अचानक गाड़ी से उतरकर धरती पर कैसे?'' शरत् व्यस्त होकर बोला, ''मैं तुम्हारे ही घर जा रहा था।''
''हमारे घर, आप? आश्चर्य की बात है।''
शरत् ने व्यंग्य पर ध्यान नहीं दिया। जल्दी से बोला, ''इसमें आश्चर्य कैसा? तुम्हारे बापू से कुछ काम था।''
बापू से काम था? विभा के बर्ताव में प्रखरता आ गयी, ''बोली, ढेर सारा उधार लेकर भागते फिर रहे होंगे?''
शरत अपने चेहरे के अनुकूल ही सभ्य, संयमी ढंग से बोला, ''नहीं नहीं, छि:।
ऐसा क्यों सोचती हो,''
''एक ट्राजिस्टर ठीक करवाना है, इसीलिए।''
प्रस्ताव कुछ अनोखा नहीं था। आदित्य मुखर्जी नामक व्यक्ति किसी ज़माने में यही धन्धा करके कमाता था। रेडियो मरम्मत करने की एक दुकान भी थी उसकी। छोटी-सी दुकान, फिर भी कमाई अच्छी हो जाती थी। क्योंकि उसके हाथ में सफाई थी। केवल रेडियो ही नहीं, घड़ी-वड़ी भी मग्म्मत कर लेता था।
हमेशा भीड़ लगी रहती थी दुकान पर। नहाने-खाने का समय नहीं मिलता था।
मगर नशा ही खा गया उसे।
यह बीमारी शुरू से ही थी।
बीवी के मरने पर एकदम लुटा दिया अपने-आप को।
प्रतिदिन तबीयत ठीक न हौने का बहानाकर दुकान से नागा करता रहा। दुकान बन्द हो गयी। जो लोग घर ढूँढ़कर रिपेयर के लिए सामान घर पहुँचा जाते उनसे भी नाराजगी मोल ले ली, महीनों तक काम पूरा नहीं कर सका। इस तरह, आदित्य मुखर्जी नामक कारीगर का नाम काम-काज की दुनिया से धीरे-धीरे मिट गया।
अब जिन्दगी कट रही है तो बस उधार माँग-माँगकर। पहले घर की सभी चीजें बेच डालीं, फिर पक्के मकान से निकलकर बस्ती में आकर बस गया। पर वहाँ भी किराया नहीं दे पाता, ऊपर से बस्ती के मालिक से ही उधार पर उधार लिये जा रहा है। इतने दिनों बाद बड़े घर का लड़का काम लेकर आदित्य से अनुरोध करने लगा तो इसे ईश्वर की कृपा ही समझनी चाहिए। बावजूद डसके विभा नाम की आत्म-सचेतन लड़की विगलित नहीं हुई। बड़े निर्विकार भाव से बोली, ''बापू तो बरसों से यह काम छोड़ चुके हैं, पता नहीं है आपको?''
शरत् अधीर होकर बाला, ''जानता हूँ। जानना हूँ, तभी तो फिर से कुछ काम-धाम करने से...''
''ओह, यह बात है।''
विभा के होठों पर हल्की-सी हँसी आ गयी। बोली, ''दया करने आये हैं। काम के बहाने कुछ भीख दे जाएँगे।''
शरत् यह सबकुछ सुनकर हैरान दुःखी हो गया। बोला, ''इस तरह क्यों बात करती हो विभु, हम कोई अजनबी तो नहीं हैं? बचपन में अपनी माँ के साथ कितनी बार हमारे यहाँ आयीं, कितना खेला।''
विभा ने एक बार फिर शरत् की ओर देखा। शरत् के स्वर में अपनेपन की कोई कमी नहीं, फिर भी पता नहीं क्यों उसका चमकदार चेहरा और संयमित बातचीत भी विभा को क्रोध में भरने और तिलमिलाने से नहीं रोक पाती।
क्रोध की जलन को तीखे डंक में परिवर्तित कर विभा बोली, ''वह भी भीख लेने के लिए ही जाती थी। जब यह समझ में नहीं आता था तभी...''
''भीख लेने जाती थी?''
''और क्या? आपकी माँ व्रत उद्यापन के लिए ब्राह्मण कन्या मानकर मेरी माँ को और कुमारी व्रत के लिए मुझे बुलाती; खिलातीं, कपड़ा-भोजन और दक्षिणा देती थीं। मगर हमसे अच्छा ब्राहमण क्या उन्हें और नहीं मिलता? नहीं, वह बात नहीं। सोचती थी, अहा दुःखी गरीब है, दो अच्छी चीज खा सकेगी, एक कपड़ा मिल जाएगा तो सहूलियत होगी, थोड़े चावल-दाल मिल जायेंगे तो दो दिन खाना पक जाएगा।''
विभा निस्सकोच बिना रुके अपनी बात कहती रही।
निराश स्वर में शरत् बोला, ''तुमने उन सब चीजों को इस तरह से देखा यह मैंने सोचा नहीं था, विभू। माँ तो हमेशा से ऐसा करती आयी है। और फिर उन दिनों तुम लोगों की हालत ऐसी नहीं थीं।''
''बहुत अच्छी भी नहीं थी। बापू जो कमाते थे उसका आधा नशे में ही उडा देते थे।''
''वही तो, उसी लिए तो...''
शरत् उत्साहित होकर बोल उठा, ''तब तो फिर भी कुछ कमा लेते थे। अब हिटू से जो सुनता हूँ...''
विभा अचानक निर्लिप्त भाव छोड़कर कठोर होकर बोली, ''क्या सुनते हैं हिटू से? शरत् गम्भीर हो गया। बोला, ''जो सुनता हूँ वह तुम भी जानती हो और मैं भी। वह घोषाल बुड्ढा धीरे-धीरे तुम लोगों की जिन्दगी को निगलता जा रहा है, यह बात मुझसे छिपी नहीं है विभू।''
''ओ!'' विभा ने आँखें सिकोड़कर कहा, ''यह खबर जानकर मगरमच्छ के मुँह से हमे बचाने आये है। तो आप उस जुआरी नशेखोर आदमी को एक दिन दो-चार रुपये दान करके हमें बचाने आये हैं। क्यों शरत् बाबू!''
शरद् दुःखी होकर बोला, ''दान नहीं, काम का दाम। मगर पहले तुम मुझे शरत् कहती थीं विभू।''
''कहती थी क्या? हो सकता है।''
''मेरी समझ में नहीं आ रहा है तुम इस तरह क्यों बात कर रही हो? मैं तो भला सोच कर ही तुम लोगों के पास आ रहा था। मुझे विश्वास है तुम्हारे वापू के आज भी कामकाज शुरू करने से घर की हालत सँभल सकती।''
विभा धीरे से मुस्कुराकर बोली, ''कामकाज शुरू करने से...''
''मै समझाऊँगा।''
''बेकार अपना कीमती समय बर्बाद मत कीजिए शरत् बाबू, लाभ नहीं होगा। बुझी हुई आग हवा देने से फिर जलती है क्या?''
विभा की दार्शनिक बातें सुनकर थोड़ी देर तक शरत् चुपचाप उसकी ओर देखकर बोला, ''देख रहा हूँ तुम बहुत बातें सीख गयी हो। पहले कितनी शर्मीली थीं। ठीक है, तुम्हारे बापू से काम नहीं होता, तुम ही क्यों नहीं कर लेतीं कुछ? असल में माँ ने मुझसे तुम्हारे बारे में भी कहलवाया है।''
अर्थात् पता चलता है कि वह ममतामयी महिला आज भी इन लोगों के लिए सोचती है।
मगर जिस पर शनि की दशा है, उसके लिए कोई सोचकर क्या करेगा? नहीं तो माँ का नाम सुनकर भी विभा की आवाज़ में थोड़ी नरमी नहीं आती? अपने से बहुत ऊँचे स्तर के व्यक्ति को नीचा दिखाने में ही उसे आनन्द आने लगा। तभी तो विभा ने अपना हित देखा न अपना भविष्य, शनिग्रस्त की तरह ही बोली, ''मेरे लिए भी काम हाज़िर? वाह! लगता है कोई दैवी वरदान मिल गया है। अच्छा, तो काम क्या है? अमीर के घर जाकर उनकी फरमाइश पूरी करना?''
विभा के चेहरे की धँसी हुई आँखों और गालों की उभरी हुई हड्डियों की ओर देखकर शरत् स्तब्ध होकर बोला, ''सोचा था केवल तुम्हारे बापू की ही मति मारी गयी है, देख रहा हूँ ऐसा नहीं है। हालाँकि माँ ने कहा था, उनकी उम्र बढ़ रही है, अकेली पड़ गयी है, कोई हमेशा साथ रहने से, मतलब माँ के जैसे ही...मगर इसे यदि तुम फरमाइशवाली नौकरी समझ लो तो कहता हूँ? हाँ वही। कुछ करना तो होगा न?''
''हाँ लगता है, ज़रूरत आपको भी कम नहीं।''
''ठीक ही कहती हो विभू, ज़रूरत मेरी भी कम नहीं। तुम लोग इस तरह डूब जाओ, यह सहन नहीं कर पा रहा हूँ।''
''ओ हो! तभी सोच-विचारकर एक रास्ता ढ़ूँढ़ निकाला है आपने। अच्छा, तो अमीरों के घर की आया की पगार क्या है? पार्ट-टाइम या दिन-भर के लिए?''
अब शरत् नाराज़ हो गया।
और वह नाराजगी छिपायी भी नहीं उसने।
क्रोधित स्वर में बोला, ''जब जान-बूझकर अपने आपको नीचा दिखा रही हो तो सुन लो, खाना-पीना, रहना, पहनना और जेब खर्च सौ रुपये-नहीं, पगार सौ रुपये। सोचकर देख लो।''
अच्छा, क्या शनि नामक कोई सचमुच है जो आदमी की अक्ल के घर में घुसकर उसका भविष्य बर्बाद कर जाता है? होगा अवश्य ही।
नहीं तो किस तरह विभा उस बड़े घर के बड़े बेटे के मुँह पर हँसकर कह सकती, ''सोच कर देखने को कुछ नहीं है। मुझसे नहीं होगा। उससे काफ़ी अच्छा प्रस्ताव आया है मेरे पास। आपसे भी अधिक पैसेवाले मालिक होंगे। खाना-पीना,
रहना और आँचल में सन्दू की चाभी...''
शरत् उसके विकृत चेहरे की ओर थोड़ी देर देखकर बोला, ''तो बर्बादी का रास्ता ही चुन लिया है तुमने? विनोद घोषाल के साथ शादी के लिए तैयार हो गयी?''
विभा फिर हँस पड़ी। हँसकर बोली, ''पहले नहीं हुई थी, अभी-अभी हो गयी। सोचकर मैंने देखा कि जितना भी अमीर हो, विनोद घोषाल की पत्नी को बुलाकर आया का काम ऑफर करने की हिम्मत कोई नहीं करेगा।''
शनि की दशा नहीं तो और क्या? नहीं तो माया, ममता, स्नेह, सहानुभूति-ऐसी अच्छी-अच्छी बातों को इस तरह झाड़कर कोई फेंक देता है भला?
और क्या प्रत्याशा थी उसे?
क्या प्रत्याशा हो ही सकती थी उस जुआरी, नशाखोर आदित्य की पतली-दुबली लड़की को?
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