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ये जीवन है

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1204
आईएसबीएन :81-263-0902-4

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इन कहानियों में मानव की क्षुद्र और वृहत् सत्ता का संघर्ष है, समाज की खोखली रीतियों का पर्दाफाश है और आधुनिक युग की नारी-स्वाधीनता के परिणामस्वरूप अधिकारों को लेकर उभर रहे नारी-पुरुष के द्वन्द्व पर दृष्टिपात है।


नी़ड़
भड़कदार एक लिनेन की कमीज़, मैचिंग पैण्ट और उसके साथ पॉलिश किये हुए काबुली सैण्डल। और क्या चाहिए? इससे अधिक और जरूरत ही क्या है?
एक बार किसी तरह इन चीज़ों का प्रबन्ध हो जाए तो काफी दिनों तक मान-मर्यादा की रक्षा हो जाती है। इसके अतिरिक्त एक और चीज़ की जरूरत भी होती है, बिना खर्च के ही हो जाता है।

धुलवाने या इस्त्री करने के लिए भी किसी की अपेक्षा रखने की आवश्यकता नहीं। वह काम आजकल क़ायदा मालूम कर गृहस्थों ने आसान कर लिया है।
उसी क़ायदे के बल पर पिछले डेढ़ साल से एक ही सूट के सहारे शक्ति के 'स्टाइल' की रक्षा हो रही है। हालाँकि प्रतिदिन नहीं, हफ्ते में केवल एक दिन। शहर के बाहर के इस 'नीड़' से  प्रत्येक रविवार को वह कोलकाता चला जाता है। सुना है, वहाँ उसके कोई अमीर मामा मिस्टर  एन.एन. घोष रहते हैं।

नाम के आगे अभी तक मिस्टर लगाते हैं, ऐसे-वैसे अमीर नहीं लगते। शक्ति के जो सहकर्मी पड़ोस में रहते हैं, ईर्ष्या की दृष्टि से देखते हैं शक्ति को, जब वह भड़कदार लिनेन शर्ट और मैचिंग पैण्ट पहनकर, जूते चमकाते हुए मुहल्ले के बीच से निकल जाता है। मामा के बारे में सभी को मालूम है, और इतने अमीर मामा गंजी-मिल के मजदूर शक्ति को भानजा कहकर स्वीकार करते हैं, केवल स्वीकार ही नहीं करते, बल्कि हर हफ्ते के अन्त में उसे देखने की बाट जोहते हैं, इसी पर आश्चर्य होता है सबको।

हालाँकि ऐसे मामा के रहते शक्ति की यह हालत क्यों, यह प्रश्न शुरू-शुरू में उठा था, मगर शक्ति का कुछ छिपा नहीं। उसने साफ ही मान लिया कि मामा-मामी का दुलारा है तो क्या, ममेरे भाई ठीक पसन्द नहीं करते हैं। इसके लिए दोष भी नहीं दिया जा सकता उन्हें, सभी बड़े गण्यमान्य व्यक्ति हैं।
एम.ए. पास के नीचे कोई नहीं है, ममेरी बहन भी बी.ए. पास है। वे 'नॉन-मैट्रिक' शक्ति को  तुच्छ नहीं समझें तो क्या समझें?

इसीलिए अपनी योग्यता के अनुसार काम ढूँढ लिया है शक्ति ने। मगर बूढ़े-बूढ़ी जब तक जिन्दा हैं, हफ्ते में एक बार गये बिना नहीं रहा जाता।
पहले शक्ति गंजी मिल में काम करता था। वहीं के 'पाइस होटल' में खाता था और रहता था एक बनिये की दुकान में। इधर कुछ दिनों से सहकर्मी मित्र राधानाथ के घर में 'पेइंग-गेस्ट' है।

राधानाथ वहीं का लड़का है, भरा-पूरा परिवार है उसका। माँ, बहन, छोटे दो भाई। इतने सारे लोगों के लिए घर पर्याप्त नहीं है। घर क्या, एक छोटा-सा दालान।
फिर भी उसी के भीतर, दालान के एक कोने में दोस्त को जगह दे दी है उसने। अपने लिए  जगह की इतनी कमी है, शायद इसीलिए दोस्त को जगह देने में मुश्किल नहीं हुई। शायद  बहुत जगह होती तो मुश्किल में पड़ जाता।
'सुविधा' का आस्वादन जिसे हो चुका है, वही 'असुविधा' के डर से काँटा बनकर रहता है। और असुविधा ही जिसकी नित्य-साथी हो, जिसने जाना ही नहीं 'सुविधा' होती कैसी है, उसे डर किस बात का? शक्ति राधानाथ के 'मोज़ेक फ्लोर' वाले बाथरूम का हिस्सा तो नहीं लेगा और न ही लेगा उसकी थाल के मक्खन-मिठाई का भाग।

राधानाथ सड़क के नल पर नहाता है, शक्ति भी वही करेगा। राधानाथ भोर को उठ कर बासी रोटी गुड़ के साथ खाकर काम पर जाता है, शक्ति भी वही करेगा। राधानाथ दिन-भर की मेहनत के बाद 'एनामेल' के चटक निकले हुए गिलास में चाय लेकर बैठता है, शक्ति भी बैठेगा। फिर चिन्ता की क्या बात है?
शक्ति बड़े आदमी का भानजा है?
तो क्या हुआ? इसके लिए शक्ति कोई अकड़ नहीं दिखाता है। केवल अमीर मामा के घर सज-धजकर जाता है क्योंकि नहीं जाने से अपनी भी बेइज्जती और उनकी भी। इसीलिए ये सजना-सँवरना...।
नहीं तो ऐसा मिलनसार लड़का मिलता कहाँ? राधानाथ की माँ कहतीं, ''लड़का नहीं, हीरा है।'' मगर राधानाथ की बहन कुछ और ही कहती है।

मगर कहती है पीछे से। वह बातें खूब करना जानती है। शौकीन भी बहुत है। अपने घर का यह नाम 'नीड़' भी उसी का दिया हुआ है। एक कागज पर बड़े-बड़े अक्षरों में 'नीड़' लिखकर चिपका दिया है दीवार पर।
शाम के समय सड़क के किनारे के डेढ़ हाथ ओसारे पर संगीत की बैठक जमती। राधानाथ एक टूटे हारमोनियम के सहारे गीत गाता, शक्ति एक ऐल्युमिनियम की डेकची पर ठोंककर ताल देता।
एक-एक कर आ बैठते पानू, मानिक लाल, सुधीर। कभी खड़े-खड़े ही सुनकर चले जाते, कभी थोड़ा समय निकालकर बैठ भी जाते।

बड़े दिनों से चाहत है कि तबला खरीदकर लाये, मगर हो नहीं पा रहा है, इतना बढ़ गया है उसका दाम। क्योंकि आजकल गाने-बजाने का चलन कुछ अधिक हो गया है और तबले का मान भी इसी के अनुसार बढ़ गया है।
मामा के लिए एक जोड़े तबले का दाम कुछ भी नहीं है, परन्तु यह शक्ति को जँचता नहीं। वही 'हाथ पसारना'। उल्टे मुश्किल से कमाये पैसों से छोटे-मोटे उपहार खरीदकर ले जाता है उनके लिए। नीचा क्यों दिखाये अपने-आप को?

कभी-कभी, जब बाहर का कोई नहीं होता, राधानाथ की बहन कानन आकर भीतर की तरफ चौखट पर बैठ जाती है। बैठे-बैठे शक्ति का 'डेकची पीटना' देखकर हँसी से लोट-पोट हो जाती है।...हँसते-हँसते कहती, ''ओह शक्ति, धीरे। गरीब की दाल पकती है उसमें। छेद हो जाए तो सिर्फ भात ही मिलेगा अगले दिन।'' यह शक्ति से नहीं खाया जाता, तभी कानन उसे ही चिढ़ाने का जरिया बनाती। इससे ऊँचे स्तर का मज़ाक करना सीखा ही कब उसने?

कमी तो इनमें हर तरफ से है। कमी है शिक्षा में, बुद्धि में, भण्डार में। शायद इसी कारण विधाता ने उनके हृदय के ऐश्वर्य को बढ़ा-चढ़ाकर दे दिया है। नहीं तो भारसाम्य रहे कैसे? नहीं तो ऐश्वर्यवान लोगों के बगल में टिकेंगे कैसे ये लोग? दुनिया के बाजार की कसौटी पर बुरी तरह से फीके नहीं लगेंगे क्या?
राधानाथ की माँ बड़ी सीधी-सादी हैं, बहन कानन बिलकुल उल्टे स्वभाव की। प्रचण्ड स्वभाव की कहा जाए तो गलत नहीं होगा। ऊपरी आदमी को घर बुलाकर राधानाथ ने उसकी मेहनत चार  गुना बढ़ा दी, यह बात वह रात-दिन बड़े आडम्बर के साथ सुनाती रहती है। मगर जानबूझकर भी मेहनत करने से पीछे नहीं रहती। ऐसा लगता है, उस ऊपरी आदमी के लिए चार गुना और मेहनत करने से भी चूकेगी नहीं वह।

नहीं तो शक्ति के कपड़े साबुन से धोने की, रसोई के बीच में उसके लिए इस्त्री गरम करने की क्या पड़ी है उसे?
राधानाथ कभी-कभी इस मुँहफट बहन के स्पष्ट भाषण पर दुःखी हो जाता है, मगर जब देखता, शक्ति उन्हें प्रसन्नता से झेल रहा है तो निश्चिन्त हो जाता।
गाने समाप्त होते ही कानन उठ जाती सबसे पहले। रात का खाना पकाना उसकी ही ज़िम्मेदारी  थी। इनके उठने से पहले ही जगह ठीक-ठाककर खाना परोसने लगती।
खाने बैठता तो शक्ति गला खोलकर बोल उठता, ''क्या कमाल का खाना बन रहा है आजकल गनीमत है कि सुबह का खाना मौसीजी बनाती हैं, तभी जिन्दा हूँ किसी तरह।''

रसोई से कानन का तीखा स्वर गूँज उठता, ''लौकी और अरूई से लोगों की बीवियाँ कौन-सा कोरमा पकाएँगी, देख लूँगी-हूँ!''
शक्ति उसी लौकी और अरुई की सब्जी के साथ आठ-दस रोटी खा जाता और कहता, ''छिड़ी बात सभा के बीच, जिसकी बात वही तड़पे। मैंने किसी का नाम लेकर तो कुछ नहीं कहा।''

कानन तुरन्त जवाब देती, ''गेंडे का चमड़ा जिसका न हो उस पर ऐसी बातों का असर तो होगा ही, बल्कि जलन से फफोले भी पड़ जाएँगे। नाम न लेने से क्या समझ में नही आता है? मेरे सिवा और है ही कौन?''
शुरू-शुरू में राधानाथ ऐसी बातों से सकपका जाता था। बहन उसकी थोड़ी प्रखर स्वभाव की है ज़रूर, मगर किसी बाहरी आदमी का भी थोड़ा लिहाज नहीं करेगी क्या? अब अभ्यस्त हो गया है, बल्कि हँसकर इस कौतुक का मज़ा भी लेता है।

मगर राधानाथ जब मुँह धोने जाता तब शक्ति आवाज़ धीमी करके कहता, ''दिन-रात किसी को  बीवी का नाम लेकर ताने देने का मतलब?'' कानन भी आवाज़ नीची करके चिढ़ाकर बोलती,  ''छिड़ी बात सभा के बीच, जिसकी बात वही तड़पे। मैंने तो किसी को बुला-बुलाकर नहीं कहा।''

''हूँ,'' राधानाथ आ रहा है देखकर जल्दी से बोला शक्ति, ''इसका जवाब बाकी रहा।'', ''...अरे कानन, चूल्हे में आग छोड़ी नहीं? हाय, हाय, मुझे जरूरत थी।''
अन्तिम शब्द जरा आवाज़ ऊँची करके ही कहा उसने। कानन भी ऊँची आवाज में बोली,  ''आपकी जरूरत का मतलब इस्त्री करना है न? सो हो गया।''
''हो गया, इसका मतलब?''
''इसका मतलब इस्त्री करके रखा हुआ है।''
''इतनी तकलीफ़ करने को तो किसी ने किसी से नहीं कहा।''
''मैं किसी के बोलने की परवाह नहीं करती, जो मर्जी में आये करती हूँ।''

शक्ति कुछ और कहने जा रहा था कि राधानाथ आकर बोला, ''क्या अभी तक झगड़ा चल रहा  है? सुबह उठना है कि नहीं?''
''क्या खूब कहा, राधू। कल दिन कौन-सा है?''
''ओ-हो-हो,'' राधानाथ हँस पड़ा, ''रविवार है, याद ही नहीं, अरे!''
भाषा में कोई सजावट नहीं, घुमाव नहीं, इसका अर्थ यह नहीं कि सुख-दु:ख, आनन्द-वेदना का प्रकाश न हो। इतनी साधारण बातचीत करके भी उन्हें लगता, बातें बड़ी मज़ेदार रहीं। मज़े की बात तो यही है।

रविवार प्रातःकाल से ही शक्ति के मामा के घर जाने की तैयारी शुरू होती। पहले सुबह ही निकल जाया करता था, आजकल पता नहीं क्यों देर हो जाती है। फिर भोजन का समय हो जाता है तो फिर थोड़ा खा भी लेता है और फिर थोड़ा
विश्राम कर तब निकलता है।
मगर सुबह से जूते पर पॉलिश चढ़ती है, बालों में साबुन और दाढ़ी पर उस्तरा चलता है।  निकलते समय कानन एक खिली पान लाकर बोली, ''साहब को पान चलेगा?'' ''पान?'' शक्ति का चेहरा खुशी से खिल उठा, ''पान कहाँ से मिला?'' पान के जैसा ऐश इस घर में करना मना है।

केवल चाय पर पूरी छूट है। बकिंघम पैलेस से लेकर पेड़ के तले पल रहे बंकू के परिवार तक  चाय को प्रवेशाधिकार है। पर पान के साथ वह बात नहीं।
हाथ में पान थमाकर कानन बोली, ''मिला कहीं भी।...तो अमीर मामाजी के घर चले?''
शक्ति बोला, ''बस, बूढ़े-बूढ़ी जब तक हैं। उसके बाद कौन किसके घर फटकने जाता है?''
''सूट तुम पर काफी जँचता है।
''क्यों न जँचे? चेहरा बुरा है क्या?''
''बड़े आये चेहरेवाले, उस पर घमण्ड भी।''
''गर्व करने लायक चीज़ हो तो गर्व करता ही है आदमी।''

''जाओ, मामाजी के यहाँ से स्वाद बदलकर आना। वहाँ हलवाई ब्राह्मण का पका खाना खाकर  आते हो, इसीलिए यहाँ के व्यंजन की इतनी निन्दा...।''
''बस करो, अब झगड़ा नहीं, चलता हूँ?''
''चलता हूँ नहीं कहते। कहना चाहिए-जाकर आता हूँ।''
भड़कीले शर्ट-पैण्ट और चमकीले जूते पहनकर मामा के घर के लिए रवाना हो गया शक्ति। पीछे ओसारे पर खड़ी होकर काफी देर तक देखती रही कानन। एक समय माँ ने भीतर से  पुकारा-कानन? ऐसा लगा कानन को सुनायी नहीं पड़ा, मगर थोड़ी देर में अन्दर चली भी गयी। 
माँ बोलीं, ''बाहर ओसारे पर खड़ी-खड़ी क्या कर रही थी?''
''कर क्या रही थी? जरा साँस भी नहीं ले सकती क्या? गाय भी तो एक बार अपने खटाल से  निकलती है?''
माँ सकपका गयी। बोली, ''नाराज क्यों होती है, कहीं पड़ोसवाले कुछ बोल न दें, इसीलिए  सँभालती रहती हूँ।''
हरेक के लिए कुछ-न-कुछ सँभालना ज़रूरी होता है।
उधर शक्ति अपने चमकदार सूट को बड़ी कठिनाई से सँभालकर गोआ-बागान की एक बस्ती के  सामने आकर रुका।
बस्ती के सामने ही रास्ते का नल है।
नल के आस-पास भीड़ लगी है। महिलाएँ ही अधिक हैं। शक्ति के आते ही
एक लड़की एक वयस्क महिला से सहमकर धीरे-धीरे बोली, ''अरे दासू की माँ, तुम्हारा भानजा आया है।''
दासू की माँ आधी बाल्टी भरते ही उसे उठाकर स्नेह से गद्गद स्वर में बोली, ''आ गये बेटा? चलो। ठीक तो हो न?''
शक्ति उनके साथ गली में प्रवेश करते हुए बोला, ''ठीक ही हूँ। अपनी सुनाओ। मामा कैसे हैं?''

''तुम्हारे मामा की बात मत पूछो बेटा। फिर से दमे की तकलीफ बढ़ गयी है।''
चौकी के पास एक पैकिंग बक्सा उलटकर रखा था। यही शक्ति के लिए निर्दिष्ट सिंहासन था।

इतनी बड़ी नौकरी करता है भानजा, कहाँ की एक गंजी-फैक्ट्री का मैनेजर है जो दो घण्टे के लिए इधर-उधर जाने से कारखाने का काम खराब हो जाता है-वही भानजा हर हफ्ते पाँच घण्टे के लिए कहाँ से इतनी दूर मामा-मामी से मिलने चला आता है, यह कोई साधारण बात है क्या?
भानजे के इस बड़प्पन से मामा-मामी कृतज्ञ हैं। और जब भी आता, बीमार मामा खाएँगे सोचकर सन्देश, अनार, नासपाती, नारंगी आदि कितना कुछ ले आता। और कभी-कभी मामा  को क्या पसन्द है देख-सुनकर 'खरीद लेना मामी', कहकर नकद रुपये भी दे जाता।

मामा बहुत खुद्दार हैं, टूटेंगे मगर झुकेंगे नहीं। बड़े दु:ख झेलकर कहाँ-से-कहाँ उतरे, आखिर बस्ती में आकर ठहरे हैं, जीवन-स्तर काफी गिर चुका है, परन्तु स्वाभिमान खोया नहीं अभी उन्होंने। आर्थिक सहायता के नाम पर शक्ति का पैसा तुरन्त वापस कर देते, परन्तु उसके अकृत्रिम स्नेह प्रदर्शन के बाद 'ना' नहीं कह सकते हैं।
मामा इतने स्वाभिमानी हैं तभी तो निश्चिन्त होकर शक्ति यहाँ आ सकता हैं। नहीं तो इतने ऊँचे ओहदे पर काम करनेवाले के लिए किसी गरीब रिश्तेदार के घर आना कोई आसान बात है?

मामा ने पूछा, ''तुम्हारी फैक्ट्री का काम कैसा चल रहा है?'' शक्ति हिल-डुल कर सीधे तनकर बैठा और बोला, ''आजकल फिर भी ठीक चल रहा है, हड़ताल भी कुछ कम होने लगी है इधर, सूत भी काफ़ी मिल रहा है। पहले से कहीं अधिक माल भेज पा रहा हूँ।''
मामा इस कमरे में बिलकुल ही नहीं जँच रहे, सूट-बूट पहने, शक्ति के सुन्दर चेहरे की ओर स्नेह-सिक्त दृष्टि से देखकर बोले, ''फिर तो मेहनत कुछ कम है आजकल? मिल में झंझट भी नहीं है जब...''

''मेहनत?'' शक्ति हँसकर बोला, ''मेहनत की बात मत पूछो मामा। बस हफ्ते में एक दिन आकर मामी के हाथ का भोजन खा लेता हूँ, इसी पर शरीर टिका हुआ है।...ऊपर से नीचे तक  देखभाल मुझे ही तो करनी पड़ती है। मामी कमरे में नहीं थीं। अब एक कप-प्लेट में चाय  लेकर सामने रखी उन्होंने और पूछा, ''चाय के साथ दो पापड़ लोगे बेटा?''
शक्ति 'ना-ना' कर उठा। बोला, ''नहीं मामी, तुम जरा चैन से बैठो तो।'' मन-ही-मन मामी हँस पड़ी। चैन। जब तक इस विशिष्ट अतिथि को खिला-पिलाकर विदा न कर सके, तब तक चैन कहाँ?

मगर इस बेचैनी में सुख भी है, गौरव है। इसी के कारण बस्ती के बाक़ी लोग उनकी इतनी इज्जत करते हैं। बगल की खोली वाली शौक़ीन चम्पा बहू चाय की प्याली देती है, शायद चाय भी बना देती है। इधर वाली मोटी भाभी खाना पकाने में हाथ बेटा देती है। मामी के चूल्हे में आँच ठीक न होने पर अपना जलता चूल्हा दे जाती है।
सिर्फ़ बूढ़े-बूढ़ी की ही तो गृहस्थी है। कितना कुछ नहीं है। भानजे के आते ही सब खबर लेते हैं, कुछ चाहिए या नहीं। पति के डर से सामने कुछ ले नहीं सकती, मगर चोरी-छिपे ले लेती है। किसी के घर से एक टुकड़ा अदरख या दो प्याज, दो हरी मिर्च या चुटकी भर पाँचफोड़न।

शक्ति कहता, ''पूरी-वूरी का झंझट मत करना मामी, रोटी बनाओ, रोटी। तुम्हारे हाथ की रोटी, उसका स्वाद ही अलग है। मेरे नालायक़ रसोइये के हाथ की पूरी तो चमड़ी जैसी लगती है। जी ऊब गया पूरी खाने से। सुनकर मामी का दिल कचोटता। कितना पैसा खर्च करता है, फिर भी लड़के को अच्छा भोजन नहीं मिलता है। सोचती, पति भी इतने जिद्दी हैं, बेटा-बेटी सब गये, दोनों बूढ़े-बूढ़ी भानजे के पास ही पड़े रहते। क्या कोई रहता नहीं? और फिर ऐसा भानजा।

शक्ति एक अकेले के पीछे जितना पैसा लुटाता है, उसके आधे खर्चे में शारदा तीन आदमी की गृहस्थी चला देती! ऊपर से भोजन भी अच्छा मिलता। बस, उनकी जिद ने ही सब बर्बाद कर दिया।
रोटी, आलू का दम, बैंगन की भाजी, प्याज से छौंकी हुई मसूर की दाल शक्ति बड़े प्रेम से खाता और उसी के साथ अपने रसोइये को चार गालियाँ सुनाता।
सुनकर मामी का दिल भर आता, स्नेह सरस हो जाता मामा का मन।
बातों-ही-बातों में रात हो जाती, शक्ति उठ जाता। डेढ़ घण्टे बस पर चढ़कर जाना है कि नहीं?

जाने के समय गली से निकलकर सड़क के नल तक मामी साथ आयी। इधर-उधर से कई लोग ताक-झाँक कर रहे थे। हर हफ्ते देखते हैं फिर भी कौतूहल
का अन्त नहीं है। भड़कदार सूट और चमकदार जूते के विलीन होते ही मामी के पास भीड़ लग गयी उन लोगों की।
मोटी भाभी बोली, ''आजकल के जमाने में ऐसा लड़का देखने को नहीं मिलता। गरीब माँ-बाप को ही कोई पूछता नहीं और ये तो मामा-मामी।'' ललित की माँ ने कहा, ''मान गयी तुम्हारे पति की जिद को। राजसुख भोग सकती थी।'' शारदा ललाट पर हाथ रखकर बोली, ''नसीब मेरा! उसी जिद के कारण तो आज यह हाल है।''

रात को अकसर कानन दरवाजे पर ही खड़ी रहती है, क्योंकि शक्ति के बिना संगीत की महफिल जमती नहीं। हफ्ते भर की थकान राधानाथ की आँखों पर सवार हो जाती है। माँ की बीमार  हड्डी, वह तो शाम से ही बिस्तर में समा जाती है।
कानन बोली, ''आ गये राजभोग खाकर?''
''आ गया!''
''चलो, अच्छा हुआ, आज रात को तो चुकन्दर, अरुई खाने से बच गये।''
''अच्छा, बहुत बोल चुकी। अब जरा हटो, अन्दर तो जाने दो। राधानाथ की तो आधी रात हो  चुकी होगी?''
''और नहीं तो क्या!''
''तुम्हारी ही आँखों में नींद नहीं है क्या! कौन-सा गीत गाता है राधू? 'आँखों से चुरा ली निंदिया तूने, आँखों से...' ''

''धत्!'' दबी आवाज़ में डाँटकर दरवाजे से हटकर खड़ी हो गयी कानन।
ऐसे ही कटते हैं दिन। राधानाथ और उसकी माँ के मन में एक दुराशा पलती है शायद। शायद  इसी कारण बेटी के विवाह की अधिक चेष्टा नहीं करते। मगर जब शक्ति रूखे बालों को उल्टा  कर सूट-बूट पहनकर निकल जाता तो उसके जाने की ओर देखकर दोनों ही लम्बी साँस भरते।

इसे बाँधा जा सकेगा क्या!
हालाँकि शक्ति हरदम कहता रहता है, ''मैं तो गरीब हूँ, गरीब ही रहूँगा। भेष न बदलो तो भीख भी नहीं मिलती है, इसीलिए सज-धजकर जाना पड़ता है। नहीं तो ममेरे भाई लोग गंजी-मिल के मजदूर को देखकर नाक सिकोड़ेंगे।''
फिर भी मन में शंका रह जाती है। मगर एक दिन उनके 'नीड़' में आयी एक आँधी! शाम के समय प्रतिदिन की तरह गाना-बजाना चल रहा था। कमरे की चौखट के पास कानन बैठी थी। शक्ति बड़े जोश के साथ डेकची बजा रहा था, ऐसे में एक रिक्शा आकर खड़ा हुआ।

उसपर एक बक्सा, बिछौना और बाल्टी, बर्तन ऐसे ही कुछ सामान थे। जान-पहचान का रिक्शावाला, यहीं कहीं रहता था, वह रिक्शा रोककर पास आया और
बोला, ''देखिए तो राधानाथ बाबू, ये औरत किसे ढूँढ़ रही है?''
मुझसे बोली, ''यहाँ जो गंजी मिल है, उसके मैनेजर के यहाँ जाना है।...'' कितना समझाया,  ''यहाँ मैनेजर कहाँ? वह तो कोलकाता में रहता है। गाड़ी से आता-जाता है, कौन सुने मेरी बात!...बस, वही एक जिद-नाम शक्तिदास, गंजी मिल का मैनेजर, ये उनकी मामी लगती हैं।...''

''कहीं हमारे शक्ति बाबू तो नहीं?''
शक्ति डेकची पर हाथ रखकर सुन्न होकर देखता रहा।
राधानाथ हड़बड़ाकर उठ खड़ा हुआ। बोला, ''मामी? शक्ति की मामी?''
अनजाने में कानन भी बरामदे से फुटपाथ पर उतर आयी।
राधानाथ ने फुसफुसाकर पूछा, ''बात क्या है शक्ति? जाकर देख तो कौन है? मैनेजर की मामी तुझे क्यों खोजेगी?''
क्यों खोजेगी इसका जवाब कौन देगा? शक्ति में ही अब बोलने की शक्ति है कहाँ? फिर भी उठना पड़ा, राधानाथ के कहने पर रिक्शा के पास जाकर खड़ा होना पड़ा, और उसे देखते ही मामी चीख पड़ी, ''अरे शक्ति बेटा, तेरे मामा मुझे छोड़कर चले गये रे!''

आवेश थोड़ा शान्त हो जाने पर मामी को ओसारे पर लाया गया। कानन ही हाथ पकड़कर लायी। कानन की माँ घबराकर वहीं खड़ी देखती रही।
सामान उतारकर रिक्शे को छोड़ दिया गया।
इतनी देर बाद कुछ शान्त होकर मामी चारों ओर देखकर कुछ नाराज़ होकर बोली, ''ऐसी गन्दी जगह में तुम दोस्तों से मिलते हो बेटा? मैं पूरा शहर घूमकर आयी।...''
मुँहजला रिक्शावाला कहता है, ''मैनेजर कौन! वह यहाँ नहीं रहता है।...शक्तिदास एक है, राधानाथ के घर में रहता है, वह तो मिल का मजदूर है।...सुन लो बात!''

''चलो बेटा, चलो अपने घर।...स्वाभिमानी थे तुम्हारे मामा, कभी किसी के आगे झुके नहीं, मरते समय कह गये, शक्ति के पास चली जाना।''
हमारी बस्ती का एक लड़का साथ आकर बस से रिक्शा पर बिठा दिया और भाग गया। बोला, ''अमीरों के घर मैं नहीं जाऊँगा।''
शक्ति फिर भी चुप रहा। गर्दन जो एक बार झुकी थी, उठायी ही नहीं फिर।
''मामा के शोक से ज्यादा सदमा पहुँचा क्या?''
कानन बोली, ''अच्छा मामी, आप अभी यहीं थोड़ा आराम कर लीजिए, फिर सही ठिकाने चली जाएँगी।''
मामी सन्दिग्ध होकर उन लोगों की ओर देखकर बोलीं, ''ना बाबा, अब यहाँ
आराम करने की ज़रूरत नहीं। हम दु:खी लोग हैं, हमारा आराम क्या।...शक्ति चलो, बेटा घर चलो।''

अब शक्ति ने चेहरा उठाया। साफ ठण्डे स्वर में बोला, ''और कहीं मेरा कोई घर नहीं है, मामी! यही मेरा ठिकाना है। इन लोगों ने मुझपर दया की इसीलिए यहाँ रह गया। रिक्शेवाले ने तुम्हें ठीक ही कहा, शक्तिदास मिल-मजदूर ही है।''
आँधी के चपेटे के वाद सब ओर शान्ति है...मामी को आश्रय मिल गया है कानन की माँ के बिछौने में, और मामी के सामान को चौकी के नीचे जगह मिल गयी कानन कुछ बताशे और एक लोटा पानी लेकर शक्ति के पास आकर खड़ी हुई।

शक्ति के मामा की मौत हुई है, 'छूतका' लगा है। खाया नहीं कुछ भी। सुबह नहाकर तभी खाएगा।
''थोड़ा पानी पी लो।''
शक्ति सोया था, हड़बड़ाकर उठ बैठा बोला, ''अभी भी तुम मेरा मुँह देख रही हो कानन?''

कानन मुस्कुराकर बोली, ''क्यों, चेहरे ने क्या दोष किया?''
''इतने बड़े नालायक, झूठे का चेहरा देखने से पाप होता है कानन! तुम्हें मुझसे घृणा करनी चाहिए।''
अब कानन जोर से हँस पड़ी बोली, ''मूर्ख औरत को इतना उचित, अनुचित का ज्ञान कहाँ होता है, वह होता तो बहुत पहले ही घृणा करती!''
''पहले? पहले तो तुम...''
''बहुत पहले ही समझ गयी थी शक्ति। औरत चाहे कितनी भी मूर्ख क्यों न हो, उसे ठगना आसान नहीं होता।...वह सब जानबूझकर भी चुप रहती है। पता है क्यों? कहीं उसका 'नीड़' बिखर न जाए।''
शक्ति आवेश में डूबकर बोला, ''सब समझ गयी थी?''
''स...ब।''
''फिर भी तुम...?''
''फिर भी मैं...'' कहकर चेहरा उठाया कानन ने और अचानक कुछ और ढंग से हँस पड़ी। उस हँसी में मूर्ख-विद्वान का कोई अन्तर नहीं होता।

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