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ये जीवन है

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1204
आईएसबीएन :81-263-0902-4

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इन कहानियों में मानव की क्षुद्र और वृहत् सत्ता का संघर्ष है, समाज की खोखली रीतियों का पर्दाफाश है और आधुनिक युग की नारी-स्वाधीनता के परिणामस्वरूप अधिकारों को लेकर उभर रहे नारी-पुरुष के द्वन्द्व पर दृष्टिपात है।


जिल्द का चेहरा
आखिर इन्तजार की वह घड़ी आ गयी।
निशि बाबू का देहान्त हो गया।
शायद इन्तजार शब्द का प्रयोग ठीक नहीं हुआ, बुरा ही लगा सुनने में, मगर इसके अलावा और कहा भी क्या जा सकता था? और किस शब्द से परिस्थिति का सही अनुमान लगाया जा सकता था?
'इन्तजार' नहीं तो और क्या कर रहे थे ये लोश?
निशिबाबू की अविवाहिता बेटी कावेरी, विधवा पुत्रवधू सन्ध्या और पड़ोस के डॉक्टर प्रभांशु।

निशिबाबू के इस दीर्घ विलम्बित मृत्युशय्या के पास बैठकर जिन लोगों ने तीन-चार वर्षा और वसन्त को अलविदा कर दिया।
हालाँकि सन्ध्या के लिए उस अलविदा का कोई अर्थ नहीं है। उसके जीवन से तो वर्षा और वसन्त ने सदा के लिए विदाई ले ही ली है। असल में यह बात कावेरी और प्रभांशु को लेकर है, अलिखित किसी दस्तावेज़ पर जिनके भविष्य का इकरारनामा सम्पादित हो गया है।

ऐसी बात नहीं कि खुलकर प्रेम-निवेदन के जरिये दोनों एक-दूसरे के निकट आ गये हों, नहीं, बरसों से परिचित इस व्यक्ति के साथ कोई रोमाण्टिक परिस्थिति की नौबत भी नहीं आयी। निशिबाबू की यह सुदीर्घ बीमारी भी ऐसे किसी मधुर सम्बन्ध के आड़े आती रही। मगर फिर भी क्यों प्रभांशु इतने लम्बे समय तक केवल बिना फीस के रोगी को ही नहीं देखता रहा बल्कि, बिना खर्चा लिए दवा-दारू का भी प्रबन्ध करता रहा, इसका जवाब तो कावेरी के पास है। कावेरी अब नये सिरे से कृतज्ञ भी नहीं होती। पहले होती थी।

शुरू-शुरू में जब प्रभांशु दवा की कीमत नहीं लेता था, कहता था, ''मुझे पैसे नहीं देने पड़ते। डॉक्टर के पास दवा के 'सैम्पल' आते हैं, मालूम है? उसी में से ले आया।''
तब तो इस बात को झूठ जानते हुए भी मना नहीं करती थी कावेरी, सिर्फ करुण, कृतज्ञ दृष्टि से निहारती उसे, जिस दृष्टि का एक विशेष अर्थ होता। धीरे-धीरे पथ्य की व्यवस्था भी उसने हाथ में ले ली।

'बाज़ार ही जा रहा हूँ ले आऊँगा या गया था बाज़ार की ओर ले आया'-इसी बहाने की आड़ से वह मदद करता रहा। कीमत की बात उठाने से ही बोल उठता, ''ठहरिए, ठहरिए, परेशान मत होइये, घर के लिए भी तो खरीदा था, अभी हिसाब नहीं लगाया।''
वह हिसाब कभी नहीं लग पाता। फिर कई और चीजें आ जातीं। जैसे-फीडिंगकप, ऑयल-क्लॉथ, आदि। हिसाब का ढेर जमा होता जाता, उधर रिश्ते में भी अपनापन आता। सन्ध्या भी कहती, ''उधार की बात और नहीं उठाऊँगी, उसका तो पहाड़ बन गया। चुकाने का काम अगले जन्म में ही होगा।''
हाँ, कावेरी धीरे-धीरे घनिष्ठ होती जा रही थी। 'परिणीता' की नायिका ललिता की तरह प्रभांशु की चीज़ों को स्वाभाविक अधिकार से अपना समझ लेने में कोई हिचक नहीं थी अब। तभी भाभी के उधार चुकाने की बात सुनकर कण्ठ में झनकार उठाकर बोली, ''ऐसा ही क्यों सोचती हो भाभी? ऐसा भी तो हो सकता है कि ये ही पिछले जन्म का उधार चुका रहे हैं।''
''हाँ, यह भी बुरा नहीं है।'' हँसकर प्रभांशु बोला, ''देख रही हैं? उम्र में आप बड़ी हैं तो क्या हुआ, व्यावहारिक ज्ञान आपसे आपकी ननद को ही अधिक है। अगले जन्म का हिसाब भी ठीक कर लिया।''

प्रभांशु के घर के लोग उसकी इस 'निशिभवन-प्रीति' को विशेष पसन्द नहीं करते, मगर मना भी करें तो कैसे? निशिबाबू के घर की हालत देख ही तो रहे हैं।
बेचारे का पत्नी-वियोग हुआ, नयी-नयी शादी करके जवान बेटा गुजर गया, उसके बाद लकवे से पीड़ित होकर उन्हें बिस्तर लेना पड़ा। घर में बची एक जवान, कुँआरी बेटी और दूसरी जवान  विधवा बहू। इस पर ये आज कल की आधुनिक पढ़ी-लिखी लड़कियों की तरह हर काम में  निपुण भी नहीं हैं।

उन्हें निपुण बनाने में बाधक थे स्वयं निशिबाबू ही। घर की बहू-बेटी को जहाँ तक हो सके, अकेले बाहर नहीं जाने देते थे। पड़ोस के सभी जानते हैं यह बात। अत: पड़ोसी होने के नाते भी बाहर के काम में हाथ बँटाना अनुचित तो नहीं है। और फिर डॉक्टर के कन्धे पर यह सामाजिक उत्तरदायित्व कुछ अधिक ही आ पड़ता है, यही स्वाभाविक नियम है।
घर में भी जब कोई बीमार होता तो प्रभांशु के बड़े भैया स्नेहांशु 'स्नेह' शब्द को निरर्थक प्रमाणित कर कमरे का दरवाज़ा बन्द कर सोने चले जाते, और प्रभांशु रात-भर जागकर बैठा रहता। सगे-सम्बन्धियों के स्वास्थ्य की खबर रखना किसी अलिखित नियम से प्रभांशु की ही जिम्मेदारी होती। बड़े भैया स्नेहांशु किसी के घर जाते नहीं और छोटा भाई शुभ्रांशु साफ़ जवाब दे देता-वह किसी को पहचानता नहीं।
अत: पहचानना पड़ता प्रभांशु को ही। जब से डॉक्टरी पास की, तभी से पहचानना पड़ रहा है। इस कारण पड़ोस के अन्य लड़कों में अगर कर्तव्य चेतना न भी हो, और प्रभांशु में अगर हो, तो मना नहीं किया जा सकता है।
मना किया जाता भी नहीं।

अत: प्रभांशु का निशिबाबू के घर बाधाहीन गति से आना-जाना लगा रहता है। उस घर में केवल एक बिस्तर पर पड़ा रोगी और दो युवतियाँ हैं, यह बहाना डॉक्टर के सामने उठाना पागलपन है।
धीरे-धीरे इस परिवार की जिम्मेदारी प्रभांशु पर ही आ गयी है। कोशिश कर प्रभांशु ने ही कावेरी के लिए किसी साबुन कम्पनी में प्रचार का काम दिला दिया है, और सन्ध्या की जान-पहचान एक महिला समिति से करा दी है जो घर पर आकर हाथ की बनी चीजें ले जाती है।
दोनों ननद-भाभी जो थोड़ा-बहुत कमा लातीं इससे एक लाभ यह हुआ है कि 'प्रभांशु उनका घर चला रहा है' यह चर्चा थोड़ी कम हुई।

घर निशिबाबू का पुश्तैनी है, यही एक अच्छी बात है।
ऐसे ही चल रहा था।
बिस्तर में लेटे निशिबाबू की छवि एक निश्चल प्राकृतिक दृश्य की तरह ही हो चुकी थी।
दोनों लड़कियों की दिनचर्या एक ही साँचे में ढली थी।
इनमें से एक का भविष्य उज्ज्वल था, दूसरे का अन्धकार, यह बात स्पष्ट नहीं होती थी। मगर अब परिस्थिति में परिवर्तन आया। अब एक समस्या उत्पन्न हुई।
अब और किस बहाने प्रभांशु इस घर में आएगा?
किस बात की आलोचना में घण्टों बिताएगा?
मगर अकेली दोनों लड़कियों को इस घर में छोड़कर जाए भी तो कैसे?
जब उत्तरदायित्व उसी के ऊपर आ गया है।
रास्ता भी उसे ही निकालना होगा। मगर हो ही क्या सकता था?
प्रभांशु की दीदी ने बात छेड़ी।

कहा, ''तू ही क्यों चोर-सा पकड़ा गया, समझ में नहीं अता। अब तक जो महानता दिखा रहा था, उसका फिर भी कोई अर्थ था। मगर अब क्या? अब तू महानता दिखाएगा तो लोग मुँह पर कालिख पोतेंगे।'' कहेंगे, ''रक्षक या भक्षक कौन जाने।'' हँसकर प्रभांशु बोला, ''लोग न कहेंगे, तुम कहोगी।''
''ज़रूर कहूँगी।'' निस्संकोच होकर दीदी बोली, ''मैं ही करूँगी निन्दा। क्यों, उनके सगे-सम्बन्धी नहीं हैं क्या? बहू भी क्या आसमान से टपकी है?''

''अब तक तो यही लगता था। कभी देखा तो नहीं किसी को फटकते भी।''
''जैसे ज़िम्मेदारी तेरी ही है। नहीं, ये सब ख्याल छोड दे। बहू को बोल दे खोज-बीन कर कोई  अभिभावक ढूँढ़ ले और मैके चली जाए और उस लडकी से कह दे कि शादी-वादी कर ले।''

''वाह!'' प्रभांशु बोला, ''समस्या के इतने सुन्दर समाधान के रहते दोनों लड़कियाँ कष्ट झेल रही हैं।...जाता हूँ, अभी कह दूँगा।''
''क्या खूब रही।'' मन-ही-मन दीदी ने कहा, ''मैंने, तो शराबी को शराबखाने का रास्ता दिखा दिया।'' यही कहने की बात हो गयी। निशिबाबू नहीं रहे, अब डॉक्टर वहाँ बार-बार क्यों जाए? तो एक कारण मिल गया जाने का। पहले सन्ध्या से मुलाकात हुई। दुबली-पतली सन्ध्या के वैधव्य के वेश में जैसे कुछ और रूखापन समा गया था। फिर भी सन्ध्या मुस्कुरायी। करुण मुस्कान, फिर भी मुस्कुराकर बोली, ''कावेरी तो अभी नहीं मिलेगी, अभी-अभी नहाने गयी। और आप तो जानते ही हैं वह कितना समय लेती है।''

प्रभांशु घर के आदमी जैसा यहाँ-वहाँ बैठ जाता था। खिड़की के किनारे बैठ गया वह। रूखे बालों से घिरे सन्ध्या के सूखे चेहरे की ओर देखा उसने, देखा उन हाथों को जिस पर केवल एक-एक चूड़ी लगी थी। उसने सोचा, अच्छा, कावेरी भी तो ऐसे ही एक चूड़ी या बाला पहने रहती है, मगर वह तो विधवा जैसी नहीं लगती है। क्या कावेरी की बाँहें गोरी हैं, इसलिए?
फिर बोला, ''कावेरी के लिए ही भागकर आया हूँ, आपको ऐसी धारणा ही क्यों हो गयी?''

सन्ध्या फिर मुस्कुरायी। बोली, ''धारणा सत्य-निर्भर होती है, इसलिए।''
''और अगर मैं कहूं, सच और झूठ का ज्ञान आपको बिलकुल नहीं है?''
''कहने से सोचूँगी, सच को छिपाने में आप माहिर हैं।''
हाँ, इसी तरह का कथोपकथन होता दोनों में। जैसे सन्ध्या ने मान ही लिया हो-डॉक्टर उसके ननदोई हैं, अत: वार्तालाप सरस, कौतुकपूर्ण हो तो कोई दोष नहीं।

कावेरी भी तो उसी अधिकार से कह उठती, ''डॉक्टर की बात मत सुनना भाभी, अभी तुम्हें रोगी बनाकर छोड़ेंगे। देखो न, कल जरा खाँसी हुई कि आज दवा चालू कर दी।'' कहती, ''उसकी बात का भरोसा क्या, वह कुछ भी कर सकता है।'' कभी कहती, ''तुम्हीं दोनों की राय मिलती है, बैठकर बातें करो, मेरे आने से ही तो तकरार शुरू हो जाती है।'' नयी-नयी शादी होने पर लड़कियाँ अपने पति का उल्लेख जिस रंग-ढंग से करती हैं, वेसा ही ढंग कावेरी अपनाती है प्रभांशु का उल्लेख करते समय।

अशौच काल कटते ही शादी की बात उठेगी, ऐसा ही लगता सन्ध्या को।
सन्ध्या ने सोचा शायद अशौच काल कटने से पहले ही प्रस्ताव लेकर आया है। बात करने में  दोष ही क्या है। अत: स्वयं ही बात को छेड़ने की सोचने लगी।
इसलिए जब प्रभांशु उसकी बात के जवाब में हँसकर बोला, ''हाँ, माहिर तो हूँ। आपका दिया  हुआ सर्टिफ़िकेट ले लेता हूँ।'' तब सन्ध्या बोल उठी, ''देखा? आप को किस तरह समझ गयी?  अभी जो आप आये हैं, किसलिये मैं बता सकती हूँ।''

''वह तो बता ही दिया आपने, आपकी ननद को पाने के लिए।''
''वही तो।'' सन्ध्या हँसकर बोली। फिर भी सन्ध्या की हँसी में विषाद छाया ही रहता। शायद  वह कावेरी के भविष्य की स्थिरता की बात पक्की होने के बाद की बात ही सोच रही है। सोच  रही है-उसके बाद क्या? मगर 'बाद' की बात उसे समझ में नहीं आ रही है। इसी कारण चेहरे  पर से विषाद की छाया हट नहीं रही।
नहीं तो लम्बी बीमारी भोग-भोग कर स्वार्थी और बदमिजाजी हो गये ससुर की मृत्यु से उसके  होठों पर ऐसी विषाद-रेखा स्थिर हो जाएगी, इतना विश्वास करना कठिन था।

प्रभांशु भी ऐसा ही सोचता और कहता, ''अच्छा, मान लीजिए अभी मैं उस बात को अस्वीकार करूँ तो?''
सन्ध्या ने हैरान होकर देखा।
बोली, ''कौन-सी बात?''
''वही।'' अचानक प्रभांशु की चंचल दृष्टि भाव-गम्भीर हो गयी, रहस्य भरे कण्ठ में बोला, ''वही बात। अगर मैं कहूँ, कभी भी उस कावेरी देवी के लिए प्रभांशु डॉक्टर इस घर में दौड़कर नहीं आया।''

सन्ध्या अचानक काँप उठी।
जैसे अचानक अपने-आप को बहुत ही असहाय महसूस करने लगी सन्ध्या। समुन्दर में तिनके की आस की तरह ही उसकी दृष्टि अदृश्य बाथरूम की ओर पड़ी, फिर खड़ी हो गई और किसी प्रकार चेहरे पर सहज भाव लाकर बोली, ''ठहरिए, जरा चाय बना लाऊँ, फिर तर्क होगा।''
''तर्क चाहता हूँ, ऐसा ही क्यों सोचती हैं?'' प्रभांशु की दृष्टि में वही व्यंजना।
सन्ध्या डर गयी।
बहुत डर गयी।
प्रभांशु को ऐसा तो कभी नहीं देखा, ऐसी दृष्टि तो कभी नहीं देखी प्रभांशु की आँखों में। क्या निशिबाबू की दैहिक उपस्थिति ही उसके दुस्साहस पर पहरे का काम कर रही थी? कि अब पहरा नहीं तो डर भी नहीं?

कावेरी की अनुपस्थिति में सन्ध्या से भी अपनापन बढ़ाना चाहता है? मगर ऐसा स्वभाव प्रभांशु का है तो नहीं? हमेशा ही तो सन्ध्या के साथ श्रद्धा और सम्मान दिखाकर ही बात की उसने। हँसी-मज़ाक़ के समय भी वह आवरण टूटा नहीं। बल्कि कावेरी के साथ वार्तालाप में ही वह सरस हो जाता, कभी कभी चिढ़ाता, छेड़ता और मज़े लेता।
निशिबाबू की बीमारी ने ऐसा स्थायी रूप ले लिया था कि नये सिरे से चिन्तित होने या दु:खी होने का प्रश्न नहीं उठता था। रोगी के कमरे के बाहर चाय-नाश्ता और गप्पें चलते ही रहते, दोनों या तीनों मिलकर...।

मगर सीमा के बाहर कुछ नहीं होता था।
बीच-बीच में निशिबाबू गरज उठते, ''यहाँ एक रोगी मर रहा है, वहाँ खुशियों का मेला लगा है।'' ''इस कमरे के लोग और भी मरे जा रहे हैं।'' भौंहें तानकर कावेरी कहती, ''हमारी मृत्यु किसी को दिखाई नहीं पड़ती, यही दुःख की बात है।'' फिर पैर पटकते हुए उस कमरे में चली जाती और कहती, ''क्या? क्या चाहिए? पानी पीएँगे?''
डरकर निशिबाबू हामी भर देते। कहते, ''जरूर पीऊँगा, कब से प्यास लगी है। मगर अब हर पल यद्यपि मन में वह गर्जन सुनाई देगी पर कानों में तो नहीं गूँजेगी। फिर कौन बचाएगा इन दो लड़कियों को? किसकी सद्बुद्धि रक्षा करेगी इनकी?''

प्रभांशु की आँखों में जो छाया उतरी है, वह सद्बुद्धि की है क्या? उसकी बातों में ही कौन-सी  बुद्धि की छाप है?
''तर्क भी नहीं चाहिए, चाय भी नहीं, चाहता हूँ बस इसी वक्त आपसे दो बात करना।''
मन-ही-मन सन्ध्या ने कहा, ''डरना क्यों? डरना कैसा?'' ऊपर से बोली, ''दो क्यों, दो सौ ही कहिये।''
''नहीं, दो सौ की मुझे ज़रूरत नहीं। मैं तो सिर्फ कह रहा था,'' प्रभांशु का स्वर आग्रह और आवेग से काँप उठा, ''कावेरी के लिए अगर मैं लड़का ढूँढ़ दूँ?''
''सन्ध्या ने निश्चिन्त होकर लम्बी साँस छोड़ी।
अच्छा! क़ायदे से बात हो रही है। है तो वही विवाह प्रस्ताव, केवल भाषा को घुमा-फिराकर। निश्चिन्त होकर हँस पड़ी सन्ध्या।
बोली, ''वह ज़िम्मेदारी तो आपके माँगने से पहले ही आप पर लाद दी गयी है।''
''नहीं सन्ध्या, नहीं।''
अचानक आप से तुम पर उतर आया प्रभांशु डॉक्टर। बोला, ''यक़ीन करो, उसके प्रति मेरे मन में कोई मोह नहीं है। मेरा मन किसी और लड़की...''
सन्ध्या अचानक जैसे दहक उठी।

बोली, ''आप कहना क्या चाहते है, साफ-साफ़ कहिए तो?''
''साफ़-साफ? एकदम साफ,'' प्रभांशु निराशाभरी आवाज में बोला, ''एकदम नीरस गद्य में, तो, कहता हुए, मैं तुमसे शादी करना चाहता हूँ।''
सन्ध्या झटके से उठ गयी। उसका साँवला, शुष्क चेहरा कठोर हो गया। तीव्र स्वर में बोली, ''मुझे अकेली समझकर क्या आप मेरा अपमान करने आये हैं?'' प्रभांशु चुपचाप खड़ा रहा। फिर धीरे से बोला, ''इतने दिनों से देखकर यही समझ पायी मुझे?''
''मगर'' रुँधे हुए स्वर में सच्चा बोली, ''एक अजीब, अवास्तविक बात कैसे कह दी आपने?''
'बड़ा आश्चर्य है।'' और भी निराश स्वर में प्रभांशु बोला, ''और मेरी धारणा थी कि आपको कुछ भी समझाना नहीं पड़ेगा।''
''धारणा थी!''
अवाक् स्वर में सन्ध्या बोली, ''यह धारणा थी आपकी?''
इतनी आश्चर्यचकित थी सन्ध्या कि वह क्रोध करना, विरोध करना भी भूल गयी। पूछने लगी, ''यही धारणा थी आपकी?''
''थी बिलकुल थी।'' आवेगपूर्ण स्वर मैं प्रभांशु बोला, ''सोचा था मैंने, जब कहने की नौबत आएगी, बिना कुछ कह ही सारी बात तय हो जाएगी।''
सन्धया की आवाज तब भी रुँधी हुई थी। उसी स्वर में बोली, ''और कावेरी?'' 
''कावेरी के लिए वर ढूँढ़ने की? जिम्मेदारी तो मैंने पहले ही ली है।''
धीरे से सन्ध्या बोली, ''केवल वर होने से ही चलेगा? इतने दिनी से वह आपसे...''
''इतने दिनों तक वह मुझसे नहीं एक योग्य वर से रिश्ता रखती रही। मैं न होकर वह कोई और होता तो कोई बात नहीं होती। अभी अगर मुझसे अच्छे एक लड़के का रिश्ता उससे कर सकूँ तो देखना उसे ही...''
सन्ध्या ने आँख उठाकर देखा।
बोली, ''लोभ मत दिखाइये। मेरे जीवन में अब और कोई नयी बात नहीं होनेवाली है। जो स्वाभाविक है, जो शोभनीय है, वही होने दीजिए।''
''मानव-जीवन अंकशास्त्र नही हैं, सन्ध्या।''
''मगर हर पल तो मैंने यही जाना कि आप कावेरी से ही...''
प्रभांशु हँस पड़ा। बोला, "तुम्हारे उस जानने में थोड़ी-सी भूल है। ये कावेरी से नहीं, कावेरी ही मुझसे...'' ''तो फिर? वह भी उसके प्रति एक भयंकर निष्ठुरता नहीं होगी क्या? एक भयंकर नाइन्साफी?'' ''शायद होगी'' मृदु-गम्भीर स्वर में प्रभांशु बोला, ''भयंकर न भी हो, थोड़ी-बहुत तो होगी ही। मगर जीवन-भर उसके
प्रति अन्याय और अविचार करने से तो यही अच्छा होगा न?''
सन्ध्या केवल आँखें उठाकर देखती रही।
मगर वह शुरुआत के मनोभाव पर ही टिकी रह सकती थी। और भी क्रोधित हो सकती थी। प्रभांशु को बुरा-भला कह सकती थी। गृहस्थ घर की विधवा को दिये गये इस प्रस्ताव को 'कुप्रस्ताव' मान सकती थी। मगर उसने ऐसा किया नहीं। हारे हुए स्वर में बोली, ''मेरा सब कुछ उलट-पलट हो गया। ऐसा मैंने कभी नहीं सोचा था। कभी भी नहीं।''
''मेरी बदनसीबी। क्या किया जाए। अब सोच लो।''
''मगर, मगर क्यों आपकी ऐसी अजीब पसन्द? वह एक कुँआरी, सुन्दरी लड़की है..."
प्रभांशु बोला, ''सुन्दरता का निवास केवल बाह्य आवरण में ही नहीं होता है।'' 
''मगर मैं उसे मुँह दिखाऊँगी कैसे?'' उसी आवेग भरे रुँधे स्वर में सन्ध्या बोल उठी, ''नहीं, नहीं, यह नहीं हो सकता।''
''दुनिया में एक ही नाम सच है क्या? वह आपकी 'कावेरी'? उसके सामने मुँह दिखा पाना ही सबसे बड़ी बात है?''
''सिर्फ़ उसके सामने क्यों, सारी दुनिया के सामने ही...''
प्रभांशु ने बीच में ही रोक दिया उसे। बड़े शान्त स्वर में बोला, ''तो क्या मैं यही समझ लूँ कि इतने दिनों तक मैं ही गलती करता आया? गलत किया, गलत देखा, गलत समझा?''
सन्ध्या कुछ कहने जा रही थी तभी कावेरी आकर खड़ी हुई।
यद्यपि पितृ-वियोग का 'कालाशौच' था, प्रसाधन के लिग उचित समय नहीं था फिर भी शायद प्रभांशु की आहट पाकर ही कावेरी हल्का प्रसाधन करके आयी थी स्नान के उपरान्त। और इतमे ही से दमक रही थी वह। इतने से ही पता चल रहा था कि वह रूपवती थी।

रूपवती थी तभी तो इतनी सरलता से वह नौकरी उसके हाथ लग गयी थी। एक ही बार में नौकरी लग जाने पर प्रभांशु ने कहा था, ''सुन्दर मुखड़े की जय सर्वत्र-यह बात ऐसे ही तो नहीं कही गयी है न।''
कावेरी ने कटाक्ष किया था, ''सर्वत्र कहां? आपकी यह बात गलत है।'' 
''यह बात मेरी नहीं, शास्त्र की है।''
''सभी लोग शास्त्र कहाँ मानते है, जैसे कि आप?''
प्रभांशु ने इस बात को नहीं समझ पाने का नाटक किया और कहा, ''जो भी कहिये पैसा बुरा नहीं देते।''
''पैसा।"

ही, तब भी 'आप' की सीमारेखा टूटी नहीं थी। कावेरी को धक्का लगा था। हैरान होकर उसने सोचा था, 'ठीक ऐसे पल में पैसे की बात कैसे की इस आदमी ने।' यह आदमी था ही कुछ विचित्र।
कम-से-कम अभी तो बिलकुल विचित्र बात ही कर दी उसने।
ठीक उसी पल, जब कि कावेरी प्यार और खुशी छलकाती आकर वहाँ खड़ी ही हुई, वह बोला, ''ही, देखो तो, तुम लोगों के 'हविष्यान्न' की सारी तैयारी है या नहीं?''
हालाँकि कावेरी देखने नहीं गयी। पिता की बीमारी के समय सेवा करने से वह जैसे कतराती थी, कहती थी, ''मैं वह सब कुछ नहीं जानती, वह सब श्रीमती भाभी का डिपार्टमेण्ट है,'' ठीक वैसे ही अब भी बोल उठी, ''मुझे वह सब नहीं मालूम, वह है भाभी का डिपार्टमेण्ट।''
''तो फिर जाकर आप ही देख आइये।'' उदार स्वर में प्रभांशु बोला। सन्ध्या के काँपते बदन को सबकी दृष्टि से बचाने के लिए उसे भेज दिया।
और सन्ध्या के जाते ही कावेरी ने मन-ही-मन कहा, 'ओह! कितना चालाक है? कितनी आसानी से भगा दिया। मैं उस आदमी को विचित्र समझ रही थी।'
पर मुँह से उच्चारा, ''बेचारी!''
सन्ध्या के उस प्रकार चले जाने की भंगिमा से यही शब्द याद आ गया उसे।
प्रभांशु चौंक-सा गया।
बोला, ''कौन? किसकी बात कर रही हो?''
''भाभी की ही बात कर रही हूँ।'' कावेरी करुणा से पसीज गयी। ''उस बेचारी का पता नहीं क्या होगा।''
प्रभांशु के होठों के कोने पर क्या हल्की मुस्कान झाँक गयी?
शायद गयी, शायद नहीं।
प्रभांशु बोला, ''उनके लिए नये सिरे से सोचने की क्या आवश्यकता है?'' 
''यह तो सच है।'' कावेरी और भी गद्गद हो गयी। ''उसका तो सोच-विचार सब चुकता ही हो गया। मुश्किल यह है कि भाभी के मैके में भी कहीं कोई अपना नहीं है। इसके बाद कहीं जाकर ठहरेगी। शिक्षा का जोर नहीं कि ऑफ़िस में नौकरी करे, रूप नहीं कि मेरे जैसा ही कुछ कर ले। नहीं तो अपनी नौकरी ही मैं उसे दे देती बाद में।''
''वही तो।'' प्रभांशु गम्भीर आवाज़ में बोला, ''मैंने भी तो यही सोचा है। और सोच-सोचकर यही निश्चय किया कि तुम्हारी वह नौकरी तुम्हारी ही बनी रहे, मैं ही उन्हें एक नौकरी दे दूँ।''
''तुम? तुम उसे क्या नौकरी दे दोगे?'' कावेरी कोतुक से झलक उठी,
''कम्पाउण्डर की नौकरी या फिर...''
''नहीं, सोच रहा हूँ अपने होम डिपार्टमेण्ट के हैड आफिसर की पोस्ट...''
"क्या, क्या कहा?'' कावेरी आँख-भौंह, ललाट सब सिकोड़कर बोली, ''क्या कहा?''
''यही तो कह रहा हूँ, अब उसे और कही कुछ भी नहीं मिलेगा, पढ़ी-लिखी है नहीं कि आफ़िस में नौकरी करेगी, रूप है नहीं कि साबुन-कम्पनी का प्रचार ही करेगी, फिर? फिर करे क्या, अब तक जो करती रही, चौका-बर्तन, घर-सँभालना, इसके सिवा और क्या करेगी वह? इसलिए उसी काम का प्रस्ताव दे रहा हूँ उसे, घरणी का पद...''
कावेरी झटककर उठ गयी।
क्रुद्ध होकर बोली, ''तुम्हारे हँसी-मज़ाक कुछ अधिक ही भद्दे होते जा रहे हैं, आजकल। जानते हो वह मेरे भैया की विधवा स्त्री है। इस तरह से मज़ाक...'' 
''क्या मुसीबत है? मज़ाक कर रहा हूँ, किसने कह दिया? सचमुच का प्रस्ताव है। तुम्हारे भैया की विधवा स्त्री थी, तुम्हारे दोस्त की सधवा पत्नी होगी।''
''ओह! तुम्हारे मन में यह पाप था? इतने दिनों तक मेरे साथ खिलवाड़ करते रहे?'' कावेरी की आँखों से आँसू फूट पड़े।
प्रभांशु ने देखा। फिर बड़े ही कोमल, स्नेह-भरे स्वर में बोला, ''तुम्हारे लिए तो सारी दुनिया ही उन्मुक्त है कावेरी, उसके लिए सिर्फ एक ही खिड़की...। वह खिड़की भी बन्द कर दूँ?''

''अच्छा। इसका मतलब दया दिखाकर तुम एक गरीब विधवा का उद्धार करोगे?''
कावेरी का सुन्दर चेहरा दुख, व्यंग्य और क्षोभ से विकृत हो गया। प्रभांशु बोला, ''अरे नहीं बल्कि वह गरीब विधवा ही मेरे प्रस्ताव को स्वीकार कर ले तो मैं निहाल हो जाऊँ। मगर आश्चर्य की बात यह है कि मुझे पता नही था कि इतना खुलकर सब कुछ कहना पड़ेगा मुझे। सोचता था लड़कियों की अनुभूति प्रखर है।''
''ओह! इसका अर्थ हुआ तुम उसे ही...''
''बराबर! शुरू से!''
''इसका मतलब मेरे साथ सिर्फ खिलवाड़ किया।''
''झट से अपराध स्वीकार नहीं करूँगा। सोचकर देखना पड़ेगा, खिलवाड़ तुमने ही अपने साथ किया या नहीं।''
मगर प्रभांशु की सारी बातें ही सच थीं क्या, उसने प्रवंचना की नहीं क्या, इस घर में प्रवेश करने का अधिकार सुलभ रखने के लिए उस खेल को बढ़ावा नही दिया था क्या उसने?

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