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ये जीवन है

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1204
आईएसबीएन :81-263-0902-4

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इन कहानियों में मानव की क्षुद्र और वृहत् सत्ता का संघर्ष है, समाज की खोखली रीतियों का पर्दाफाश है और आधुनिक युग की नारी-स्वाधीनता के परिणामस्वरूप अधिकारों को लेकर उभर रहे नारी-पुरुष के द्वन्द्व पर दृष्टिपात है।


घायल नागिन
यह धरती बंगाल से बहुत दूर है।
नयी सड़क बनाने के लिए, यहाँ पहाड़ काटा जा रहा है। अकसर ही गर्मी की दोपहर में दो-चार अभागों की 'लू' लगकर मौत हो जाती है। कोई नयी बात नहीं है। जैसे जाड़े के दिनों में दो-चार बच्चों का सर्दी से ठिठुरकर मर जाना, यह भी कोई नयी खबर नहीं है।
मोटे तौर पर यहाँ की आवोहवा ही भिन्न है, बंगाल से कुछ भी नहीं मिलता है। फिर भी 'सुजला, सुफला, शस्य श्यामला' कहलानेवाले बंगाल के लोग पेट भरने की आस में यहाँ तक आ पहुँचे हैं। एक-आध लोग नहीं, काफी लोग अपनी-अपनी रुचि के अनुसार घुल-मिलकर रहते हैं। बंगाली ढूँढ़े नहीं मिलते हैं।

सिर्फ कुछ लोग, जिनकी कोई पदमर्यादा का झंझट नहीं हैं, ऐसे कुछ लोगों ने खोजकर कुछ बंगाली मिलाकर एक छोटी-मोटी गोष्ठी बना ली है।
'सर्वे' ऑफ़िस के पीछेवाले बरामदे में रोज शाम को एक साथ बैठकर अड्डा जमाते हैं ये लोग।

यद्यपि इस गोष्ठी में दो हिन्दी-भाषी भी शामिल हैं, सुखलाल और गिरिधारी, मगर बांग्ला भाषा पर उनकी दखल जतीन, रासबिहारी, नन्द, अमूल्य, प्रभापद और जीवन से रत्ती-भर भी कम नहीं है।
बोली में थोड़ी-सी जो देहाती शैली उनके बंगाली न होने का सबूत देती थी वह भी अब नहीं रही, क्योंकि बरसों बंगाल से दूर रह-रहकर वह देहाती शैली औरों की बोली में भी आ गयी है।

सुखलाल और गिरिधारी तेरह-चौदह साल वर्धमान में बिताकर करीब-करीब बंगाली बन गये हैं। इसलिए इतनी दूर आकर भी बंगालियों का अड्डा ही चुन लिया है उन दोनों ने। कभी-कभी अपने जात भाइयों के बारे में व्यंग्यपूर्ण टिप्पणी करते, कहते, ''साले सत्तूखोर भूत!''

''तुम लोग तो बंगाली बन गये,'' नन्द बोला।


ये दोनों हैसकर कहते, ''जिसने झींगा मछली खा ली वह बंगाली बन गया। नहीं तो रोज़ तुम लोगों के पास हाजिरी देने आऊँ भला?''
वे लोग, अर्थान् जतीन, रासबिहारी, अमूल्य आदि कुछ और ही कहते है। कहते है दिल का लगाव बंगाली से नहीं, कबूतरी से है।...अकेले कबूतरी के आकर्षण से ही इतने विभिन्न उम्र के मर्द एक जगह आकर जमा हाते हैं।
कबूतरी की उम्र का सही पता नहीं चलता है। उसका स्वास्थ्य पत्थर से गढा हुआ है, उम्र को पता नहीं कहाँ बाँधकर रखा है। उस तीखे चटकदार शरीर को लेकर कबूतरी हँसकर लोट-पोट होती है उनकी बात सुनकर। कहती है, ''मर जाऊँ मैं! तुम लोगों के इस गाँव में और लड़की नहीं है क्या?''
वे भी हँसते है, कहते है, ''नहीं है। मालूम नहीं उस दिन अमूल्य का क्या हाल हुआ? ठक्कन माली की बीवी कुएँ से पानी भर रही थी, अमूल्य शायद देखकर हँसा था। बस, पानी से भरा मिट्टी का घड़ा अमूल्य की पीठ पर चकनाचूर हो गया। अमूल्य के बदन का दर्द मिटते...।''

कबूतरी फिर लोट-पोट हुई। अमूल्य उस्ताद के शौक की भी बलिहारी। ठक्कन की बीवी औरत है क्या? वह तो एक सिपाही है। उसके एक हाथ का वजन तुझसे अधिक है, अमूल्य!
''मगर आँखों से ही वार किया न?''
तो एकदम मर क्यों नहीं गया आँखों के तीर खाकर? वाचाल की तरह हँसकर बोली कबूतरी, ''हम सभी रामनाम कहकर तुझे स्वर्ग भेज देते?''
ऐसा ही अड्डा है इनका, ऐसी ही बातें। मगर ऐसा अधिक देर तक नहीं चलता है। दो-चार बातों के बाद ही असली अड्डा शुरू हो जाता है। कबूतरी अपने छींट के मैले बटुए में से ताश निकालती है।
बड़ी देर तक ताश की बाजी चलती रहती है। सुखलाल ने इन्हें तीन पत्ती की बाजी सिखा दी है। उसका नशा शराब से कुछ कम नही है।
रासबिहारी 'सर्वे' ऑफिस का एक मुख्य कर्मचारी है। इन लोगों की तरह सड़क मापन और खूँटे गाड़नेवाला कुली नहीं है। ऑफिस के फाइल, दस्तावेज सब उसी की निगरानी में रखे जाते हैं।

इस ऑफिस के अहाते में अड्डा जमाने का श्रेय रासबिहारी को ही जाता है। क्योंकि रात को वह यही रहता है, ऑफिस की चाभी उसी के पास होती है।
तो सच्चे अर्थ में इस ऑफिस का ऑफिसर रासबिहारी ही है, क्योंकि असली साहब तो दिन में एक-आध घण्टे के लिए अपनी सूरत दिखा जाते हैं। बाकी समय रासबिहारी का ही राज होता है। कबूतरी रासबिहारी का खाना पका देती है। कहने की आवश्यकता नहीं, कबूतरी का खाना-पीना भी यहीं से हो जाता है। रात का
खाना अकसर ही आठ-दस लोगों का हो जाता है।...यार-दोस्त सब चन्दा उठाकर 'फीस्ट' करते हैं। एक-दो जंगली मुर्गी का इन्तजाम होते ही बस भोज।
यहाँ किसी की भी स्त्री कन्या, माँ, बहन नहीं है, इसलिए एक औरत के हाथ का परोसा हुआ भोजन, हँसी-मस्करा उन्हें गद्गद कर देता है।
वह औरत चाहे बुरी हो, वाचाल, बेशर्म हो जुए के नशे में, और भी नशा करती हो, है तो औरत ही! सूखी मरुभूमि में एक 'ओएसिस'।

कबूतरी कितनी भी वाचाल, बेहया हो, खाना अच्छा पकाती है, और प्रेम से खिलाती है। अपने-पराये का भेद नहीं करती है। जितना ध्यान रासबिहारी का रखती है, नन्द और जतीन का उससे कम नहीं रखती, चाहे वे रासबिहारी के खिदमतगार ही क्यों न हों।
स्तरभेद है इनमें पर ताश की डोर से बँधकर एक हो गये हैं। तीन पत्ती! और इन्हें एक तार में बाँधकर रखती है कबूतरी।
केवल घमण्डी ढक्कन को इनका खाना-पीना, हँसी-ठहाका फूटी आँखों नहीं भाता।
ऊपरवाले के पास शिकायत लगाने की भी कोशिश की थी उसने, कबूतरी का नाम लेकर दुर्नीति का प्रश्न भी उठाया था। ठेकेदार हँसकर बोले, ''तुझे हिस्सा नहीं देते क्या? या फिर जुए में हार जाता है?''
इस तरह ठक्कन और उसकी बीवी ही अकेले पड़ गये हैं।
आज ही ठक्कन ने प्रभापद क्रो धमकाया है कि साहब से कह देगा, इसी बात को लेकर हँसी-मज़ाक करते-करते कबूतरी अचानक बोल उठी, ''नये साहब तो आ गये।'' ऐसा नहीं कि 'इन्जीनियर' शब्द का उच्चारण वह नहीं कर पाती है, यह सब उसका तमाशा है।

रासबिहारी बोला, ''हाँ, दास साहब, अनंग बाबू भाग-भागकर स्टेशन जो जा रहे थे सवेरे!''
''बहुत बड़े साहब है, सुना है?''
''हाँ, विलायत होकर आये हैं। दो-तीन हज़ार पगार है। सामने के उस 'धौला पहाड़' को तोड़कर सीधा नया रास्ता निकल सकता है कि नहीं, उसी का नक्शा बनाने आये हैं।''
''देखो, फिर क्या झमेला खड़ा होता है। ये बड़े साहब लोग जितना कम आएँ उतना ही मंगल,'' जतीन बोला।
कबूतरी हँसकर बोली, ''तेरा ही मंगल करने के लिए भगवान चक्कर काट रहे हैं।''
''चल बैठ जा, व्यर्थ में बकता है।''

मगर पत्ते बाँटते-बाँटते खुद ही कबूतरी ने बात को छेड़ा। बोली, ''साहब की मेम भी तो आयी है।''
''आएगी क्यों नहीं।'' साँस छोड़कर प्रभापद बोला, ''तीन हजारी साहब मेम नहीं लाएगा?...ये लोग तो तम्बू में भी मेम लाकर रखते हैं।''
ये 'हम' थोड़े ही हैं?
उसकी बात पर सब हँस पड़े।
मगर उस हँसी में कौतुक से विक्षोभ ही अधिक था। बराबर से ये देखते आये हैं, दुनिया के सारे सुख-सौभाग्य, दुनिया की सारी खुशियाँ ईश्वर ने एक ही ओर उँडेल दी हैं। जो अभागे है, वे हर तरह से ही अभागे है।
''भगवान के गोद लिये बेटे हैं'', नन्द बोला, ''दूध की सारी मलाई उन्हीं के हिस्से में।''
कबूतरी सीधी साफ बात करती है। सही-गलत की पहचान है उसे। इसीलिए तीखे स्वर में बोली, ''बस कर नन्द, मूरख जैसी बातें न कर। दूध की मलाई उनकी थाली में नहीं तो क्या तेरी थाली में पड़ेगी?...तूने उनकी तरह इतनी पढ़ाई-लिखाई की है? विलायत जर्मनी हो आया है? उनके जैसे मक्खन-मिश्री वाले घर में पैदा हुआ है तू? पिछले जन्म का पुण्य चाहिए, समझा? उसके साथ इस जन्म की कोशिश चाहिए! केवल उनसे जलने से ही नहीं होगा। जो जैसा बीज बोएगा, वह वैसा ही फल खाएगा।''
''कबूतरी हमेशा साहब लोगों की तरफदारी करती है,'' नाराज़ होकर नन्द बोला, ''दे पत्ती बाँट।''
मगर नन्द को जितना भी पाठ पढ़ा दे, कबूतरी के दिल में ईर्ष्या बिलकुल नहीं है क्या? नहीं होती तो घुमा-फिराकर साहब की मेम का ही प्रसंग क्यों छेड़ती है बार-बार? 'साहब की मेम' जानता है रे अमूल्य, ''एकदम हड्डी की ढेर है, और कुछ नहीं।'' अमूल्य एक अश्लील इशारा करके बोला, ''फिर क्या, तेरे तो पौ बारह हैं!"
''बस कर अमूल्य, छिछोरापन मत कर!...खेलना है तो खेल।''
''मैं करूँ तो छिछोरापन है। अरे, सरकार साहब का क़िस्सा अभी भूल तो नहीं गया मैं।''
''उसकी बात रहने दे! वह भी एक नम्बर का छिछोरा है। जाने के समय पैसा बाकी रखकर चला गया।''
''तूने भी तो कम बेइज्जत नहीं किया उसे? स्टेशन जाकर सबके आगे भण्डाफोड़ कर दिया था। ये तो गाड़ी छूट गयी, तभी बेटा मुँह छिपाकर भाग सका।'' 
''ये साहब दूसरे तरह के हैं।'' कबूतरी बोली।

''इतना सब कब देख लिया तूने?''
रासबिहारी ने पूछा, ''एक बार तो गयी थी, सिर्फ साहब का क्वार्टर झाड़पोंछ करने के लिये।''

''एक ही बार काफी है,'' मुस्कुराकर कबूतरी बोली, ''हाँडी के भात का एक दाना दबाओ तो पता लग जाता है, पक गया है कि नहीं!''
रासबिहारी मुस्कुराकर बोला, ''तेरी आग में तो सभी पक जाते हैं आखिर तक।''
एक गर्व भरी मुस्कान कबूतरी के चेहरे पर बिखर गयी।...
इसी तरह बोलचाल होती उन लोगों में,
जिन्हें 'ऊँचा' मानना ही पड़ता है, जिन्हें 'बड़ा' स्वीकार किये बिना चारा नहीं है, उनके प्रति ये अपनी भड़ास इसी तरह निकालते हैं। अपने इलाके में बैठकर ताने कसते हैं उन पर, नीचा दिखाते हैं उन्हें।

केवल ये ही नहीं, अनादि अनन्तकाल से सभी छोटे यही काम करते आ रहे हैं। पीछे से राजा की माँ को 'डायन' कहने की प्रथा आज ही तो नहीं बनी है।
अगले दिन बात रासबिहारी ने ही उठायी।
बोला, ''मुखर्जी साहब के बँगले पर काम करना है। 'आया' चाहिए। मेमसाहब की तबीयत ठीक नहीं है, हमेशा किसी का साथ होना जरूरी है। तुझे एक नज़र देखते ही पसन्द कर बैठी, कबूतरी।''
''बुला भेजा'' तुझे, भौंहें नचाकर रासबिहारी बोला।
''कौन पसन्द कर बैठा, रासू भैया,'' कुटिल दृष्टि से देखकर प्रभापद बोला, ''मेमसाहब या खुद साहब?''

''दोनों ही शायद।'' साहब ही मुझे बुलाकर बोले, ''कल जो लड़की यहाँ काम कर गयी, उसे बुला नहीं सकते?''...तो मैंने भी तुझे जरा चढ़ा दिया, समझी कबूतरी, मैंने कहा, ''हुजूर, वह जरा झक्की है। कहीं बँधकर काम करना नहीं चाहती है। करती भी है तो पैसे बड़े माँगती है।''
''तो क्या बोले?''
''बोले पैसों की चिन्ता मत करो। जो माँगे मिल जाएगा।''
''इसी से पता चलता है...'' भद्दी हँसी फैल गयी कमरे में।
''तो कल ही तेरा जॉइनिंग डेट है,'' हँस पड़ा रासबिहारी। फिर बोला, ''देखना कबूतरी, हम लोगों को एकदम भूल न जाना। तेरे ही हाथ का लज्जेदार पकवान खाकर हमारा शरीर टिका हुआ  है।''
हँसकर तसल्ली दी कबूतरी ने, ''पकवान बनेंगे।''
''बनेंगे? कब बनेंगे? बड़े आदमी के घर मोटी पगार पर 'आया' का काम
करेगी, चौबीस घण्टे की 'आया'।''

''रहने दो। चौबीस घण्टे की 'आया'! ऐसा काम कबूतरी नहीं करती। कहूँगी शाम के बाद छोड़ देना होगा नहीं तो काम नहीं करूँगी।''
''मानेंगे क्या? पैसे की गर्मी नहीं दिखाएँगे?''
''दिखाएँगे तो नहीं करूँगी।...देखती हूँ इस कबूतरी जैसी दूसरी आया कहाँ मिलती है उन्हें।''

यह अहंकार कबूतरी को ही सजता है। यहाँ जब भी कोई ठाट-बाट वाला आता है तो घर के काम के लिए जरूर कबूतरी की बुलाहट आती है। असली बात यह है कि उसके काम की सफाई, काम करने का ढंग सभी को भा जाता है।
''अच्छा, तब तो ताश का अड्डा बरक़रार रहेगा, है न?''
सुखलाल ने सन्तुष्ट होकर बीड़ी का बण्डल निकाला।
''मेरी रसोई का ही सत्यानाश हो जाएगा। शाम को आ जाएगी और खाना भी पका देगी, इतना जोर नहीं चलेगा।''

''देख लेना!'' कबूतरी विजय गौरव के साथ बोली, ''चलता है कि नहीं!'' कह दूँगी, ''घर में बूढ़ा ताऊ है, उसे खाना बनाकर न दूँ तो मर जाएगा, बुड्ढा।''
''ताऊ! हि-हि-हि, ताऊ!''
सब लोग एक साथ हँस पड़े।
खैर कबूतरी की चाल बेकार नहीं गयी।
मेमसाहब ने साहब को कहा, ''देखो यह कह रही है घर में बूढ़े ताऊ हैं, उनके लिए जाकर कुछ पकाना ही पड़ेगा नहीं तो भूखे ही रह जाएँगे। ग्यारह-बारह बजे घण्टे-भर के लिए एक बार छोड़ देना पड़ेगा। क्या किया जाए, बताओ तो?''
हँसकर साहब बोले, ''खूब पूछा! यह मेरा 'जूरिस्डिक्शन' है क्या?''

''अहा, तुमसे पूछ तो सकती हूँ कि नहीं? चालीस रुपये पगार लेगी, शाम को आठ बजते ही चली जाएगी फिर दोपहर में भी। तुम कहोगे मैं सिर पर चढ़ा रही हूँ।''
साहब नीची आवाज़ में बोले, ''वह बदनामी तो तुम्हारी है ही। एक मेरे सिवा सभी को तुम्हारे पास छूट मिली हुई है। आया, बैरा, धोबी, ग्वाला, जमादार, माली...''
''बस भी करो और लिस्ट बढ़ाने की जरूरत नहीं।'' मगर मैं कहती हूँ, ''उस समय इतना काम ही क्या है? बूढ़ा आदमी भूखा रहेगा? इन्सानियत को ठेस पहुँचती है।''
''ठीक है, अगर तुम्हें दिक्कत न हो तो दे दो छुट्टी,'' साहब बोले, ''मगर काम सारे करा लेना जाने के पहले। कामचोरी ठीक नहीं है।''


टाई लगाते-लगाते साहब ने और भी कहा, ''खाना पकाने की बात कर रही है-तो अपनी रसोई में भी उसे कभी-कभी मौका देकर देखो न? जैसी भी हो, बंगाली लड़की है, कुछ हमारे पकवान ज़रूर बनाती होगी। इसके लिए फिर तुम्हें 'बाबाजी' का 'असिस्टेण्ट' नहीं बनना पड़ेगा।''
मेमसाहब के चेहरे पर एक परितृप्त हँसी फैल गयी। बोली, ''ये जो बात कही तुमने, यह मैं कर चुकी हूँ।''
''कर चुकी हो? वाह! बहुत अच्छा।'' साहब के प्रसन्न कण्ठ की खुली हँसी गूँज उठी सारे घर में।

''तुम तो खाली हँसते हो। मैंने खुद थोड़े ही कहा?''
''कबूतरी खुद ही बोली-''
''कौन? क्या नाम बताया?''
''कबूतरी। यही उसका नाम है,'' मेमसाहब बोलीं, ''मैं भी नाम सुनकर हैरान हो गयी थी।''

''कहा था, कबूतरी नाम बुलाना मुश्किल है, अच्छा कोई नाम नहीं है?''
''क्या बोली जानते हो?''
हँस पड़ीं मेमसाहब, ''अच्छा बोलती है। बोली, एक नाम ही जुटता नहीं है मेमसाहब, दो चार कहाँ से लाऊँ। नाम देगा कौन? माँ-बाप मर गये बचपन में, हमेशा बीमार रहती थी, सुखडू कबूतर की तरह थी। नानी कबूतरी बुलाती थी, वही नाम रह गया।''
हँसकर साहब बोले, ''कबूतर की तरह थी? तब तो यहाँ की आबोहवा का बड़ा गुण है, क्यों?''

मेमसाहब के बीमार चेहरे पर हँसी छा गयी।
अविश्वास की हँसी।
आबोहवा के गुणों पर उन्हें विश्वास नहीं है। अभी आठ-नौ वर्ष हुए शादी के, पति के साथ घूमती रहती है। अच्छी-अच्छी जगह देखी है। पैसे खर्च कर तबीयत सुधारने की आशा से भी कई जगह गयी है, चेहरा भरता कहाँ?
छोटे लोगों का भरता है। मोटे चावल के भात खाकर और मेहनत करके। पर उन दोनों में से एक भी तो वह कर नहीं सकती? मगर 'स्वास्थ्य' चीज़ ही कितनी सुन्दर है!
नहीं तो आज जब कबूतरी कुएँ से पानी निकाल रही थी, तब मेमसाहब उसके डील-डौल को मोहित दृष्टि से निहार क्यों रही थीं? सोच रही थी, बचपन में बीमार रहती थी, इस कारण इसका नाम कबूतरी पड़ा था?

सिगरेट का धुआँ छोड़ते-छोड़ते अचानक साहब बोले, ''तो तुम्हारे उस बंगाली पकवानवाली बात का क्या हुआ, बीच में ही रुक गई क्यों?''
''ओ-हो-हो,'' खिलखिलाकर हँस पड़ी मेमसाहब। बोलीं, ''दादी कहती थीं, चोर का दिल टूटे बाड़े  की ओर। इतने नये-नये पकवान किताब से सीखकर बनाकर खिलाती हूँ, फिर भी मन लगा हुआ हैं सुक्तो, झोल की ओर!''
''वही तो! दादी के पास पला-बड़ा हुआ हूँ न। जानती हो, जब विलायत में था तो लगता था  कोई मुझे पार्सल करके घर का खाना भेज दे।''

''इसका मतलब तुम साहब नहीं बन सके?''
''कहाँ बन सका? तुम्हारी कामना अपूर्ण ही रह गयी!''
''सच ही तो है। 'मेमसाहब' तो नाम के लिए! इसीलिए कबूतरी जब बोली, ''पहले यहाँ एक  गांगुली साहब रहते थे। उसके हाथ का खाना खाकर इतने मोहित हुए कि आया का काम  छुड़ाकर उसे रसोई में लगा लिया'' तो पतिव्रता सती की तरह बोल उठी, ''तुम्हारे ये साहब भी  बंगाली खाना बहुत पसन्द करते हैं। तुम अगर कुछ और पैसे लेकर...'' तो जीभ काटकर  कबूतरी बोली, ''नहीं, नहीं। साहब को अगर मेरा बनाया खाना पसन्द हो तो मेरा ही सौभाग्य  होगा।''

''ये कहा तूने?'' अमूल्य ने लड़कियों की तरह गाल पर हाथ रखकर पूछा। कबूतरी गोद पर से ताश निकालते हुए होठ दबाकर हँस पड़ी बोली, ''कहूँगी क्यों नहीं?''
''तू जैसी खतरनाक लड़की है, हाथ का खाना खिलाकर ऐसे वश में कर लेगी कि...'' बात पूरी  नहीं अमूल्य की। एक भद्दी गाली देकर बात पूरी कर दी। फिर बोला, ''वह सब रहने दे। साहब  के घर के किस्से सुना हम लोगों को।''
कबूतरी ताव खाकर बोली, ''किस्सा क्या? पैसा लूँगी, काम करूँगी, लेना-देना खत्म।''

''मर जाऊँ!'' अमूल्य फिर लड़कियों के रंग-ढंग से बोला, ''हमारी कबूतरी तो अभी-अभी माँ के  पेट से निकली है। फिर भी जो न अगर...''
''रहने दे अमूल्य पुरानी बातें,'' नन्द बोला, ''साहब का चेहरा तो सचमुच साहब जैसा ही है।... सुबह सैर के लिए निकले थे दोनों, साहब के बगल में मेमसाहब बिलकुल दिखायी ही नहीं पड़  रही थी। गोरी चिट्टी तो है, मगर शरीर में है क्या? इधर साहब का जैसा लम्बा-चौड़ा गठीला  बदन, वैसा ही नाक-नक्श, रंग। विधाता ने फुर्सत से रचा था उन्हें। एक सही जवाँ मर्द है।''

''उसी खुशी में डूबे रहना।'' बेशरम की तरह कबूतरी हँस पड़ी, ''वह दिखावा ही है। समझा? हालचाल देखेगा तो श्रद्धा गायब हो जाएगी।''
...''इंजन साहब पानिकर के घर जब काम करती थी, दिन-रात साहब मेम की लीला  देखते-देखते, हि-हि-हि। और दूसरे यह मुखर्जी साहब? शाम को घर लौटकर
दोनों ने आमने-सामने बैठकर थोड़ी चाय पी ली, बस। उसके बाद साहब एक किताब लेकर  लम्बे हो गये, मेमसाहब ऊन-काँटा लेकर बैठ गयी, कहीं कोई आवाज़ नहीं...''

''इतने ऊन का होता क्या है?''
''सुना है युद्ध के लिए!...'' बाबूलाल बोला, ''वही चलता है रात के नौ बजे तक। फिर साहब  हाँकते हैं, ''बाबूलाल!'' मेमसाहब कहती, ''टेबुल लगाओ!''...खाने के बाद-बोलने से मानेगा?  हँसकर लोट-पोट हो गयी कबूतरी, खाना खाने के बाद साहब कहते हैं, ''अच्छा गुड नाइट।''... मेमसाहब कहती, ''अच्छा!'' फिर दोनों दो कमरे में सो जाते हैं।
''दो कमरे में!''
कबूतरी की बात सुनकर सब स्तब्ध रह गये।
''क्या कहा कबूतरी तूने?''
''और क्या कह रही हूँ? सुना है मेमसाहब का 'हेल्थ' खराब है, नींद की जरूरत है। वही तो कह रही हूँ, ये सब मिट्टी के सिपाही हैं।''

प्रभापद कुटिल आँखों से देखकर बोला, ''मगर साहब का भी तो 'हेल्थ' ठीक रखना ज़रूरी है कि नहीं?''
''चुपकर! मुँह खराब मतकर अपना।''
''नहीं, आजकल बड़े ताव में रहती है तू कबूतरी!''
''रहेगी क्यों नहीं, महीने-भर से काम कर रही है, सिर्फ मेमसाहब की नेक-नज़र के किस्से  सुनाने पड़ रहे हैं बेचारी को।...मेमसाहब ने साड़ी दी, मेमसाहब ने ब्लाऊज दिया, मेमसाहब ने  बख्शीश दी! दुर-दुर!''...
कबूतरी अचानक चुप हो गयी।

कबूतरी के स्वाभिमान पर जैसे ठेस पहुँची। चाहे तो क्या कबूतरी इनको टके-सा जवाब दे नहीं  सकती है? शेर का बच्चा दूध पीकर पल रहा है, मांस का स्वाद जानता नहीं, एक बार जान  लिया तो-
''नाराज़ हो गयी कबूतरी?''
कबूतरी गम्भीर स्वर में बोली, ''नाराजगी कैसी?''
''माटी की मूरत है, इसलिए पलटकर देखती नहीं। मगर कबूतरी अगर पीछे लग जाए तो  मिट्टी में प्राण-संचार हो जाए, क्यों?'' कहकर अपने मज़ाक पर आप ही हँसकर लोट-पोट होने लगा नन्द।
उनके घर की बात, ये लेकर आते हैं।
इनके घर की बात उनके घर नहीं पहुँचती है।
तभी मेमसाहब रह-रहकर साहब के पास आकर कबूतरी नामक परम सम्पदा के गुणों का बखान कर जाती है।...ऐसी आया उन्होंने जिन्दगी में नहीं देखी है। यहाँ से अगर बदली हो जाए तो कबूतरी को खोने के शोक में आँसू बहाना पड़ेगा उन्हें।...यहाँ तक कि कभी-कभी ऐसे बुरे ख्याल भी आते हैं कि कबूतरी का वह बूढ़ा ताऊ है, अस्सी-नब्बे साल आयु है जिसकी, वह तो कुछ समझदारी कर मर भी सकता है? तब तो कबूतरी की पगार और बढ़ाकर उसे साथ ले जाती।

साहब अपने ही निराले ढंग से हा-हा कर हँस पड़े, ''बोलो तो बूढ़े को गोली मार दूँ? तुम बिना रोक-टोक के...''
''ऐ चुप! ऐसे मज़ाक़ सुनने से डर जाएगी बेचारी। बाप नहीं है, ताऊ पर मरती है। मगर जो भी कहो, 'मोचा' भी पका सकती है उधर केक-पुडिंग भी बना सकती है, ऐसी आया नहीं मिलेगी तुम्हें। ऊपर से देखो कितनी माया-ममता है। ज़रा-सी सर्दी लगी मुझे, कितनी बेचैन है। मेमसाहब, अदरख की चाय पीजिए, मेमसाहब 'फुटबाथ' लीजिए, नमक-पानी से कुल्ली कीजिए, जानती भी कम नहीं।''

मुखर्जी साहब ने कबूतरी के गुण कीर्तन पर और ध्यान नहीं दिया। घबराकर बोले, ''सर्दी लगी है तुम्हें, बताया तो नहीं?''
''कहने लायक खास कुछ हुआ नहीं।''
''होने में क्या देर लगती है? तुम्हें तो सर्दी लगते ही बुखार आ जाता है। थर्मामीटर लगाओ तो!''
''उसके बाद पता है?'' कबूतरी वही वाचाल हँसी हँसकर बोली, ''तभी बुखार नापा गया, तुरन्त डाक्टर के पास खबर गयी, सीने पर तेल-मालिश, गरम कपड़े से लिपटा दिया गया...''
''बीमार है क्या?''

''किसी समय निमोनिया हुआ था। साहब सिन्दूरी मेघ आसमान पर देखते ही घर में पानी डालने लग जस्ते हैं।...तो रोग की इतनी चापलूसी करने से वह सिर पर चढ़कर बोलेगा नहीं क्या? आज सुबह तो साफ़ बुखार था।...'' साहब तो रोनी सूरत बनाकर बोलने लगे, ''कबूतरी तुम अपने ताऊ के लिए यहीं से भात ले जाओ न? देकर तुरन्त आ जाना। देख तो रही हो मेमसाहब बीमार हैं।''
रासबिहारी हँसकर बोला, ''तो राजी क्यों नहीं हो गयी? दो दिन साहब के घर के अच्छे पकवान खाने को तो मिल जाएँ।''

''चुप! एक ही बार में राजी होनेवाली लालची कबूतरी नहीं है!'' मैंने कहा ''पुराने ख्याल के  आदमी हैं, सड़क पर से लाया हुआ भोजन नहीं खाएँगे।''
''कसम से, कबूतरी, लोहा मानता हूँ तेरा! इतनी बात आ कैसे जाती है दिमाग में?'' विचित्र चेहरा बनाकर कबूतरी बोली, ''बातें ही तो बेचकर खाती हूँ।''
''जल्दी जा तब तो। निन्यान्वे बुखार में कहीं मेमसाहब का हार्टफेल न हो जाए।''

''साहब काम पर निकलेंगे कि घर पर बैठे रहेंगे?''
''काम पर अब क्या जाएँगे?''
''अभी से तो आँखें छलछला रही हैं।''
''उम्र कितनी है रे?''
''किसकी?''
''साहब की?''
''यही अड़तीस-छत्तीस कुछ होगी।''
''मान गये।'' अमूल्य लड़कियों के ढंग से बोला, ''मरकर औरत का जन्म लूँगा, बड़े आदमी की बीवी बनूँगा।''

कबूतरी झड़प उठी, ''मरकर क्या बनेगा, यह तेरे हाथ में है क्या? मरकर कीड़ा-मकोड़ा होगा कि नहीं, कौन कह सकता है? मगर हाँ, बात तूने ठीक ही कही। बड़े आदमी की बीवी दुनिया की सबसे अनमोल चीज़ है। देखती हूँ तो हैरान हो जाती हूँ। कुछ देती नहीं, सिर्फ लेती है। फिर भी कितना मान है! कितना रोब है।'' रासबिहारी का खाना थाली में रखकर जाने के लिए पैर बढ़ाये उसने। बोली, ''आज शायद रात को वापस न आ सकूँ। साहब काफी परेशान हैं...''

''मेमसाहब को बुखार और तू रात को नहीं लौटेगी, तब तो आधा काम आज ही निपटा लेगी।'' कड़ुवे स्वर में प्रभापद बोला।
''इस नीच को कोई ईंट से मारे तो! धरती माँ का भार हल्का हो जाए...'' कहकर हँसते-हँसते चली गयी कबूतरी।
मगर साहब के घर जाते ही उसका चेहरा बदल गया।
सेवा की साकार मूरत और विषाद की मूर्त प्रतिमा बनकर मेमसाहब के सिरहाने बैठी रही थी वह। बार-बार साहब के पास जाकर दवा और पथ्य के लिए निर्देश ले आती है, वह भी आँखें नीचे करके।

साहब प्रशंसा की दृष्टि से देखने लगे इस लड़की को। सोचने लगे मेमसाहब ऐसे ही इसकी तारीफ नहीं करती हैं।
''साहब आप सोने जाइये,'' बिस्तर से उतरकर साहब के बहुत निकट आकर धीरे से अनुरोध किया कबूतरी ने, ''अभी मेमसाहब सोयी हैं, मैं हूँ न...''
नींद में बेखबर पत्नी की ओर देखकर वैसे ही धीरे से बोले, ''तुम्हें भी तो सोना चाहिए...''

''हम लोगों की नींद क्या? आप भी क्या कहते हैं। अभी मेमसाहब को जिसमें आराम हो...और फिर आप लोगों का क़ीमती शरीर, नींद न आने से...''
''अच्छा'' एक बार फिर कोमल स्नेहमयी दृष्टि से पत्नी को निहारकर बोले,
''जाता हूँ। पर अगर जागकर खोजे तो मुझे बुला देना। बाहर से दरवाजे पर दस्तक देने से ही...''
''उस्ताद!'' अमूल्य हँसी से लोट-पोट हो रहा था। ''फिर दी कि नहीं दस्तक?'' गम्भीर भाव से कबूतरी बोली, ''ज़रूर दी। जागते ही मेमसाहब साहब के लिए बेचैन जो हो उठी।''
''धत् तेरी। जाग गयी! तब हुआ ही क्या? खाक्र।''
''तू चुप होगा अमूल्य!''
''तू तो हमेशा मुझे चुप कराती ही रही। मगर मैं भी कहूँ, अब की बार तू हार रही है।''
''हारी नहीं, कोशिश नहीं की।''
''क्यों भला?''
''क्या पता?''

''पता नहीं बाबा, तू कुछ रहस्यमयी बन गयी है। फिर, बुलाने के बाद क्या हुआ, यह तो बता?''
''होगा क्या? जगे ही थे शायद। तुरन्त कमरे की रोशनी जल उठी।...'' साथ ही साथ रात में पहननेवाला 'गाउन' पहनते-पहनते बाहर आ गये।...बोले, ''क्या हुआ? बुखार बढ़ा है?...छटपटा रही है?...मुझे खोज रही है? दौड़कर चले गये।''
''बुखार बहुत ज्यादा था क्या?''
''ज्यादा कहो तो ज्यादा। एक सौ एक।''
''एक सौ...एक!''
''धत्, इसी का इतना काण्ड?''
''होगा क्यों नहीं? राजनन्दिनी, प्यारी है वह!''
''तो असली बात क्या है कबूतरी?'' प्रभापद कड़वे स्वर में बोला, ''जाने के समय थोड़ा धक्का देकर गया ज़रूर?''

''गया! ईंट-पत्थर को जैसे ढकेलते हैं लोग...''
''इश! तेरे लिए मुझे अफ़सोस हो रहा है कबूतरी!''
''उसके लिए नहीं, उसकी बुद्धि के लिए। तेरी जीत में हमारी भी जीत है कबूतरी। बाहर साहब हम लोगों पर कोड़े बरसाते हैं, भीतर तू साहब लोगों से नाक रगड़वाती है, यह सोचकर जो मज़ा आता है!''
''नहीं, नहीं कबूतरी। तू इस तरह पिचक मत जा।...कम-से-कम एक बार भी मेमसाहब का घमण्ड तोड़ दे। हम लोगों ने सोचा था, इस काठ की गुड़िया को फूँक मारकर तू उड़ा देगी। मगर...''

''ज्यादा बकवास मतकर जतीन, कल रात-भर जागकर तबीयत खराब लग रही
है, अभी सोऊँगी।''

''ताश की बाजी नहीं होगी?''
''तुम लोग खेलो न बैठकर।'' कहकर कबूतरी रूठ गयी।
इसी सर्वे ऑफिस के पीछे एक फूस का घर है कबूतरी का। लावारिस ज़मीन पर रासबिहारी के खर्चे से बनाया गया घर।
कबूतरी चली गयी तो ये लोग कहने लगे, ''कबूतरी को हुआ क्या, किसी को पता है?''

''गंगाजली साहब देखकर मिज़ाज खराब हो गया है।''
मगर आश्चर्य की बात देखो, ''याद करो पानिकर साहब का किस्सा। मेमसाहब के साथ इतना प्यार, इतना अपनापन, तीन दिनों के लिए पैर में मोच के लिए अस्पताल रहना पड़ा, उसी समय साहब भी हड़क गये।''
''अरे जाने दे न और दो दिन। मुखर्जी मेमसाहब ज्यादा ही चालाक हैं, समझता नहीं? खुद ही कबूतरी की खुशामद कर रही हैं।''
''अरे बाबा रहने दो। मैं कह देता हूँ, मेमसाहब नहर काटकर मगरमच्छ बुला रही हैं। रावणराज की तरह अपना मृत्युबाण सहेजकर रख रही हैं। कबूतरी को पहचानतीं नहीं अभी।''

अपनी भविष्यवाणी से मोहित गिरिधारी ने पत्ती बाँटना शुरू कर दिया।
मगर इन छोटे लोगों की बात ही शायद सच है। शायद कबूतरी को पहचान पाना मिसेज़ मुखर्जी जैसी सभ्य, शालीन महिला के लिए सम्भव नहीं है।
मगर कबूतरी?
अपने आप को ही पहचानती है क्या वह?
अपने जिस जीवन की वह अभ्यस्त है, वह जीवन अचानक इतनी घृणा के योग्य क्यों लग रहा है? अब तक के इन साथियों को इतना निकृष्ट क्यों समझ रही है?

मगर अपनी अक्षमता भी इतनी अपमानजनक है।...वे लोग ज़रूर समझ रहे हैं कबूतरी बूढ़ी हो रही है, सिमट रही है। अब से उसका एक ही परिचय होगा-साहब के घर की चालीस रुपयेवाली 'आया', जिसे मेमसाहब की उतारी हुई साड़ी धोनी पड़ती है, जूते चमकाने पड़ते हैं, उठते-बैठते  फरमाइश पूरी करनी पड़ती है। और कोई सूरत लेकर झलक नहीं उठेगी कबूतरी? झलक नहीं सकेगी?...अपने उस अड्डे पर आकर हँस-हँसकर कह नहीं पाएगी-
''सभी काठ में घुन लगे हैं, समझे, ठोंकने से ही पता लग जाता है।''
कबूतरी को मालूम नहीं, मुखर्जी साहब घुन लगी लकड़ी हैं या नहीं। उसने खुद ही ठोंककर देखा नहीं।

मगर क्यों?
अपने उस फूस के कमरे में लेटे-लेटे बड़ी देर तक सोचती रही कबूतरी। उनसे कह आयी थी कि सोने जा रही है, यह भूल गयी। उसके बदले में बचपन की बहुत बातें याद आने लगीं उसे।...जब नानी के पास रहती थी, तब की बात। माँ मर गयी, इस बात के लिए नानी के पास कोई छूट नहीं थी। दुबली-पतली थी इस पर भी कोई रियायत नहीं। कोल्हु के बैल की तरह बस जुटी रहती थी काम में।...थोड़ी बड़ी हुई कि पड़ोस के बूढ़े से शादी कर दी उसकी। क्रब्र में पैर लटके थे उसके। और उसी समय कबूतरी के ज्ञानचक्षु खुल गये।...

उसकी एक मौसेरी बहन, उससे काफी-बड़ी, उसके गाल पर उँगली फेरकर बोली, ''तू इतनी बेवकूफ है, तभी उस क़ब्र के बुड्ढे से शादी कर ली। मैं होती तो भाग जाती! नानी बुड्ढी ने  उसे तेरे साथ क्यों जोड़ दिया, पता है? बूढ़े के तो दो-चार दिन बचे हैं। उसके बाद ही तू  विधवा होकर उसका माल लेकर घर वापस आ जाएगी। नानी का खाना पकाएगी जीवन भर। दो गुना फायदा है। बुड्ढे की बारह बीघे की धान-ज़मीन, बाल-बच्चे तो हैं नहीं बुड्ढे के।''

दुनिया को उस दिन पहचाना कबूतरी ने। सहायता की उसकी मौसेरी दीदी ने। बाद में और भी सहायता की। वह दीदी ही तो गुरु थी उसकी। हाँ, गुरु नहीं तो और क्या? जो ज्ञान की आँखें  खोल दे, वह गुरु ही तो है।
दीदी ने वही किया।
नानी की मौत के बाद विधवा कबूतरी जब चारों तरफ़ अँधेरा ही देख रही थी, तब मौसेरी दीदी उसे आँचल में छिपाकर आँख में आँसू भरकर बोली, ''ऐसा रूप, यह उम्र, गाँव में अकेले अपने-आप को बचा पाएगी? सब नोचकर खाएँगे। मेरे साथ चल तू।''

दीदी के चेहरे पर भगवान की छाया देखी थी उसने।
दीदी कबूतरी के बारह बीघा धान-ज़मीन का भार हल्का कर उसके बदले में कुछ कागज के नोट आँचल में बाँधकर कबूतरी का हाथ पकड़कर उसे अपने गाँव से बाहर ले आयी।
उसके बाद?
उसके बाद दीदी ने उसे दुनिया के साथ अच्छी तरह परिचित कराने का भार ले लिया। कबूतरी की धान-ज़मीन की तरह, उसके रूप और यौवन के बदले भर-भरकर आँचल में नोट बाँधने लगी।

मगर ज्ञानचक्षु से देखना तो सीख गयी थी कबूतरी तब तक!
एक दिन दीदी के घर से कबूतरी उड़ गयी।
उसके बाद कितने आसमान में चक्कर काटे, कितने पेड़ों पर घोंसला बनाया,
कितने पिंजरे के चने चखे, उसका कोई हिसाब नहीं।
यहाँ आयी थी बिजली मिस्त्री शशिभूषण के साथ, बेचारा मर गया। कबूतरी रोयी। मगर शशिभूषण के साथियों से उसका परिचय हो गया था।
वे साथी यही जतीन, प्रभापद, सुखलाल, गिरिधारी हैं।
आधे दर्जन से ऊपर लोगों ने शोकग्रस्त कबूतरी को स्नेहबन्धन में घेर लिया। यह अलिखित बात सबको मालूम है कि कबूतरी अब रासबिहारी की सम्पत्ति है...

मगर हँसी-मज़ाक़ करके जीवन को थोड़ा सरस बना लेने में हर्ज ही क्या है, रासबिहारी को  इसमें कोई आपत्ति भी नहीं है।
और जब साहब लोग आते हैं?
यह उनका एक प्रकार का खेल है।
उस दल का।
सभी लकड़ी में घुन लगा है, यह प्रमाणित करने में ही कहीं से उनकी जीत होती है।

प्रमाणित करना कबूतरी का काम है। मगर अब कबूतरी हार रही है। आश्चर्य की बात तो यह है कि प्रमाणित करने की चेष्टा किये बिना ही हार मान रही है कबूतरी। मगर यह भी माने तब न?
ये लोग कहते हैं, ''क्यों कबूतरी? मेमसाहब का बुखार उतरा?''
कबूतरी कहती, ''हाँ पसीना देकर।''
''तो इतनी सेवा की मेमसाहब की, साहब ने कुछ बख्शीश नहीं दी?'' कबूतरी अजीब-सा मुँह  बनाकर कहती, ''देंगे।''
''कब?''
''जब समय आएगा।''
पीछे से ये लोग कहते, ''ठेंगे से। वही जो मेमसाहब ने दस रुपये थमा दिये।''
''चालू है। मेमसाहब बहुत चालू है।''

कबूतरी को ये सब पता नहीं चलता है। फिर भी मेमसाहब के हाथ से बख्शीश लेने में उसकी  आत्मा विद्रोह कर उठती है।
अब तक मालकिनों को नाराज़ ही करती रही वह, उनकी आँखों में चुभती रही और पीछे से साहब के पास जाकर बख्शीश वसूल करती रही।
मगर यह मुखर्जी मेमसाहब इतनी सरलता से देती हैं कि 'ना' नहीं किया जाता। और मुखर्जी साहब? वह किस मिट्टी के बने हैं आज तक समझ नहीं पायी कबूतरी।
''इधर तो बाकी साहब लोगों से काफ़ी अधिक चुस्त हैं। वे लोग बल्कि सामने खुलकर बातचीत  नहीं करते, न बुलाते थे, ये तो सर्वदा कबूतरी, कबूतरी करते
रहते हैं।''
''कबूतरी, तुमने मेमसाहब को खाना दे दिया?... कबूतरी, तुमने मेमसाहब के कपड़े बदल  दिये?'' इस तरह की बातें भी और फिर इधर-उधर की बातें भी कितनी ही करते रहते हैं।

''कबूतरी, तुम्हें ऐसा खाना पकाना किसने सिखाया, कहो तो?...कबूतरी, आज हमलोगों को क्या खिला रही हो?...कबूतरी, खरगोश का गोश्त खाया है कभी?''...
बात तो होती ही रहती है।
आश्चर्य तो यह होता है कि इस तरह बुला-बुलाकर बात करने से मेमसाहब जरा भी नाराज़ नहीं होती हैं।...
यही कबूतरी को पहेली-सी लगती है। बराबर के जाने-पहचाने हिसाब का नियम यहाँ बैठता नहीं। कबूतरी की जानी-पहचानी दुनिया क्या उसके साथ कोई नया मजाक़ कर रही है?

कबूतरी अब करे क्या?
सुखलाल ने आकर खबर सुनायी।
''कबूतरी, तुझे पता नहीं?''
''क्या?''
''मेमसाहब कोलकाता जा रही हैं...''
कबूतरी चौंक उठी।
अभी तो घण्टे-भर पहले आयी है वह, सुना तो नहीं?
बोली, ''जा भाग।''
''माँ काली की किरिया। मेमसाहब का भाई आया है, बहन का ब्याह है। भाई के साथ आज ही  चली जाएँगी मेमसाहब। अचानक ठीक हुआ शायद।''
''और साहब?''
सुखलाल मुस्कुराकर बोला, '' 'साहब' तेरी हिफाजत में रहेंगे।''

''यम के द्वार जा तू मौत आये तुझे, नालायक कहीं का!...साहब रहेंगे और मेमसाहब जाएँगी?  सोचना भी मत। बीवी को छोड़कर एक मिनट रह सकते हैं क्या साहब? आँखें से ओझल होते  ही कहीं बीवी मर गयी तो?''
''देखो, कसम खाया तो भी नहीं मानती है। परसों दिल्ली से 'चीफ' आ रहे हैं, साहब अभी हिल सकते हैं भला? उधर बीवी की बहन की शादी है। चल, तेरे ठाकुर ने ही केला खा लिया।''

सुखलाल की बात सुनकर इधर-उधर से बाक़ी लोग आ गये। उमड़ पड़े सब...

''यह बात है? यह बात है? हुर्रे!''
''मौत आये तुम सबको!'' कहकर काम पर चली गयी कबूतरी।
शाम के अड्डे पर नहीं आयी।
''देखा?''
''देखा?''
''देखा?''
बेशर्मी से हँसने लगे सब। बोले, ''दो घण्टा भी रहा नहीं गया। चार बजे की गाड़ी से गयी है मेमसाहब। और आज ही शाम को...''

अपनी जानी-पहचानी दुनिया के हिसाब से आँकड़ा लगाकर निश्चिन्त हो गये सब। बोले,  ''मेमसाहब काठ की गुड़िया है तो क्या हुआ, दम है। नहीं तो साहब इस तरह सँभलकर चलते!''

मगर गिरिधारी एक नयी खबर लाया। एक कुत्ते को भगाते हुए ऑफ़िस घर के पीछे की ओर  गया था शायद, आकर बोला, ''कबूतरी के कमरे में बत्ती जल रही है।''
''बत्ती जल रही है!''
''कबूतरी के कमरे में बत्ती जल रही है।''
''किसने जलायी बत्ती?''
''कबूतरी आ गयी क्या?...मगर कब आयी?''
''आयी तो इधर क्यों नहीं आई?...''
ताश पटककर चले सब।
तीन हाथ के कमरे मे छ: लोग घुस गये।
''क्या हुआ रे कबूतरी?''
''होगा क्या?''
''तबीयत खराब तो नहीं?''
''तबीयत खराब हो दुश्मनों की।''
''तो साहब के घर से लोटकर अचानक यहाँ आकर क्यों सो गयी? हमारे वहाँ नहीं आयीं?''

''दिल नहीं किया।''
''करेगा भी नहीं,'' प्रभापद ने सपाट जवाब दिया, ''गरीब का अड्डा है!...उसे अब शायद साहब  के घर ड्यूटी देने जाना है, तभी आराम...''
''निकल, निकल, निकल जा मेरे कमरे से नालायक, पापी कहीं के।''
कबूतरी ने उठकर खदेड़ा उन्हें, फिर अचानक ही बैठ गयी। बोली, ''नौकरी छोड़ दी है मैंने...''

''छोड दी है? नौकरी छोड़ दी है?''
''सच बात कहो न! मेमसाहब ही छुड़ाकर गयी होगी, है न?''
''नहीं!''
कबूतरी अचानक मानो शान्त, गम्भीर और उदास हो गयी।
''छुड़ा देने से तो इज्जत रह जाती। छुड़ा नहीं दिया बल्कि उल्टा ही''...बोली, ''तुम हो कबूतरी मुझे कोई चिन्ता नहीं। साहब को कोई तकलीफ नहीं होगी।''
''ठीक से देखभाल करना।''
सुनकर पता नहीं क्यों बहुत गुस्सा आया। सिर से पैर तक जैसे कोई बिजली का झटका लगा।

कह दिया मैंने, ''आप नहीं रहेंगी, अकेले घर में इतने दिन मैं नहीं आ सकूँगी।...''
सुनकर मेमसाहब तो जैसे देखती ही रह गयीं। हैरान होकर उन्होंने पूछा, ''ऐसी अजीब बात क्यों कह रही हो कबूतरी? मैं नहीं रहूँगी तो क्या साहब खाना-पीना बन्द कर देंगे? मैं नहीं रहूँगी इसीलिए तुम काम पर नहीं आओगी?''
''ऐसी बात तो सुनी नहीं कभी...''
''सर पर खून सवार हो गया, मालूम है?
मैंने कहा, ''कभी नहीं सुनी ऐसी बात?''
साहब बोले, ''सच, नहीं सुनी ऐसी बात! मेमसाहब नहीं रहने से और भी ज्यादा काम करोगी, या कि छुट्टी लेकर घर में बैठी रहोगी? बड़ी अजीब बात है!...'' दोनों ही बोले, ''अजीब बात है।''
मैंने कहा, ''अजीब लोगों का काम भी अजीब होता है साहब। खैर! कुछ दिनों की छुट्टी देने की जरूरत नहीं, एकदम ही छुट्टी दे दीजिए!...''
''आश्चर्य है।'' कहकर चुपचाप मेमसाहब ने मेरे पैसे चुका दिये।...चली आयी मैं।

''आश्चर्य तो है ही।'' रासबिहारी बोला, ''ऐसा क्या हो गया कि तू इतना बिगड़ गयी?''
''नहीं समझेगा। तेरे बस की बात नहीं,'' उदास स्वर में कबूतरी बोली, ''औरत का अपमान समझ पाना तेरे बस में नहीं है।...'' उन्हें पता है कि जहाँ वे खड़े हैं, हम उनसे हज़ार सीढ़ी नीचे हैं। तभी तो दोनों स्वर मिलाकर बोल उठे, ''अजीब बात है।''
''इसके बाद भी वहाँ रह जाऊँ, यही कहता है क्या? दु:खी-अभागी हूँ, पर इसका मतलब यह तो नहीं कि, चमड़ी के नीचे खून नहीं बहता है?''

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