नाटक-एकाँकी >> लहरों के राजहंस (पेपरबैक) लहरों के राजहंस (पेपरबैक)मोहन राकेश
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फिर विशेषक बनाने का प्रयत्न करती है। नंद दर्पण को अपने से इतना सटा लेता है
कि उसकी साँस से वह धुंधला जाता है। सुंदरी हाथ रोककर रोषपूर्ण दृष्टि से
उसकी ओर देखती है। रहने दीजिए। जाकर चंदन-लेप की कटोरी शृंगारकोष्ट में रख
देती है।
नंद : क्यों, अब क्या हुआ ? दर्पण हिला तो नहीं ?
सुंदरी : हिला नहीं, पर आपकी साँस से धुंधला गया है। आप जान-बूझकर ।
नंद : (धुंधले दर्पण को देखता हुआ)
नहीं, मैने जान-बूझकर ऐसा नहीं किया।
अपने उत्तरीय से दर्पण को पोंछ देता है। लो, अब देखो।
सुंदरी : आप दर्पण रख दीजिए। मुझे विशेषक नहीं बनाना है।
नंद : क्यों ?
सुंदरी : मैंने कह दिया है, मुझे नहीं बनाना है।
श्रृंगारकोष्ठ के पास से हटकर चबूतरे की ओर चली जाती है। नंद दर्पण की छाया
उस पर डालने का प्रयत्न करता है।
नंद : जब तक विशेषक नहीं बनाओगी, मैं तुम्हें दर्पण की छाया से बाहर नहीं
जाने दूंगा।
सुंदरी चबूतरे के पास से हटकर झूले की ओर चली जाती है। नंद दर्पण की छाया उधर
डालता है। अब भी दर्पण की छाया तुम्हारे ऊपर है और तुम्हारी छाया दर्पण के
अंदर है।
सुंदरी : आप दर्पण रख दीजिए। मुझे विशेषक नहीं बनाना है, नहीं बनाना है।
दर्पण की छाया से बचने के लिए झूले से उठकर पीछे के दीपाधार के पास से होती
हुई चबूतरे के ऊपर आ जाती है। नंद दर्पण ऊँचा उठाकर उस पर छाया डालने का
प्रयत्न करता है। भिक्षुओं का समवेत स्वर बहुत पास आकर एकाएक रुक जाता है।
स्वर के रुकते ही दर्पण नंद के हाथ में संभल न पाने से नीचे गिरकर टूट जाता
है।
नंद : (चौककर)
दर्पण टूट गया ?
नंद स्तब्ध-सा पहले सुंदरी को, फिर टूटे हुए दर्पण को देखता है। सुंदरी
चबूतरे पर जहाँ-की-तहाँ बैठ जाती है। भिक्षुओं और भिक्षुणियों का समवेत स्वर
फिर आरंभ हो जाता है और अब क्रमशः दूर होता जाता है।
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