नाटक-एकाँकी >> लहरों के राजहंस (पेपरबैक) लहरों के राजहंस (पेपरबैक)मोहन राकेश
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नेपथ्य : धम्मं शरणम् गच्छामि
संघं शरणम् गच्छामि
बुद्धं शरणम् गच्छामि ।
नंद कुछ पल खोया-सा खड़ा रहता है, फिर बढ़कर सुंदरी के पास आता है।
नंद : मुझे खेद है सुंदरी !
समवेत स्वर क्रमशः मंद पड़ता हुआ विलीन होने लगता है। देखो, सुंदरी !
सुंदरी जड़-सी उसकी ओर देखती है और चबूतरे से उठकर आगे के दीपाधार के पास आ
जाती है।
नंद :उसके पास आकर) सुंदरी !
सुंदरी : आप अपने कक्ष में चले जाइए। मैं कुछ देर एकांत में रहना चाहती हूँ।
नंद पल-भर अस्थिर-सा खड़ा रहने के बाद सिर झुकाए चबूतरे पर चला जाता है।
सुंदरी एक बार उसकी ओर देखकर फिर सामने देखने लगती है।
सुंदरी : आपसे कहा था मैं कुछ देर एकांत में रहना चाहती हूँ।
नंद : परंतु मुझे यहाँ से जाने का अधिकार नहीं है। मैं दिन-भर तुम्हारे पास
रहने का वचन दे चुका हूँ।
सुंदरी : वचन मुझे दिया था न ? अब मेरी ओर से आप वचनमुक्त हैं।
नंद : परंतु में वचनमुक्त होना नहीं चाहता।
आकर टूटे हुए दर्पण को उठाता है और उसे देखता हुआ ले जाकर श्रृंगारकोष्ट में
आधार पर रख देता है। फिर लौटकर सुंदरी के पास आता है।
नंद : सुनो।
सुंदरी न कुछ कहती है, न उसकी ओर देखती है। जो टूटा है, वह तो काँच का दर्पण
है। तुम कहा करती हो न कि तुम्हारा दर्पण ।
सुंदरी : उस बात को जाने दीजिए।
नंद : अच्छा, आओ, वहाँ चलकर बैठो ।
उसे मत्स्याकार आसन की ओर ले जाना चाहता है।
सुंदरी : मैं आपसे एक बात जानना चाहती हूँ।
नंद : वहाँ आ जाओ, बैठकर बात करो।
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