नाटक-एकाँकी >> लहरों के राजहंस (पेपरबैक) लहरों के राजहंस (पेपरबैक)मोहन राकेश
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नंद : (पास आकर)
यह लो।
सुंदरी : (कटोरी लेकर रखती हुई)
पता है लोग क्या कहते हैं ?
नंद : क्या कहते हैं ?
सुंदरी : कहते हैं, आपका ब्याह एक यक्षिणी से हुआ है जो हर समय आपको अपने
जादू से चलाती है।
सुंदरी : इसमें झूठ क्या है ?
सुंदरी : झूठ नहीं है ?
नंद : यक्षिणी हो या नहीं, यह तो मैं नहीं कह सकता पर मानवी तुम नहीं हो।
(स्थिर दृष्टि से उसकी ओर देखता हुआ) ऐसा रूप मानवी का नहीं होता।
सुंदरी : नहीं होता ? मानवी का रूप बहुत देखा ?
दर्पण उसकी ओर बढ़ा देती है। लीजिए !
नंद दर्पण उसके हाथ से ले लेता है। वहाँ जाकर खड़े हो जाइए।
नंद आगे के दीपाधार के पास चला जाता है। इस तरह नहीं ।
पास जाकर दर्पण उसके साथ सटा देती है। इस तरह। (चंदन की कटोरी हाथ में लेकर)
अब मुझे विशेषक बनाने दीजिए...।
दर्पण में देखती हुई विशेषक बनाने के लिए हाय माथे के पास ले जाती है। तभी
दूर से भिक्षुओं और भिक्षुणियों का समवेत स्वर सुनाई देने लगता है। उसका हाथ
पल-भर रुका रहता है। स्वर क्रमशः पास आता जाता है।
नेपथ्य : धम्मं शरणं गच्छामि
संघं शरणं गच्छामि
बुद्धं शरणं गच्छामि ।
पृष्ठभूमि में यह स्वर निरंतर चलता रहता है।
सुंदरी: (सहसा अपने को सहेजकर)
देखिए दर्पण हिल गया। आप कुछ देर स्थिर खड़े नहीं रह सकते ?
उस स्वर से पैदा हुई नंद की अस्थिरता उसके चेहरे और हाथों से प्रकट होती है।
नंद : (दर्पण को ठीक रखने का प्रयत्न करता हुआ)
अब ठीक है ?
सुंदरी : नहीं।
नंद : अब ?
सुंदरी : ऊँ-हूँ।
नंद : (प्रयत्नपूर्वक ध्यान सुंदरी के चेहरे पर केंद्रित करके)
अब ?
सुंदरी : अब कुछ ठीक है। देखिए, अब नहीं हिलिएगा।
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