5.93 समीक्षा
1. इस अध्याय का आरम्भ, ग्रह दशाफल के विशिष्ट नियम से हुआ है। अपने सम्बन्धी या सधर्मी ग्रह की भुक्ति में शुभ फल किन्तु अशुभ स्थान के स्वामी की अन्तर्दशा अनिष्ट परिणाम देती है।
2. ज़ो ग्रह दशानाथ का शत्रु तो नहीं किन्तु मित्र भी नहीं, उसकी अन्तर्दशा बहुधा मिश्रित फल देती है। इस अवधि में अधिक शुभ या अशुभ फल जातक को नहीं मिला. करते।
3. केन्द्र त्रिकोणेश की दशा-भुक्ति प्रायः राजयोग सरीखा शुभ फल देती है। यदि योगकारी केन्द्रेश-त्रिकोणेश का सम्बन्ध, अष्टम या एकादश भाव से हो तो शुभ फल मैं निश्चय ही कमी होती है। कभी तो राजयोग भंग की स्थिति बनती है।
4. योगकारक ग्रह की महादशा में मारक ग्रह की अन्तर्दशा कभी अनिष्ट भी आशंका या भय भले ही दे किन्तु अशुभ परिणाम कदापि नहीं देती। इसी प्रकार मारक ग्रह की दशा में योगकारक ग्रह की भुक्ति आने पर शुभ परिणामों की आशा तो बँधती है किन्तु शुभ परिणाम बहुत स्वल्प मात्रा में ही मिलते हैं। कई बार तो शुभ परिणाम बिल्कुल नहीं मिलते, बस बातें ही होती रहती हैं।
5. अशुभ ग्रह की दशा में योगकारक ग्रह की अंन्तर्दशा राजयोग न देकर उत्कृष्ट शुभ फल ही दिया करती है।
6. राहु-केतु जिस भाव में हों उस भावेश अर्थात अपने नियन्त्रक ग्रह का फल अपनी देशी भुक्ति में देते हैं। लग्न, पंचम व नवम भाव में स्थित राहु-केतु की दशा में लग्नेश, पंचमेश या भाग्येश की भुक्ति निश्चय ही शुभ फल दिया करती है।
टिप्पणी-
योगकारक ग्रह-केन्द्र व त्रिकोण, दोनों भावों का स्वामी एक ग्रह होने पर वह योगकारक बनता है।
(i) कर्क और सिंह लग्न में मंगल, योगकारक है।
(ii) वृष और तुला लग्न में शनि योगकारक है।
(iii) मकर और कुम्भ लग्न में शुक योगकारक है।
योगकारक ग्रह की दशा-भुक्ति अशुभ फल में कमी कर शुभ फल को बढ़ाती हैं।
कैन्द्राधिपति दोष-चन्द्रमा, बुध-गुरु सरीखे शुभ ग्रह केन्द्र भाव के स्वामी, होने पर, शुभ नहीं रहते अपितु सुम हो जाते हैं। इसी प्रकार क्रूर ग्रह सूर्य, मंगल, शनि केन्द्रेश होने पर अशुभ नहीं रहते अपितु सम हो जाते हैं। ध्यान रहे, लग्नेश यदि शुभ ग्रह हो तो उसे केन्द्राधिपति होने का दोष नहीं लगता।
त्रिषडाय पति-3,6,11 वें भाव के स्वामी अशुभ माने जाते हैं। यदि कोई ग्रह त्रिषडाय के दो भावों का स्वामी हो जाए तो उसकी दशा-अन्तर्दशा में अधिक या प्रबल अशुभ फल की प्राप्ति होती है। 6,8,12, भावे .अर्थात् त्रिक भाव के स्वामी भी पाप फल देते हैं।
1. वृष लग्न में गुरु 8L+11L होने से अधिक पापी है।
2. तुला लग्न में गुरु . 3L+7L होने से बड़ा पापी हैं।
3. मिथुन लग्न में मंगल 6L+11L होने से प्रबल पापी है।
4. कन्या. लग्न में मंगल 3L+8L होने से बड़ा पापी है।
5. मेष लग्न में बुध 3L+6L होने से अधिक पापी हो जाता है।
6. वृश्चिक लग्न में बुध 8L+llL होने से अत्यधिक पापी है।
7. धन लग्न में शुक्र 6L+11L होने से बड़ा पापी है।
8. मीन लग्न में शुक्र 3L+8L होने से बड़ा पापी है।
ध्यान रहे, त्रिषडाय व त्रिक भाव के स्वामी की अन्य राशिं यदि त्रिकोण में (1,5,9, भाव) पड़े तो वह त्रिषडाय या त्रिकेश दोष से मुक्त हो कर शुभ हो जाता है।
त्रिकोण अधिपति-यदि कभी त्रिकोणेश की अन्य राशि त्रिक भाव या त्रिषडाय में पड़े तब भी उसे कुछ भी दोष नहीं लगता और वह शुभ तथा योगकारक फल देने में सक्षम होता है। किन्तु केन्द्रेश की अन्य राशि अशुभ भाव में पड़ने पर वह शुभ नहीं रह पाती, अपितु थोड़ा पापी हो जाता है। मकर लग्न के जातक के लिए मंगल 4L+1lL होने से पापी होगा। कर्क लग्न जातक का शुक्र 4L+11L होने से थोड़ा अशुभ ही माना जाएगा। कुछ ऐसी ही बात अन्य लग्नों के लिए समझें।
सूर्य चन्द्रमा सूर्य और चन्द्रमा को अष्टमेश होने का दोष नहीं लगता। अन्य विद्वान कहते हैं कि यदि इन दोनों को अष्टमेश होने का दोष नहीं है तो फिर षष्ठेश या व्ययेश होने का दोष भी नहीं लगना चाहिए। उनके मंतांनसार, सूर्य के चन्द्रमा किसी भी अशुभ भाव के स्वामी होने पर पापी नहीं होते बल्कि सम हो जाते हैं।
बाधा स्थान और बाधकेश-
(i) कुछ विद्वान चर लग्न के लिए एकादश भाव को बाधा स्थान व एकादशेश को बाधापति मानते हैं। उस स्थिति में 11L या एकादशेश प्रबल पापी व मारक सरीखा हो जाता है।
(ii) स्थिर लग्न जातक का नवम भाव बाधा स्थान तथा नवमेश बाधकेश माना जाता है। विद्वानों का एक बड़ा वर्ग नवमेश को सर्वाधिक शुभ मानता है। उनके विचार से, नवमेश सम तो हो सकता है, किन्तु पापी नहीं। शोधकर्ताओं का मत
है कि नवमेश की अन्य राशि यदि षष्ठ, अष्टम, द्वादश, द्वितीय या तृतीय भाव में पड़े तो वह निश्चय ही थोड़ी बाधा भी अवश्य दिया करता है।
(iii) द्विस्वभाव लग्न जातक का सप्तम भाव बाधा स्थान तथा सप्तमेश बाधापति होने से कभी प्रबल मारकेश भी हो जाता है।
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