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वास्तु एवं ज्योतिष >> लघुपाराशरी सिद्धांत

लघुपाराशरी सिद्धांत

एस जी खोत

प्रकाशक : मोतीलाल बनारसीदास पब्लिशर्स प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :630
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 11250
आईएसबीएन :8120821351

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5.20 शनि तथा शुक्र की दशा


परस्पर दशायां स्वभुक्तौ सूर्यज भार्गव
व्यत्ययेन विशेषेण प्रदिशेतां शुभाशुभम्।।40।।


शनि की दशा में शुक्र की अन्तर्दशा आने पर शनि का विशेष फल मिलता है। इसी प्रकार शुक्र की महादशा में शनि की अन्तर्दशा होने पर शुक्र का विशेष फल प्राप्त होता है।

टिप्पणी-
शुक्र व शनि परस्पर मित्र हैं। इतना ही नहीं, यदि शनि लग्नेश हो तो शुक्र केन्द्र व त्रिकोण का स्वामी होने से योगकारक हो जाता है। इसी प्रकार शुक्र यदि लग्नेश है तो शनि योगकारक हो जाता है।

अन्य विद्वान कहते हैं कि यदि-

शनि व शुक्र दोनों ही बली, उच्चस्थ, स्वक्षेत्री, मित्रक्षेत्री यदि शुभ भाव में बैठे हों तो इनकी परस्पर दशा, अन्तर्दशा राजा को भी भिखारी बना देती है। कारण-शुक्र भोग प्रधान ग्रह है तो शनि वैराग्य देने वाला ग्रह है।

इसके विपरीत शनि और शुक्र में-

(i) एक बली व दूसरी निर्बल हो तो परस्पर दशा भुक्ति में शुभ फल मिलता है।
(ii) दोनों ही निर्बल, त्रिक भाव या त्रिकेश से, सम्बन्ध करें अर्थात् 6,8,12 भाव इनके स्वामियों से दृष्टि युति सम्बन्ध करें तो इनकी परस्पर दशा मुक्ति धन-वैभव व सुख-समृद्धि देती है।
(iii) एक ग्रह शुभ भाव का स्वामी हो तथा दूसरा 6,8,12 वें भाव से सम्बन्ध करे तो इनकी परस्पर दशा भुक्ति शुभ फल देगी।
(iv) शनि व शुक्र, दोनों ही अशुभ हों तब भी इनकी परस्पर दशा भुक्ति शुभः फल दिया करती है।

शनिदये तु शुक्रस्तु शुक्रदाये शनि स्तथा
मीने धनुषि जातस्य योगदो भवति ध्रुवम्।।
(भावार्थ ‘रत्नाकर' 12:2)

धनु या मीन राशि लग्न में होने पर शनि में शुक्र की अन्तर्दशा अथवा शुक में शनि की अन्तर्दशा निश्चय ही योगकारी होती है।
धनु लग्न में शनि द्वितीय व तृतीय भाव का स्वामी है तो शुक्र भी षष्ठेश एकादशेश होने से पापी हो गया है।
ऊपर (iv) के अनुसार, दोनों पापी व अशुभ होने से अपनी परस्पर दशा अन्तर्दशा में शुभ फल देने वाले बन जाते हैं।

धर्मकर्माधिने तारावन्यो न्याश्रय संस्थितौ।
राजयोगाविति प्रोक्तं विख्यातो विजयी भवेत् ।।42।।
 
(i) दशम भाव में लग्नेश व दशमेश की युति हो।
(ii) लग्न में लग्नेश व दशमेश की युति हो।
(iii) नवमेश व दशमेश की नवम भाव में युति हो।
(iv) नवमेश व दशमेश की दशम भाव में युति हो तो इंन ग्रहों की परस्पर दशा अन्तर्दशा धन, वैभव, सफलता तथा पद, प्रतिष्ठा दिया करती है। ध्यान रहे, दशम भाव सर्वश्रेष्ठ केन्द्र स्थान है तो नवम भाव सर्वश्रेष्ठ त्रिकोण भाव है। केन्द्र व त्रिकोण की परस्पर युति केन्द्र या त्रिकोण भाव में होने से इनकी दशा विशिष्ट राजयोग देगी।

टिप्पणी-
कुछ विद्वान मानते हैं कि-
(i) लग्नेश और भाग्येश का स्थान परिवर्तन,
(ii) लग्नेश और दशमेश का स्थान परिवर्तन तथा
(iii) भाग्येश और दशमेश का स्थान परिवर्तन राजयोग दिया करता है।

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    अनुक्रम

  1. अपनी बात
  2. अध्याय-1 : संज्ञा पाराशरी

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