भारतीय जीवन और दर्शन >> अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचित अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचितसुबोधचन्द्र पंत
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राजा : नहीं, नहीं, ऐसा न कहिए। आप लोगों के दर्शन मात्र से ही हमारा
सत्कार हो गया है।
[शकुन्तला राजा को देखती हुई कुशा चुभने और शाखा में उलझने का बहाना-सा
करती हुई थोड़ा रुकती है और फिर सखियों कि साथ चली जाती है।]
राजा : नगर में जाने का सारा उत्साह ठण्डा पड़ गया है। इसलिए आश्रम के पास
ही सैनिकों के साथ डेरा डाले देता हूं। ऐसा लगता है कि शकुन्तला के इस
प्रेम-व्यवहार से मैं छुटकारा नहीं पा सकूंगा। क्योंकि-
जैसे पवन के सामने झण्डा लेकर चलने पर उसकी रेशमी झण्डी पीछे को ही फहराती
है, वैसे ही ज्यों-ज्यों मेरा शरीर आगे बढ़ता है, त्यों-त्यों मेरा चंचल मन
पीछे को दौड़ता जाता है।
[सबका प्रस्थान]
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