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भारतीय जीवन और दर्शन >> अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचित

अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचित

सुबोधचन्द्र पंत

प्रकाशक : मोतीलाल बनारसीदास पब्लिशर्स प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :141
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 11183
आईएसबीएन :8120821548

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द्वितीय अंक

[उदास मन से विदूषक का प्रवेश]

विदूषक : (लम्बी साँस भरता हुआ) बस देख लिया। इस मृगयाप्रिय राजा की मित्रता से तो मेरा जी घबराने लगा है। भरी दुपहरी में जबकि विश्राम करने का समय होता है, इसके साथ रहने पर एक वन-से-दूसरे वन में भटकते हुए ऐसे जंगली प्रदेशों से चलना पड़ता है जहां गर्मी के कारण पेड़ों में पत्ते भी नहीं रहे, इसलिए कहीं आराम के लिए छाया भी नहीं मिलती।

उसके ऊपर से दिन-रात यही हल्ला कान फाड़े डालता है-
देखो, यह मृग आया, वह सूअर निकल गया, वह देखो, वह रहा सिंह।
फिर सड़े हुए पत्तों से मिले हुए जल वाली नदियों का कसैला और कड़ुवा पानी पीना पड़ता है।  अबेर-सबेर लोहे की सीखों पर भुना हुआ मांस खाने को मिलता है। घोड़ों के पीछे दौड़ते-दौड़ते  शरीर के जोड़-जोड़ ऐसे ढीले पड़ गये हैं कि रात में ठीक प्रकार से नींद भी नहीं आती। उस  पर ये दासी पुत्र, चिड़ीमार सवेरे-सवेरे चलो वन को, चलो वन को, चिल्ला-चिल्लाकर ऐसा  हल्ला मचाते हैं कि आई-अवाई नींद उचट जाती है।

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