भारतीय जीवन और दर्शन >> अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचित अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचितसुबोधचन्द्र पंत
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[सभी यह सुनकर घबरा-सी जाती हैं।]
राजा : (मन-ही-मन) अरे, धिक्कार है मेरे सैनिकों को। ऐसा लगता है कि हमें
ढूंढने के लिए ये सैनिक तपोवन को ही रौंदे दे रहे हैं।
[तब तो हमें उधर ही चलना चाहिए।]
दोनों : आर्य! इस वन्य हाथी की बात सुनकर हम लोग डर गई हैं। अब हमें कुटी
में जाने की आज्ञा दीजिए।
राजा : (शीघ्रता से) हां, हां, आप लोग चलिए। मैं भी प्रयत्न करता हूं कि
तपोवन में किसी प्रकार का विघ्न न हो।
दोनों : आर्य! हम लोगों ने आपका कुछ भी सत्कार नहीं किया, इस लिए (तीनों
उठती हैं।) आर्य से यह कहते हुए बड़ा संकोच हो रहा है कि हमें फिर भी दर्शन
देकर कृतार्थ करें।
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