भारतीय जीवन और दर्शन >> अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचित अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचितसुबोधचन्द्र पंत
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[नेपथ्य में]
हे तपस्वियो! अकर तपोवन के प्राणियों को बचाओ। आखेट का प्रेमी राजा
दुष्यन्त पास ही आ पहुंचा है। उसके घोड़ों की टापों से उड़ी हुई और सांझ की
ललाई के समान लाल-लाल धूल टिड्डी दल के समान उड़कर आश्रम के उन वृक्षों पर
फैली पड़ रही है जिनकी शाखाओं पर गीले वल्कल के वस्त्र फैलाये हुए हैं।
और देखो-
राजा के रथ से डरा हुआ यह वन्य हाथी हमारी तपस्या के लिए साक्षात् विघ्न
बना हुआ हरिणों के झुण्ड को तितर-बितर करता हुआ इस तपोवन में घुसा चला आ
रहा है। इसने अपने तीव्र आघात से एक वृक्ष को ही उखाड़ लिया है और उसकी
शाखा में उसका एक दांत फंस गया है। उस वृक्ष की टूटी हुई लताएं भी फन्दे
के समान उसके पैरों में उलझ गई हैं।
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