भारतीय जीवन और दर्शन >> अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचित अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचितसुबोधचन्द्र पंत
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अनसूया : इस समय अतिथि विशेष के आ जाने से तपस्या सफल ही समझिए। (शकुन्तला
से कहती है।) शकुन्तला! जाओ, कुटी में जाकर कुछ फल-फूल के साथ अर्ध्य ले
आओ। चरण धोने के लिए जल तो यहीं प्राप्त है।
राजा : मेरा अतिथि-सत्कार तो आपकी मीठी-मीठी बातों से ही हो गया है।
प्रियंवदा : आर्य! तो चलिए, घनी छाया वाले सप्तवर्णी वन के तले जो शीतल
चबूतरा है, वहां चलकर बैठिए। वहीं विश्राम करिए।
राजा : आप भी तो सब काम करते-करते थक गई होंगी।
प्रियंवदा : शकुन्तला! अब हमें अतिथि की बात तो रखनी ही होगी आओ, यहां
बैठकर विश्राम करें।
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