भारतीय जीवन और दर्शन >> अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचित अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचितसुबोधचन्द्र पंत
|
|
[इस प्रकार सब बैठ जाती हैं।]
शकुन्तला : (मन-ही-मन) इस व्यक्ति को देखकर न जाने मेरे मन में क्यों एक
प्रकार की उथल-पुथल-सी हो रही है। यह तो तपोवन वासियों के मन में नहीं
होना चाहिए।
राजा : (सबको देखकर) आप लोग सब एक ही अवस्था वाली और एक समान रमणीय रूप
वाली हैं। आप लोगों का परस्पर प्रेम बड़ा ही मनोहारी लगता है।
|
लोगों की राय
No reviews for this book