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भारतीय जीवन और दर्शन >> अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचित

अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचित

सुबोधचन्द्र पंत

प्रकाशक : मोतीलाल बनारसीदास पब्लिशर्स प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :141
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 11183
आईएसबीएन :8120821548

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[राजा को देखकर तीनों सकपका जाती हैं।]

अनसूया : आर्य! कोई ऐसी बड़ी विपत्ति नहीं है। हमारी इस प्रिय सखी को भौंरे ने तंग किया  हुआ है। इस कारण यह कुछ घबरा-सी गई थी।

[यह कहकर शकुन्तला की ओर संकेत करती है।]

राजा : (शकुन्तला के सामने जाकर) आपकी तपस्या तो सफल हो रही है न?

[शकुन्तला मुख नीचा कर मौन रहती है।]

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