भारतीय जीवन और दर्शन >> अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचित अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचितसुबोधचन्द्र पंत
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[राजा को देखकर तीनों सकपका जाती हैं।]
अनसूया : आर्य! कोई ऐसी बड़ी विपत्ति नहीं है। हमारी इस प्रिय सखी को भौंरे
ने तंग किया हुआ है। इस कारण यह कुछ घबरा-सी गई थी।
[यह कहकर शकुन्तला की ओर संकेत करती है।]
राजा : (शकुन्तला के सामने जाकर) आपकी तपस्या तो सफल हो रही है न?
[शकुन्तला मुख नीचा कर मौन रहती है।]
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