भारतीय जीवन और दर्शन >> अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचित अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचितसुबोधचन्द्र पंत
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शकुन्लता : (घबराकर) अपने शरीर पर जल के छींटे पड़ने से घबराकर उड़ने वाला
यह भौंरा, इस चमेली को छोड़कर बार-बार मेरे ही मुंह पर मंडराने लगा है।
[भौंरे से पीड़ित होने का नाटक-सा करती है।]
राजा : (ललचाता हुआ-सा) सोचता है-
अरे भौंरे! तुम सचमुच बड़े भाग्यशाली हो जो तुम इसकी चंचल चितवन से देखे
जाते हुए इस कांपती हुई बाला को बार-बार छूते जा रहे हो, उसके कानों के
पास जाकर ऐसे धीरे-धीरे गुनगुना रहे हो, मानों बड़े भेद की बात उसको सुनाना
चाहते हो। और बार-बार उसके हाथों से झटके जाने पर भी तुम उसके रस भरे
अधरों का रस पीते जा रहे हो। इधर हम हैं कि उसके विषय में ठीक बात जानने
की द्विविधा में ही लुट गए हैं।
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