भारतीय जीवन और दर्शन >> अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचित अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचितसुबोधचन्द्र पंत
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शकुन्तला : अरे, यह दुष्ट तो मानता ही नहीं है। यहां से हटकर दूसरे स्थान
पर जाना चाहिए।
[दूसरे स्थान पर जाकर और दृष्टि फेरकर]
अरे, क्या यहां भी आ पहुंचा? अब क्या करूं?
अरी सखियो! बचाओ, बचाओ, मुझे इस दुष्ट भौंरे से बचाओ। इसने तो मुझे बड़ा
परेशान कर दिया है।
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