भारतीय जीवन और दर्शन >> अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचित अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचितसुबोधचन्द्र पंत
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शकुन्तला : यह तो तुमने अपने मन की बात कही है।
[घड़े के जल से पेड़ को सींचती है।]
राजा : यह ऋषि की कन्या कहीं किसी अन्य वर्ण की स्त्री से तो उत्पन्न नहीं
हुई है? किन्तु संदेह किया ही क्यों जाय?
क्योंकि-
जब मेरे जैसा शुद्ध मन भी इसकी अभिलाषा करने लगा है, तब यह निश्चय है कि
इस कन्या का विवाह क्षत्रिय से हो सकता है। क्योंकि सज्जनों के मन
में किसी बात पर शंका हो तो जिसे उनका मन स्वीकार कर ले उसे ही ठीक
मान लेना चाहिए। जो भी हो, मैं इससे ठीक-ठीक बात जानने का यत्न करता हूं।
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