भारतीय जीवन और दर्शन >> अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचित अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचितसुबोधचन्द्र पंत
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सखी! सचमुच इस लता और वृक्ष का मेल बड़े अच्छे दिनों में हुआ है। इधर यह
'वन ज्योत्स्ना' खिले हुए फूल लेकर नवयौवना हुई है और उधर फल से लदी हुई
शाखाओं वाला वह आमवृक्ष भी अपने पूर्ण यौवन पर है।
[उसे देखती हुई खड़ी रह जाती है।]
प्रियंवदा : (मुस्कुराकर) अनसूया! तुम जानती हो कि यह शकुन्तला इस वन
ज्योत्स्ना को इतनी तन्मयता से क्यों देख रही है?
अनसूया : नहीं सखी! मैं तो नहीं जानती। तू ही बता दे, यह इतनी तन्मय क्यों
हो रही है।
प्रियंवदा : यह सोच रही है कि जिस प्रकार यह वन ज्योत्सना अपने योग्य
वृक्ष से लिपट गई है उसी प्रकार मुझे भी मेरे योग्य वर मिल जाता तो कितना
अच्छा होता।
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