भारतीय जीवन और दर्शन >> अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचित अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचितसुबोधचन्द्र पंत
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अरे सड़ा मांस खाने वाले पिशाच! जरा ठहर।
तेरा अन्त आ गया है। मैं तुझे अभी समाप्त करता हूं।
[राजा धनुष की प्रत्यंचा चढ़ाता है।]
वेत्रवती! मुझे सीढ़ियों का मार्ग तो दिखाओ। तुम आगे-आगे चलो, मैं तुम्हारे
पीछे चल रहा हूं।
[प्रतिहारी चलती है।]
प्रतिहारी : महाराज! आइये, इधर से आइये।
[सबका वेग से प्रस्थान]
राजा : (इधर-उधर देखकर) यहां तो सब शून्य है, कहीं कोई दिखाई ही नहीं दे
रहा है?
[नेपथ्य में]
हाय! हाय!! रक्षा करिये, रक्षा करिये! मैं तो आपको देख रहा हूं किन्तु आप
मुझे नहीं देख रहे हैं। बिलाव के पंजे में फंसा चूहा जिस प्रकार जीवन से
निराश हो जाता है, वही स्थिति मेरी हो गई है। समझिये बस, मैं तो
अपने प्राणों से हाथ धोये बैठा हूं।
राजा : अरे, ओ छल-विद्या के घमण्डी! अब तो मेरा बाण ही तुझको देख लेगा।
ले, मैं यह बाण चढ़ाता हूं।
और-
जिस प्रकार हंस पानी मिले दूध में से दूध और पानी को अलग-अलग कर देता है
उसी प्रकार अब मेरा यह बाण ही तुझ मारे जाने योग्य दुष्ट को मार
डालेगा और बचाये जाने योग्य इस ब्राह्मण को बचा लेगा।
[यह कहकर राजा बाण चढ़ाता है।]
[तभी विदूषक को छोड़कर मातलि का प्रवेश]
मातलि : (राजा से कहता है)-
राक्षसों को हरिण की भांति मारने के लिए इन्द्र ने यह धनुष-बाण सौंपा है।
अब आप चलकर उन राक्षसों पर ही इन बाणों को चलाइयेगा। क्योंकि आप जैसे
सज्जन लोग अपने मित्रों पर बाणों की वर्षा नहीं करते, अपितु उन पर
तो कृपा की ही वर्षा करते हैं।
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