भारतीय जीवन और दर्शन >> अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचित अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचितसुबोधचन्द्र पंत
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राजा : (आश्चर्य से धनुष पर से बाण उतारकर) उसे मातलि! आओ, इन्द्र के
सारथि! आओ, तुम्हारा स्वागत है।
[प्रविष्ट होकर]
विदूषक : अरे-अरे, यह तो मुझे बलि के पशु के समान मारे डाल रहा था सो उसका
ही यहां स्वागत करके अभिनन्दन किया जा रहा है? अनर्थ, महान् अनर्थ!
मातलि : (मुस्कुराकर) आयुष्मान्! जिस कारण से इन्द्र महाराज ने मुझको आपके
पास भेजा है उसे पहले सुन लीजिये।
राजा : हां, कहिये न। मैं ध्यान से ही सुन रहा हूं।
मातलि : महाराज! प्राचीन काल में कालनेमि नाम का एक राक्षस हुआ था।
राजा : हां, हां, मैंने उसका नाम और करतूत सब सुन रही है। वह तो पूर्व काल
की बात थी?
मातलि : वही तो मैं आपको सुना रहा था। कालनेमि पूर्वकाल का था किन्तु उसके
वंशज तो इसी काल के हैं। उनके वंशजों ने ऐसा दल बना लिया है कि वह किसी के
वश में ही नहीं आ रहे हैं। किसी के हराये वे हारते ही नहीं हैं।
राजा : हां, यह बात बहुत पहले मुझे नारद जी महाराज ने बताई थी। किन्तु
उन्होंने उसके कारण कौन दुःखी है, इस विषय में नहीं बताया तो मैं कोई
कार्य करने से भी रह गया।
मातलि : अब सुनिये महाराज!
आपके मित्र इन्द्र भी इस समय असमर्थ हो गये हैं। उन्होंने उनको जीतना चाहा
था, किन्तु जीत नहीं पाये। तो यही उचित समझा गया है कि अब आप ही
उनको रण-क्षेत्र में पछाड़ सकते हैं।
क्योंकि-
रात के जिस अन्धकार को सप्तरथी सूर्य नहीं हरा सकता है उस निशान्धकार को
चन्द्रमा ही हरा सकता है।
तो अब आप यह धनुष-बाण लिये हुए इन्द्र के रथ पर आरूढ़ होकर विजय के लिए
प्रस्थान करिये।
राजा : भगवान मधवा की इस कृपा से मैं अनुगृहीत हूं। चलता हूं। किन्तु यह
तो बताइये कि आपने बेचारे माढव्य के प्रति इस प्रकार का व्यवहार क्यों
किया था?
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