भारतीय जीवन और दर्शन >> अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचित अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचितसुबोधचन्द्र पंत
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[नेपथ्य में]
अरे मार दिया, मार दिया, ब्राह्मण को मार दिया।
राजा : (ध्यान से कान लगाकर सुनता है।) अरे, यह तो माढव्य का-सा स्वर
सुनाई दे रहा है।
कोई है?
[प्रतिहारी का प्रवेश]
प्रतिहारी : (घबराहट के स्वर में) महाराज! आपके मित्र बड़े ही संकट में पड़
गये हैं। कृपया उनके पास चलकर उनको बचाइये, महाराज!
राजा : माढव्य को कौन सता रहा है?
प्रतिहारी : महाराज! समझ में नहीं आ रहा है। लगता है कि किसी भूत-प्रेत ने
उनको पकड़ लिया है।
उनको वहां से उठाकर मेघप्रतिच्छन्न भवन की मुंडेर पर ले जाकर टांग दिया
है।
[राजा उठता है।]
राजा : यह कैसे हो सकता है? क्या मेरे घर में भी भूत-प्रेतों ने अपना
अड्डा जमाना आरम्भ कर दिया है?
हां, यह भी सम्भव है-
क्योंकि जब मनुष्य यह जानता ही नहीं कि भूल से न जाने वह स्वयं कितने पाप
कर्म कर डालता है, तो फिर यह कैसे जाना जा सकता है कि प्रजा में कौन
किस समय कैसा कार्य कर रहा है। यह जानने की शक्ति किसमें है?
[नेपथ्य में]
भो मित्र! रक्षा करो, मेरी रक्षा करो।
[राजा वेग से जाता है।]
राजा : मित्र! डरो मत, डरो मत।
[नेपथ्य में]
हाय, हाय! मैं किस प्रकार न डरूं। यहां न जाने कौन है जो मेरी गर्दन को ईख
के समान मरोड़कर तिहरी किये दे रहा है।
[राजा चारों ओर देखता है।]
राजा : अरे मेरा धनुष कहां है?
[धनुष-बाण लिये प्रतिहारी का प्रवेश]
यवनी : स्वामिन्! लीजिये, यह आपका धनुष और बाण।
[राजा धनुष-बाण लेता है।]
[नेपथ्य में]
तेरे कण्ठ के गरम-गरम रुधिर का प्यासा मैं तेरा उसी प्रकार वध करूंगा जिस
प्रकार सिंह पशु को तड़पाकर मार डालता है। मैं देखता हूं कि पीड़ितों के
रक्षक तुम्हारे धनुर्धारी, महाराज दुष्यन्त अब तुम्हें किस प्रकार बचाने
आते हैं।
राजा : (क्रोध में) तो क्या तू मुझको भी चुनौती दे रहा है?
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