भारतीय जीवन और दर्शन >> अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचित अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचितसुबोधचन्द्र पंत
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राजा : मेरी तो यह दशा है-
जिस प्रकार समय पर बीज बोई हुई पृथ्वी फल देने वाली हो जाती है उसी प्रकार
मुझसे गर्भ धारण करके जो मेरे कुल को चलाने वाली मेरी धर्मपत्नी थी, उसका
मैंने निरादर कर उसको छोड़ दिया है।
सानुमती : तुम्हारी सन्तान तुम्हारा वंश चलाने वाली होगी, इसमें सन्देह मत
करो।
चतुरिका : (एकान्त में) वेत्रवती! समुद्र के व्यापारी सार्थवाह धनमित्र की
मृत्यु का समाचार सुनकर तो हमारे महाराज का दुःख दूना बढ़ गया है।
इसलिए उनको इस स्थिति से उबारने के लिए तुम मेघप्रतिच्छन्न भवन में जाकर
माढव्य को बुलाकर ले आओ। उसके आने से इनका मन कुछ बहल जायेगा तो यह दुःख
भी कम हो जायेगा।
प्रतिहारी : हां, तुम ठीक ही कहती हो।
[जाती है।]
राजा : दुष्यन्त के पिता-पितामह आदि भी बड़े सन्देह में पड़ गये होंगे।
क्योंकि-
वे बड़े व्याकुल होकर सोच रहे होंगे कि दुष्यन्त के न रहने पर कौन हमारा
वैदिक विधि से तर्पण आदि करेगा। इसी सोच-विचार में वे मेरे द्वारा तर्पण
में दिये गये जल के एक भाग से तो अपने आंसू धोते होंगे और शेष भाग को पीकर
अपनी पिपासा शान्त करते होंगे।
[इस प्रकार राजा मूर्च्छित-सा हो जाता है।]
चतुरिका : (घबराकर) महाराज! धीरज रखिये, धीरज रखिये, महाराज!
सानुमती : हाय, हाय! दीपक के प्रज्वलित रहते हुए भी बीच में किसी वस्तु की
ओट में आ जाने से जिस प्रकार अन्धकार-सा छा जाता है ठीक उसी प्रकार इस
राजा को भी मोह हो गया है। क्या करूं? मैं तो इसकी चिन्ता अभी दूर
कर देती किन्तु विवश हूं।
अदिति ने शकुन्तला को आश्वस्त करते हुए कहा था कि यज्ञ में भाग पाने के
लिए उत्सुक देवता लोग ही तुम्हारा और दुष्यन्त का मिलन करायेंगे।
मैं समझती हूं कि अब अधिक विलम्ब करना उचित नहीं है। मुझे तुरन्त जाकर
शकुन्तला को यह सारी बात बतानी चाहिए, जिससे कि वह बेचारी आश्वस्त हो
जाये।
[यों सानुमती झटके से ऊपर उड़ जाती है।]
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