भारतीय जीवन और दर्शन >> अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचित अभिज्ञानशाकुन्तलम्-कालिदास विरचितसुबोधचन्द्र पंत
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छठा अंक
प्रथम दृश्य
[राजा का साला, नगर रक्षक और उसके साथ-साथ दो रखवालों से घिरे बंधे हुए एक
व्यक्ति का प्रवेश।]
दोनों रक्षक : (उस बन्दी को पीठते हैं और कहते है) बोल रे चोर! यह हमारे
राजा के नाम की रत्नों से जड़ी हुई अंगूठी तेरे हाथ कहां से आ गई? बोल, बोल?
बब्दी पुरुष : (डरता हुआ) दया करो महाराज! मैं चोरी जैसा नीच काम कभी नहीं
करता।
पहला राजपुरुष : तो क्या बहुत बड़ा सुपात्र ब्राह्मण समझकर यह मुद्रिका
महाराज ने तुझे दान में दी थी?
बब्दी पुरुष : नहीं महाराज! ऐसा नहीं है। कृपया मेरी बात तो सुनिये। मैं
शक्रावतार ग्राम के समीप का रहने वाला मछुआ हूं।
दूसरा रक्षक : अरे चोर! हम क्या तुझसे तेरी जात के विषय में पूछ रहे हैं?
राजा का साला : सूचक! तुम उसको बोलने तो दे नहीं रहे हो। उसको सब बातें
ठीक से कहने दो, बीच में टोको मत।
रक्षक : जैसी आपकी आज्ञा। हां भाई बोल, तू क्या कह रहा था?
बन्दी पुरुष : मैं अपना जाल, कांटा और बंसी डालकर नदी से मछली पकड़ा करता
हूं। इसी से मेरी आजीविका चलती है, कुटुम्ब का पालन होता है...
श्यामल : बहुत बड़ा काम हाथ में लिया हुआ है।
पुरुष : ऐसा न कहिये महाराज!
स्वामी!
जिस जाति को भगवान ने भला अथवा बुरा जो काम सौंप दिया है वह तो अब हमसे
छोड़ा नहीं जाता। अब आप ही देखिये, पशुओं को मारना यद्यपि बहुत बुरा काम
है, तदपि बड़े-बड़े दयावान और
वेदज्ञ ब्राह्मण लोग भी सुना जाता है कि यज्ञ के लिए पशुबलि करते हैं।
श्यामल : अच्छा, अच्छा, उपदेश देना बब्दकर और अपनी जो बात बता रहा था वह
बता।
पुरुष : एक दिन मैंने एक रोहू मछली पकड़ी। उसको जब मैं काट रहा था तो उसके
भीतर यह रत्न जड़ित चमकीली अंगूठी दिखाई दी। उसने बेचने के लिए बाजार में
लाकर मैं दिखा ही रहा था कि उसके रक्षकों ने मुझे पकड़ लिया।
यही इस अंगूठी मिलने की कथा है, अब यह निर्णय आपके ऊपर है। चाहे मुझे
मारिये या फिर छोड़ दीजिये।
श्यामल : जानुक! इसमें तो सन्देह नहीं कि यह गौह खाने वाला मछुआरा ही है,
क्योंकि इसके शरीर से कच्चे मांस और मछली की दुर्गन्ध आ रही है। और यह जो
मछली के पेट में अंगूठी मिलने की बात बता रहा है, तो चलकर ठीक-ठीक जांच कर
लेनी चाहिए। उचित यही है कि इसको पहले महाराज के पास ले चलो।
दोनों रक्षक : चलिये ठीक है। चल भाई गंठकतरे! चल।
[सब घूमते हैं।]
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